महायोगी, जिसकी तप शक्ति ने राष्ट्र में नए प्राण फूँके

February 1999

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अजपा जाप सुनि मन धरे। पाँचों इन्द्रिय निग्रह करे॥ ब्रह्म अग्नि में होमे काया। तास महादेव बंदे पाया॥ धन जोवन की करे न आस। चित्त न राखे कामिनि पास॥ नाद बिन्दु जाके घट जरै। ताकी सेवा पारवती करै॥

महायोगी गोरखनाथ के प्राण इन स्वरों में झर रहे थे। साधना की महिमा बताते हुए उनकी तन्मयता अद्भुत थी। बाण गंगा कुण्ड के पास एकत्रित हुआ साधक वृन्द उनके शब्दों को महामंत्र मानकर आत्मसात् कर रहा था। वह कह रहे थे- योगियों! साधना ही जीवन का सार है। देश आज पथभ्रष्ट हो रहा है। जन ही नहीं, जननेतृत्व भी भ्रष्टाचार की पाप-पंक में आकण्ठ डूब चुका है। उसे सुपथ पर लाने के लिए, पाप-पंक से उबारने के लिए प्रचण्ड आत्मबल-सम्पन्न साधकों की आवश्यकता है। तपस्वियों की प्रखर आत्मचेतना से ही राष्ट्रीय जीवन में फिर से नव-प्राण फूँके जा सकते हैं। इसीलिए अपनी साधना को और अधिक तीव्र एवं प्रचण्ड करो। महायोगी के ये स्वर संध्या की लालिमा के शान्त होने के साथ शनैः-शनैः शान्त होते गए। सारा वायुमण्डल एक अपूर्व मौन से भर गया।

संध्याकाल के इस उपदेश के पश्चात् धूनी पर गुरु गोरखनाथ व्याघ्रचर्म पर एक लंगोटी और गुदड़ी में ध्यानमग्न हो गए। उन्होंने रात भीगने पर प्राणायाम प्रारम्भ किया। इड़ा-पिंगला नाड़ियों की शक्ति को ध्यान एकाग्र कर उन्होंने पूरक और कुम्भक प्राणायामों से सुषुम्ना में डाला और मंद पड़ी चेतना या कुण्डलिनी को ऊर्ध्वमुख किया।

उनकी चित्-शक्ति बल खाती नागिन के सदृश फुँकार कर ऊपर उठी। मूलाधार चक्र में वह घूमती रही। तदनंतर योगी के संकल्प से वह ऊपर चली। गुरु मूलाधार को चतुर्दश पद्म के रूप में देखने लगे। चिति कमल में चार पल्लव दीखे और कुण्डलिनी शक्ति वज्रा, चित्रिनी, ब्रह्मनाड़ी और सुषुम्ना में रेंगने लगी। यह भूलोक था और इसका रंग रक्त का था। गोरक्ष ने सोचा, यही संसार है। संसारी मूलाधार से ऊपर उठ नहीं पाते। उनकी कुण्डलिनी इसी भूलोक के रागारुण जीवन के सुख-दुख में सिमटी रहती है।

गोरक्ष ने मूलाधार चक्र में चार कमलदलों से वं शं षं सं अक्षरों की ध्वनि सुनी और लं तत्व बीज का नाद सुना। उन्होंने ब्रह्मा और उनकी डाकिनी शक्ति को एक चतुष्कोण यंत्र से निकलते पाया और वह ब्रह्मा और उनकी शक्ति की अजपा जाप से वन्दना करते रहे।

गुरु गोरख ने पुनः पूरक प्राणायाम किया और देर तक कुम्भक में प्राणतत्त्व को सीधे रहे। अब कुण्डलिनी फुफकारती हुई ऊँचे चलीं और लिंग स्थल के स्वाधिष्ठान चक्र पर रम गई। यहाँ कमल के छह दल थे और उनका सिन्दूरी वर्ण था। यहाँ योगी ने बं से लं तक अक्षर पाए। यहाँ जल तत्व था, जो कभी स्थिर होता, कभी लहरें मारता। बं तत्व बीज का नाद गूँजता। तब विष्णुदेव अपनी राकिनी शक्ति के साथ दर्शन देने लगे। वे चन्द्राकार यंत्र में विराजे थे और उसी से निःसृत होते और लुप्त हो जाते। यहाँ मकर की पीठ पर बं बं का नाद आसीन था, जो अपने नीचे मूलाधार के ऐरावत हाथी के ऊपर अधर पर स्थित था।

गुरु ने विचारा कि यह स्वाधिष्ठान स्थल भी संसारी जीवों के लिए है। मूलाधार में ही सब पशु-जीव बंधे हुए हैं। यहाँ विलास है या फिर वैभव-शासन और सुख। नहीं, मेरी कुण्डलिनी यहाँ नहीं रुक सकती। यह तो पशु क्षेत्र हैं, यों यहाँ भी कुछ ऊँचाई है, पर निर्द्वन्द्वता नहीं है। है तो आखिर यहाँ भी भवद्वन्द्व ही।

गोरक्ष ने पुनः श्वास फेफड़ों में भरा और उसे रोककर चेतना की गति पर ध्यान जमाया। वह फुँकार कर पुनः ऊँचे चल पड़ी और फन फैलाए हुए, मार्ग के अवरोधों को भस्म करती हुई, राग और भावना की तरंगों पर तैरती हुई, लोलिका या लोभ उसकी अतृप्ति में क्रोध के पाश काटती हुई वह मणिपुर चक्र में पहुँचकर मस्त हो गयी।

यहाँ गोरक्ष को कुछ सन्तोष हुआ। उन्होंने उदर को सिकोड़कर नाभि को भीतर किया और नाभिस्थलीय चक्र में घूमती चैतन्य शक्ति का सानन्द साक्षात्कार करने लगे। यहाँ कमल के दस दल थे। वे नीलवर्ण के थे और उन पर डं से फं तक अक्षर चिह्नित थे। बीज में रं बीज तत्व था, जो ‘र’ के आकार में चलता हुआ निनादित था और अधोकाया को गूंजा रहा था। यह बीजमंत्र मेढ़े पर बैठा था, जो त्रिकोण यंत्र पर बज रहा था। यहाँ इस बीज मंत्र पर बज रहा था। यहाँ इस बीज मंत्र से बूढ़े रुद्र की रचना हो रही थी और वह लाकिनी देवी को बायें बिठाएँ ध्यान लीन थे। यहाँ नाभिचक्र में अग्नि प्रज्वलित थी। योगी का चित्त इस चिति की धधकती धूनी में चैन पा गया और देर तक वहीं उनका ध्यान विराम पाता रहा।

तब गोरखनाथ को इस चक्र की सीमा भी याद आयी। यहाँ रूप का राज्य है और जहाँ रूप है वहाँ आसक्ति की अग्नि है। मैं यहाँ अधिक काल तक रुक नहीं सकता। मेरा यह लक्ष्य नहीं है। यह तो पड़ाव मात्र है। यहाँ वासना छूटने लगती है, पर सूक्ष्म रूपासक्ति बनी रहती है।

गोरक्ष पुनः प्राणायाम से अनाहत चक्र में जा पहुँचे। उनकी चेतना ने फुफकारकर मणिपुर चक्र और हृदय स्थित चक्र की बाधाएँ पार कीं और उन्हें लगा कि अब वह साँसारिक खींचतान से आहत नहीं हो सकते। अब चेतना नीचे लौट नहीं सकती। अब आग का मार्ग निर्विघ्न हो गया। गोरक्ष ने वक्ष फुलाकर हृदय में भ्रमण करती आत्मा को आनन्द का अवसर दिया और वह मुग्ध होकर बारह दल वाले कमल की गंध लेने लगे। यहाँ अरुणिमा थी, भावनाओं का राज्य था। वायु यहाँ नाम तत्व था। वायु का आधिक्य ही तो पशु-जीवों के भाव सरोवर में अनवरत वृत्ति वीथियाँ उपजाता है। यहाँ उन्हें ‘यं’ बीज मंत्र एक हरणि पर बैठा मिला और उसके मध्य योगी ने ईशानरुद्र और काकिनी का युगल देखा। वह छह कोने वाले यंत्र में अपने को विलम्बित कर ‘यं’ का नाद सुनते रहे। पुनः अनुचिन्तन में गोरक्ष का ज्ञान उभरा कि यह हृदय स्थल भी वात प्रधान है। यह रसानुभूति तो कराता है, राग को क्षुब्ध कर भावोर्मियाँ उठाता है और अंशतः तटस्थता और अंशतः निर्मलता से - कला रस से चैतन्य को तन्मय कर देता है यहाँ चेतना-भाव के तरंगाघात से आनन्द में किलोलती है, किन्तु इसमें भी स्थूल जीवन का अवशेष है। यहाँ रागारुणता है, अनुराग की सत्यता है, एकनिष्ठता है, किन्तु रस उच्चतर मौन है, यह ब्रह्मानंद नहीं, उसका कनिष्ठ सहोदर ही तो है। उसमें आत्मा की झलक तो है, पर भावुकता की सीलन है यहाँ। यहाँ भाववात्य चक्र में अधिक रुकने वाला नहीं हूँ। भाव से ही तो यह भव है।

गोरखनाथ ने विशुद्धता के संकल्प से पुनः प्राणायाम में पूरक और कुम्भक से साक्षी आत्मतत्त्व का जाग्रत रखकर भी, उसी के एक आयाम को विशुद्धाख्य चक्र तक पहुँचाया और भोक्ता और द्रष्टा एक साथ बन गए। यहाँ कंठ में सोलह दलों वाला कमल खिल गया। अ से अः तक स्वराक्षर यहाँ कमल के दलों पर लिखे थे और हं तत्व बीज के नीचे के भाग पर सदाशिव और डाकिनी का युगल था। सदाशिव के पाँच मुख थे और उनकी शक्ति भी पंचमुखी थी। हं से नीचे शून्य-सा बन जाता है, उसी में सृष्टि की धनात्मक और ऋणात्मक शक्ति देव युगल के रूप में केन्द्रित थी। उससे योगी की काया में परस्पर विरोधी सत्ताओं की एकता का नाद झंकृत होने लगा। देवयुगल के नीचे हाथी खड़ा था, जो सूँड़ उठाए जैसे सत्य को तलाश रहा था।

यहाँ शब्द का आनन्द था, किंतु शब्द मायावी भी हो सकता है और मायाकारक भी। अतः योगी अधिक देर नहीं ठहर सका। उसे शब्द के भय ज्ञात थे और उसमें सदाशयता की सम्भावनाओं के साथ उसे शब्द स्थित कंठ चक्र में प्रपंच की आशंका सताने लगी। गुरु गोरक्ष वहाँ न रुककर अपनी अन्तरात्मा को आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करने लगे।

आज्ञाचक्र में अपने को ठेलकर गोरखनाथ गदगद हो गए। यहाँ भ्रूमध्य त्रिकुटी में उनका केन्द्रित चैतन्य ओंकार में रमा, जो नाद को वाहन बनाकर पदार्थ मात्र के भीतर गूँज रहा था। गोरक्ष ने सृष्टि रहस्य नादघोष में ही पाया। प्रपंच के मूल में नाद है और कुछ नहीं। नाद ओंकार रूप है, अतः ॐ से सारा जगत बना है। नाद ही पंचभूतों को रचता है या वह स्वयं आकाश, वायु अग्नि जल और पृथ्वी तत्वों में जड़ रूप धारण कर लेता है। यह नाद लिंगाकार है, अनन्त है और इसकी शक्ति हाकिनी है, जो बहुमुखी है। गोरख देर तक द्विदल कमल के श्वेत रंग में, शिवलिंग की व्यापकता पर विचारते रहे, किन्तु उन्हें उसका अन्त नहीं मिला। शिवलिंग लिंगाकार मंत्र में शिव रूप में उत्थित था और उसका प्रकाश विमर्श रूप योनि के साथ मिलकर, उसके संघर्ष से पदार्थों और प्राणियों को जन रहा था।

गोरक्ष का योग जग गया था। अतः उन्होंने इसी ओम् ध्वनि को सुनना शुरू किया और ब्रह्माण्डमय होकर वह संपूर्ण प्रपंच में अन्तःस्थित हो गए। उन्हें सर्वत्र सब कुछ भासने लगा। समूचे राष्ट्र का-समस्त मानव जाति का अतीत वर्तमान और भविष्य उनकी चेतना में प्रकाशित हो उठा-समस्त समस्याओं का एक हल-अध्यात्म यह दैवी सन्देश उनके अस्तित्व में गूँज उठा। साधना से प्राप्त आत्मबल ही राष्ट्रीय एवं मानवीय समस्याओं का कारगर समाधान है। गोरक्ष को इस स्वयं प्रकाशित ज्ञान से प्रसन्नता हुई। इसी के साथ उनका ध्यान सहस्रार चक्र की ओर उन्मुख हुआ।

उन्होंने पूरक प्राणायाम से साँस भरी और चेतना को त्रिकुटी से ऊपर ले गए। यहाँ बिन्दु पर परमब्रह्म परम शिव की अनुभूति हुई। अं से क्षं तक सभी अक्षर कमल की हजार पंखुड़ियों पर जगमगा रहे थे। निराकरण पूर्ण चन्द्र में शिव और शक्ति एकीभूत फिर पृथक् स्थित थे।

यहाँ नाद बिन्दु में, बिन्दु नाद में, शिव शक्ति में, शक्ति शिव में एक-एक हो रहे थे और पृथक् पृथक् से वे अपनी भूमिका में भी सक्रिय थे। गोरक्ष को बीच में परम सत्य और उनके आस-पास दो शक्तियाँ दिखाई पड़ीं जो एक शक्ति की दो बहिनें थीं। शिव के बिन्दु से शक्ति उच्छून होकर बीज से अंकुरित होती है। उसके दो दल ही शिव और शक्ति है। फिर वह सृष्टि का पौधा बढ़ता है और एक शिव बिन्दु से कितनी ही शाखाएँ और पल्लव फूटते हैं।

मनुष्य के मस्तिष्क में सहस्रार चक्र में जाकर अपने गन्तव्य पर पहुँचकर चेतना नाम रूपमय संसार से परे चली जाती है। यही निर्वाण है, परम शून्यता है, प्रलयानुभूति है, सृष्टि के पर्व की निस्पन्दता है। यहीं शान्ति है। शून्य में ही शान्ति मिल सकती है। चेतना में क्षोभ होते ही अशान्ति अनुभव होती है, किन्तु वह अपने क्षोभों को स्वयं देख सकती है। यही तो चैतन्य या ब्रह्म का चमत्कार है।

क्रमशः गोरखनाथ शून्यातीत हो गए। दिक्-काल नाम रूप सब अदृश्य हो गए। बूँद और समुद्र मिल गए।

यही उन्नयनावस्था है, बल्कि यह अवस्थातीत समाधि है, जिसमें कुछ भी पृथक् से अनुभव नहीं होता। तारी लग गयी। गडुए का पानी नदी में मिश्रित हो गया। अहम् का नमक घुल गया। स्व चेतना विस्मृत हो गयी। पिण्ड और ब्रह्माण्ड एक हो गए। गोरक्ष समाधिस्थ हो गए।

शिष्यों ने यह क्षण पहचान लिया और वे गुरु के शरीर की रक्षा के लिए घेरा डालकर बैठ गए। वह ‘नमः शिवाय, नमः नाथाय, नमः गोरक्षाय’ जपने लगे। उन्होंने धूनी को चेताया, पर इतना नहीं कि ताप से गुरु की समाधि भंग हो जाए। यद्यपि सब को समाधि से जागरण की प्रतीक्षा थी, ताकि वे सब गुरुदेव का बुद्ध अलौकिक मिला। दैवी स्वरों को सुनने की सभी में आतुरतामय प्रतीक्षा थी।

अरुणोदय के साथ ही महागुरु गोरक्ष की समाधि टूटी और उन्होंने ओम् का दीर्घ स्वर में उच्चारण किया। शिष्य दौड़े और उन्होंने धूनी को दहकाया। गुरु के मुखमण्डल पर अनोखी आभा थी। वह जन करुणा और देश की चिन्ता में विद्युत की तरह दीप्त हो-हो कर क्षार-क्षार हो रहे थे। पहले तो उन्होंने एक अश्रुपूर्ण हुंकार भरी और फिर इस त्वरा से शब्द निकालने लगे, जैसे उनके मुख से विस्फोट हों रहा हो। प्रत्येक शब्द अग्निपुँज की तरह निकलता था और सीधे मर्म को बेधता था। उसमें कोई चक्कर, कोई बाँकपन नहीं था, सब कुछ पारदर्शी और निर्मल था। प्रत्येक उच्चारण पर उजाला-सा फैलता और फिर धूनी की लपटों और सूर्य की रश्मियों के साथ एकाकार हो जाता।

वह कह रहे थे, शिष्यों! मैं भारत देश की कल्पना एक सम्पूर्ण महायोगी के रूप में करता हूँ। इस महायोगी का शीश कश्मीर है। दाहिने हाथ का कमण्डलु माला और भुजा में पड़ी शृंगी अंग-अंग उड़ीसा है। बायें हाथ में त्रिशूल उसके ऊपर स्थित डमरू और असि है, धनुष-बाण हैं, यही तो गुजरात, राजपूताना पंजाब और पश्चिमोत्तर के प्रदेश है। मध्य में देश का हृदय मन, बुद्धि और अभिनिवेश आत्मा और आत्मस्थ तत्व की तरह मध्यप्रदेश है। इस मध्यवर्ती स्थल में महाकाल के सहचर इस पुण्यभूमि की महा-आत्मा हैं। उनमें देश की सर्वोच्च चेतना के शिखर हैं। उन्होंने मानव को उच्चताएँ दी हैं, गम्भीरताएँ भी, रहस्यमय अनुभूतियों के महासागर रचे हैं। दिव्यता के अद्भुत प्रतिमान निर्मित हुए हैं। नये-नये चिन्तन, तर्क और ध्यान-धारणा के उच्च, विचित्र और विविध कीर्तिमान उपलब्ध हुए है। महादेश भारत के दक्षिण प्रान्त इस महायोगी के दिव्य चरण हैं, जिन्हें महासागर अनवरत धोता रहता है। मैं इस साधना भूमि की दुर्दशा नहीं सह सकता। गुरु गोरक्ष बोलते जा रहे थे।

भगवान महाकाल मुझमें ताण्डव कर रहे हैं। मुझमें लय नहीं प्रलय है। योगियों! मैं अपने तेज से धधक-धधक कर राख हो रहा हूँ। मैं राष्ट्र की चेतना को रागी-अनुरागी बीन बजाकर उन्मत्त नहीं करना चाहता। मैं उसे तप बल-आत्मबल के कालदण्ड से जगाना चाहता हूँ। वह साधना के डंडे के संकेत पर ऊपर उठे, प्रगति एवं समृद्धि के चक्रों को बेधती जाय। फुफकारती- फुफकारती वह राष्ट्रीय अस्तित्व की अग्नि, वह चिन्मय ऊर्जा, वह संकल्पशक्ति उज्ज्वल भविष्य के सहस्रार का भेदन कर दे और उच्चानुभूति के पीयूष को पीवे। आप सब इसके लिए बहुत कुछ कर सकते हैं।

गहनीनाथ एवं निवृत्तिनाथ समेत सभी साधकों का समुदाय अपने गुरु की ओर टकटकी बाँधे देख रहा था। मानो सभी को उनके स्पष्ट आदेश की प्रतीक्षा थी। अन्तर्ज्ञानी गुरु ने अपने शिष्यों का अभिप्राय समझ लिया। वह कहने लगे-साधकों भगवान महाकाल ने भारतभूमि को तपोभूमि में रूपान्तरित करने का निर्देश दिया है। उनका आदेश है कि सभी साधक अपने जैसे असंख्य साधक बनाएँ और साधना की महाज्वाला इतनी प्रचण्ड हो कि असुरता उसमें भस्म हो जाय। इस वर्ष हमें इसके लिए अपने सर्वस्व की आहुति देनी है। तुममें से प्रत्येक को ध्यान रखना है कि वर्तमान की साधना ही अपने देश के उज्ज्वल भविष्य को साकार करेगी।

गुरु के इस दैवी सन्देश ने साधकों का उत्साह शतगुणित कर दिया। वे सभी अपने-अपने क्षेत्रों में अलख जगाने के लिए तत्पर हो गए।


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