जहाँ श्रेष्ठ कार्य होते रहे हैं, जिन स्थानों की अर्वाचीन अथवा प्राचीन गतिविधियों को देखकर आदर्शवादी प्रेरणा प्राप्त होती है, उन स्थानों को तीर्थ कहते हैं। जिन दर्शनीय स्थानों की श्रद्धालुजन तीर्थयात्रा करते हैं, उन स्थानों एवं क्षेत्रों के साथ कोई ऐसा इतिहास अवश्य जुड़ा है, जो तप-साधना एवं सेवाभावना का स्वरूप प्रदर्शित करता है। प्रायः सभी तीर्थों में ऋषि-आश्रम रहे हैं, गुरुकुल-आरण्यक चले हैं और परमार्थ सम्बन्धी विविध-विधि कार्य होते रहे है॥ देवालयों के दर्शन एवं नदी-सरोवरों के स्नान तो लोचन लाभ लेने एवं नूतनता अवलोकन के लिए हैं। श्रद्धा और साधना की बात दूसरी है, वह हो तो मिट्टी के द्रोणाचार्य, पत्थर के गिरिधर गोपाल और गोबर के गणेश बन सकते हैं, लेकिन यह सब तो घर पर भी हो सकता है। तीर्थ-महिमा एवं गरिमा के साथ उन स्थानों की लोकोपयोगी विशेषताएँ, तप-साधना एवं धर्मधारणा का भी समावेश रहता है।
तीर्थस्थानों तक पहुँचने और लौटने के लिए लोकसेवा एवं धर्मप्रचार के निमित्त पदयात्राएँ की जाती थीं। तीर्थयात्री मार्ग में जनसंपर्क साधते और उलझनें सुलझाते थे। यह लोकमानस परिष्कार का दिव्य प्रयोजन वर्षा के मेघों और वसन्त के पुष्पों के समतुल्य माना जाता था, जिनके कारण उपयोगी वातावरण का सृजन होता था। यह साधना एवं ज्ञान प्रचार की सेवा-साधना ही तीर्थयात्रा की आत्मा थी। उच्चस्तरीय प्रेरणा उपलब्ध एवं उत्पन्न करना ही तीर्थतत्त्व की आत्मा मानी गयी है। प्राचीनकाल में तीर्थ ऐसे ही थे और तीर्थयात्रा के निश्चित उद्देश्य एवं कार्यक्रम साथ लेकर आगे बढ़ते थे।
तीर्थ स्थापना का उद्देश्य था कि समय-समय पर अपनी सुविधानुसार व्यक्ति आए और उस उपयुक्त वातावरण में तीर्थवास करके कायाकल्प का लाभ उठाए। इस कार्य में तीर्थ संचालक-ऋषि इन आगन्तुकों की भावभरी सेवा-सहायता करते थे। अपने स्नेह-सौजन्य अतिथि-सत्कार एवं भावभरे परामर्शों से तीर्थयात्री को निहाल कर देने वाले व्यक्तित्व ही जीवन्त तीर्थ कहलाते थे। प्राकृतिक सौंदर्य के नदी-सरोवर उत्साह भरने वाले स्थान भी तीर्थवास के लाभ में चार चाँद लगाते और सोने में सुगन्ध उत्पन्न करते थे। इतने पर भी मूलकेन्द्र तीर्थों के साधनास्थल ही होते थे। उनमें प्राप्त होने वाली प्रेरणा तथा वहाँ रहकर की जाने वाली साधना ही आगन्तुकों को पुण्य फल प्रदान करती थी।
तीर्थतंत्र के संचालकों की गतिविधियाँ तीन भागों में विभक्त थीं- (1) तीर्थवास के लिए आने वाले धर्म-प्रेमियों के लिए साधना एवं शिक्षण की समुचित व्यवस्था। इसे क्रमबद्ध साधना सत्र प्रक्रिया भी कह सकते हैं। (2) तीर्थ के समीपवर्ती क्षेत्र को एक मंडल बनाकर उसमें पुरोहितों का परिभ्रमण करना और उस परिधि में नियमित रूप से अध्यात्म चेतना उत्पन्न करते रहने का उत्तरदायित्व सँभालना। (3) समय-समय पर उन तीर्थों में स्वल्पकाल के लिए दूर-दूर से आते रहने की प्रेरणा देना। यह कार्य धर्म सम्मेलन के रूप में होता था।
यह समस्त गतिचक्र तीर्थों की धुरी पर परिभ्रमण करता रहता था। यों बार-बार स्थान बदलने से, नये प्रकार की नयी व्यवस्था जुटानी पड़ती है और नयी समस्याओं का सामना करना पड़ता है, समय की अलग से सूचना भेजनी पड़ती है और स्थानीय परिस्थितियों से ताल-मेल बिठाकर उनका प्रबन्ध करने में विशेष सूझ-बूझ एवं विशेष तत्परता का परिचय देना पड़ता है, किन्तु अमुक तीर्थ में अमुक पर्व पर पहुँचने की बात निश्चित रहने पर नये आमंत्रण भेजने से लेकर नयी व्यवस्था बनाने तक सारे झंझट मिट जाते थे। जब तीर्थ उपरोक्त तीनों भूमिकाएँ निभाते रहे होंगे, तब उनके सुखद परिणाम किस प्रकार किस परिमाण में प्रस्तुत होते होंगे? इसका परिचय अभी भी पुरातन इतिहास की झाँकी देखने पर मिल जाता है।
पर यह अतीत की चर्चा है। यह तथ्य भी है और इतिहास भी। इसकी साक्षी प्रस्तुत तीर्थों में जाकर लकीर पीटने के रूप में चलने वाली प्रथा-परम्पराओं को देखने से मिल सकती है। यहाँ पर्यटकों की धकापेल रहती है। पुण्य-प्रयोजनों का कहीं अता-पता तक नहीं। इन परिस्थितियों में तीर्थ भावना को पुनर्जीवित करने के लिए सोचा यह गया है कि वर्तमान साधना वर्ष में भारत के प्रत्येक गाँव को एक छोटे तीर्थ के रूप में विकसित किया जाय। मातृभूमि के कण-कण में देवता का निवास है। गाँवों और झोपड़ों में भी। आवश्यकता इस बात की है कि उन पर छाया पिछड़ापन धो दिया जाए और सत्प्रवृत्तियों की प्रतिष्ठापना की जाए। इतने भर से वहाँ बहुत कुछ उत्साहवर्द्धक, प्रेरणाप्रद और आनन्ददायक मिल सकता है।
ग्राम तीर्थ योजना का उद्देश्य है- ग्रामोत्थान, ग्रामसेवा, ग्रामविकास। इस प्रखर साधना वर्ष में इस प्रचलन के लिए घोर प्रयत्न किया जाए और उस परिश्रम को ही ग्रामदेवता की पूजा माना जाए। यह तीर्थ स्थापना हुई, जिसे स्थानीय निवासी और बाहर के सेवाभावी साधक मिल-जुलकर पूरा कर सकते हैं।
हर गाँव को एक तीर्थ रूप में विकसित करने के लिए स्थानीय स्तर पर युग साधक तीर्थयात्रा टोली निकाल सकते हैं। इन दिनों पदयात्रा को साइकिल यात्रा के रूप में मान्यता दे दी गयी है। चार साइकिल सवारों का जत्था पीले वस्त्र धारण किए, गले में पीला झोला लटकाए प्रवास चक्र पर निकलें। यह प्रवास अपनी सुविधानुसार एक सप्ताह-दस दिन अथवा पन्द्रह दिन का हो सकता है। इस कार्यक्रम के लिए प्रातः टोली निकले और रास्ते के सहारे वाली दीवारों पर प्रखर साधना वर्ष के सन्देश लिखती चले।
रात्रि को जहाँ ठहरना निश्चित हो, वहाँ शंख-घड़ियालों की ध्वनि के साथ गाँव की परिक्रमा लगायी जाए और ऐलान किया जाए कि अमुक स्थान पर, अमुक समय पर तीर्थयात्री मण्डली के भजन-कीर्तन होंगे। सायंकाल जो समय साधना वर्ष का सन्देश देने से पूर्व मिले, उसमें अपना भोजन पका-खा लिया जाए। अपना राशन और पकाने के बर्तन साथ रहें। इसमें अपनी कमायी खाने का पुण्य मिलेगा और किसी पर आश्रित भी न रहना पड़ेगा।
एक दिन के इस कार्यक्रम में सुगम संगीत से उपस्थितजनों को आह्लादित करने के साथ उन्हें यह भी बता दिया जाएगा कि ग्रामीणजनों को तपस्वी साधक कैसे बनाया जा सकता है। उन्हें वर्तमान समय में तप-साधना की महिमा-महत्ता बताने के साथ ही प्रौढ़ शिक्षा, बाल संस्कारशाला, स्वच्छता, व्यायामशाला, घरेलू शाक-वाटिका परिवार नियोजन, नशाबन्दी, वृक्षारोपण आदि सत्प्रवृत्तियों की आवश्यकता बताते हुए यह कहा जाए कि इन सत्प्रवृत्तियों को मिल−जुलकर किस प्रकार कार्यान्वित किया जा सकता है और इन प्रयत्नों का कैसे भरपूर लाभ उठाया जा सकता है।
सम्भव हो तो सभा के अन्त में उत्साही प्रतिभा वाले लोगों की एक समिति बना दी जाए, जो नियमित रूप से समयदान, अंशदान देकर इन सत्प्रवृत्तियों को कार्यान्वित करने में जुटे। गाँव की एकता एवं पवित्रता की ध्वज-स्थापना अश्वत्थं वृक्ष या पंचवटी के रूप में दूसरे दिन प्रातःकाल की जाए। यह देवप्रतिमा उपयोगिता एवं भावना की दृष्टि से अतीव उपयोगी है। इसके इर्द-गिर्द यदि एक चबूतरा भी बन सके, तो उसे कितनी ही सत्प्रवृत्तियों को केन्द्र बनाया जा सकता है। आये दिन उसके समीप बैठकर कार्यक्रमों को सक्रिय बनाने सम्बन्धी विचार-विनिमय चलते रह सकते हैं। इस कार्यक्रम की सफलता तब समझी जाएगी, जब कम-से-कम एक नैष्ठिक सदस्य उस गाँव में बने और वहाँ नियमित साधना के साथ समयदान, अंशदान देते हुए झोला पुस्तकालय चलाने लगे। यह प्रक्रिया जहाँ भी अपनायी जाएगी, वहीं एक उपयोगी संगठन बढ़ने लगेगा और उसके प्रयास से गाँव की सर्वतोमुखी प्रगति का उपक्रम चल पड़ेगा। यही है तीर्थभावना-ग्रामतीर्थ की स्थापना।
साधना वर्ष का सन्देश यही है कि ग्रामे-ग्रामे गृहे-गृहे जने-जने मूर्च्छना को जाग्रति में बदला जाए। नवजागरण के इस पुण्य प्रभाव में ग्रामीण अंचल के धर्म बिन्दु को उपेक्षित नहीं छोड़ा जा सकता। मैले कपड़े धोए जा सकते हैं-टूटी वस्तुओं की मरम्मत हो सकती है, रोगी को स्वस्थ बनाया जा सकता है- तो कोई कारण नहीं कि तीर्थचेतना को निहित स्वार्थों एवं अन्ध-विश्वासों से मुक्त कराकर उसे गाँव-गाँव तक अपने पूर्व रूप में न पहुँचाया जा सके।