उज्ज्वल भविष्य लाने वाला महापुरुषार्थ

February 1999

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प्रखर साधना वर्ष का शुभारम्भ एक ऐसा अवसर है, जिसे अद्भुत-अभूतपूर्व कहा जा सकता है। शायद भविष्य में भी इसकी पुनरावृत्ति कभी न हो। इन दिनों विज्ञान ने सुविस्तृत संसार को किसी गली-मुहल्ले की तरह निकटवर्ती बना दिया है। व्यक्ति और समाज की समस्याएँ आपस में गुँथ गयी हैं। साथ मरने-साथ जीने जैसा माहौल बन गया है। इसलिए समस्याओं और समाधानों की खोज नये किन्तु व्यापक दृष्टिकोण से करनी होगी। अपने मतलब-से-मतलब रखने का आदिमकालीन सोच अब चल न सकेगा। अब तो सब कुछ सामूहिक प्रयास के बलबूते ही सम्भव है।

इन दिनों महाविनाश एवं महासृजन आमने-सामने खड़े हैं। इनमें से एक का चयन सामूहिक मानवी चेतना को ही करना पड़ेगा। उस चेतना को, जिसका प्रतिनिधित्व तपस्वी एवं साधना सम्पन्न प्रतिभाएँ करती रही हैं। ऐसी प्रतिभाएँ जो तप-साधना की सुप्रखरता से सुसम्पन्न हों, उन्हीं को युगपरिवर्तन का नियामक कहा जा सकता है।

विस्फोटक गति से बढ़ती जनसंख्या, खाद्य और खनिज पदार्थों से निरन्तर होती जा रही कमी, बढ़ता हुआ वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण आणविक विकिरण, वनों का अत्यधिक कटाव, धरती की उपजाऊ परतों का क्षरण और रासायनिक भरमार से उसकी उर्वरता का समापन, बढ़ते शहर-घटते गाँव, औद्योगीकरण के कारण बढ़ती बेरोजगारी, नशेबाजी, व्यभिचार जैसी दुष्प्रवृत्तियाँ, लोभ, मोह, विलास प्रदर्शन से भरी-पूरी संकीर्ण स्वार्थपरता, कुप्रचलनों के प्रति दुराग्रह जैसी अनेक समस्याएँ इन दिनों तूफानी गति से उभर रही हैं। उनकी बढ़ती तूफानी दिशाधारा मानवी गरिमा को अपने प्रवाह में बहा ले जा सकती है और महाप्रलय के दृश्य उपस्थित कर सकती है। धरती का बढ़ता तापमान, जलप्रलय, हिमप्रलय, प्रचंड-तपन भुखमरी, सूखा, महामारी जैसे स्तर के संकट उत्पन्न कर सकते हैं, जिससे मानवीसत्ता और सभ्यता का अता-पता भी न चले।

विश्वयुद्ध का संकट भी अभी टला नहीं है। एक ओर अगणित सर्वभक्षी विभीषिकाएँ इस सुन्दर विश्व उद्यान को तहस-नहस करने पर तुली हुई हैं, वहीं आशा की उषाकाल जैसी उज्ज्वल भविष्य की एक क्षीण किरण नवोदय का संकेत भी दे रही है। ऐसी विषम परिस्थितियों में विनाश का दमन और विकास का अभ्युदय करने हेतु महाकाल की नियामक चेतना अवतरित होती रही है। यदा-यदा हि धर्मस्य’ वाली उक्ति में इस युग में घटित होने वाली सम्भावना का आश्वासन भी है। सृष्टिकर्ता अपनी इस अनुपम कलाकृति धरती, मानवीसत्ता और उसकी महत्ता का सर्वथा विनाश न होने देने का चमत्कारी सरंजाम जुटाता रहा है। इस बार वैसा न हो, वैसी निराशा किसी को भी न अपनानी चाहिए। उज्ज्वल भविष्य का नाम ही इक्कीसवीं सदी से आरंभ होने वाला सृजन पर्व है।

महाकाल का अवतरण साधना सम्पन्न तपस्वी आत्माओं की आदर्शवादी अन्तःचेतना में ही प्रकट और प्रखर होता है। व्यापक समाधान उसी तूफानी उभार के आधार पर संभव है। उज्ज्वल भविष्य के अवतरण का श्रेय अग्रगामी वरिष्ठ साधकों को मिले, यह स्वाभाविक है, पर वस्तुतः अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता। तप-साधना की संयुक्त शक्ति ही उज्ज्वल भविष्य के अवतरण जैसे महान कार्य सम्पन्न करती है। अवतार की दार्शनिकता इसी केन्द्र में खोजी जा सकती है। देवताओं की संयुक्त दिव्य शक्ति से दुर्गावतार हुआ था। ऋषियों के रक्त-संचय से सीता का उद्भव और असुरता का दमन सम्भव हुआ था। राम के रीछ-वानर कृष्ण के ग्वाल-बाल बुद्ध के भिक्षु, गाँधी के सत्याग्रही इसी प्रकार की भूमिकाएँ सम्पन्न करते हुए असम्भव को सम्भव बनाते रहे हैं। प्रखर साधना वर्ष में वही पुरुषार्थ आत्मिक स्तर पर सम्पन्न होने जा रहा है।

विनाश के दमन और विकास के सृजन के इस आपत्तिकाल में महाकाल ने तपस्वी साधकों को सहयोगी-सहभागी बनाने के लिए साधना वर्ष का आमंत्रण भेजा है। प्रमादी और कुसंस्कारी इसे अनदेखी-अनसुनी करके उपेक्षा भी बरत सकते हैं, पर जिनके भीतर आदर्शों की उत्कृष्टता, दूरदर्शी विवेकशीलता विद्यमान है, वे समय चूक कर सदा पछताते रहने की भूल नहीं कर सकते।

महत्वपूर्ण अवसरों की अवमानना करने वाले ही अभागे कहलाते हैं। साहसी जन तो सहज सम्भावना में भागीदार बनने के लिए पाण्डवों जैसी सूझ-बूझ का परिचय देते हैं।

यह युगवेदना की घड़ी है। एक ओर असह्य वेदना, दूसरी ओर उज्ज्वल भविष्य के महालाभ का सुयोग। रात्रि के अवसान पर तमिस्रा धीरे-धीरे धीमी हो जाती है। दूसरी ओर ब्रह्ममुहूर्त की अवचेतना ऊर्जा और आभा बनकर अरुणोदय की तैयारी में जुटती है। जिनकी उमंगें मरी नहीं हैं, वे प्रातःकाल में जग पड़ते हैं। रात्रि वाली रीति-नीति बदलते और प्रभातकालीन नये क्रिया-कलापों नये उत्तरदायित्वों का वहन करते हैं।

प्रखर साधना वर्ष में ऐसे मणि-मुक्तकों की तलाश हो रही है, जिनका सुगठित हार युगचेतना की महाशक्ति के गले में पहनाया जा सके। ऐसे महासाधकों की तलाश युग-निमन्त्रण पहुँचाकर की जा रही है। जो जीवन्त होंगे-करवट बदलने में उठ खड़े होंगे और संकट काल में शौर्य प्रदर्शित करने वाले सेनापतियों की तरह अपने को विजय श्री वरण करने वाले महावीर के रूप में प्रस्तुत करेंगे। कृपण और कायर ही कर्तव्य की पुकार सुनकर काँपते-घबराते और किसी कोतर में अपना मुँह छिपाने की विडम्बना रचते हैं। एक दिन मरते तो वे भी हैं, पर खेद-पश्चाताप की कलंक-कालिमा सिर पर लादे हुए।

महाविनाश की विभीषिकाएँ अपनी मौत मरेंगी। अरुणोदय अगले ही क्षणों जाज्वल्यमान दिवाकर की तरह साकार होगा। यह सम्भावना सुनिश्चित है। देखना इतना भर है कि उज्ज्वल भविष्य के इस अवतरण काल में तपस्वी की भूमिका सम्पादन करने के लिए श्रेय कौन पाता है? किसके कदम समय रहते श्रेयपथ पर आगे बढ़ते हैं।

तपस्वी आत्माएँ इस अवसर पर अपना दायित्व सँभालें; इसीलिए उन्हें खदानों में छिपे मुक्तकों की तरह प्रयत्नपूर्वक खोजा जा रहा है- जगाया और बुलाया जा रहा है। इस ढूँढ़-खोज के लिए दीपयज्ञों की पुनीत ज्वाला जलाई गयी है। अंधकार में खोई हुई वस्तुओं को प्रकाश जलाकर ही खोजा-उठाया जाता है। जन-जन को झकझोरने वाली चेतना के सुविस्तृत और सुनिश्चित अभियान की तरह ही साधना वर्ष के महाभियान को चलाया जा रहा है। धार्मिकता के भावनात्मक वातावरण में ऐसी ढूँढ़-खोज सहज ही बन भी पड़ती है। देव आरती में बच्चे तो पाई-पैसा चढ़ाकर भी मन बहला लेते हैं, पर प्रतिभाओं को तो छोटी नाली की तरह गंगा-नर्मदा जैसी दिव्य धारा में अपने को

समर्पित ही करना पड़ता है। कृपण और कायर तो सड़ी कीचड़ में जन्मने वाले कृमि कीटकों की तरह उपजते और उसी नरक में विलय हो जाते हैं।

प्रखर साधना वर्ष की अलौकिक आभा में ज्योतिर्मय आत्माएँ उभरती, झिलमिलाती दीख पड़ेंगी और अपनी उपयुक्त जगह ग्रहण करेंगी- ऐसी आशा की गई है। महाकाल का यह शंखनाद निष्फल नहीं जा सकता। इसे सुनकर मूर्च्छितों-प्रसुप्तों में भी चेतना का संचार होगा। जो सर्वथा मर चुके हैं, उनकी बात दूसरी है।

सर्वप्रथम आगे आने वाले तपस्वी साधकों को व्रतधारी प्रज्ञापुत्र कहा जाएगा। वे उपासना-साधना-आराधना के आधार पर आत्मपरिष्कार करेंगे, धार पैनी करेंगे और इतनी अंतःक्षमता अर्जित करेंगे, जिसके आधार पर उनसे कुछ महत्वपूर्ण कार्य करते बन पड़े।

‘सतयुग की वापसी- उज्ज्वल भविष्य का अवतरण’ इसी महापुरुषार्थ के बलबूते सम्भव होगा। जिन दिनों मनुष्य में देवत्व का उदय ओर धरती पर स्वर्ग का अवतरण प्रत्यक्ष दिख पड़ता था, उन दिनों चिन्तन, चरित्र और व्यवहार की उत्कृष्टता ही इस प्रकार की सुखद परिस्थितियाँ उत्पन्न कर रही थी। हँसती-हँसाती खिलती-खिलाती उठती-उठाती जिन्दगी इसी आधार पर बितायी जा सकती है। स्वयं पार उतरना और असंख्यों को अपनी नाव पर बिठाकर पर कराना इसी आधार पर सम्भव हो सकता है। कभी इस देवभूमि में सतयुग था, तब समस्त संसार उसका लाभ उठाता था। अब इस प्रखर साधना वर्ष में किए जाने वाले महापुरुषार्थ से उस पुण्य प्रक्रिया का पुनर्जीवन सम्भव होने जा रहा है। इसी सुनिश्चित सम्भावना का नाम है- उज्ज्वल भविष्य का अवतरण।


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