आद्यशक्ति की अनुकम्पा ऐसे बरसी

February 1999

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केशर की क्यारियों में आग लगी थी। कश्मीर धधक रहा था। ‘धरती का स्वर्ग कहे जाने वाले इस भू-भाग में जीवन, नरक से भी बद्तर बना हुआ था। देश अभी हाल ही में आजाद हुआ था। अनेकों बलिदानों -यातनाओं के बाद आजादी तो मिल गयी थी, पर वह खंडित थी। बँटवारे से क्षत-विक्षत हो, लहूलुहान होने का भयावह दर्द कश्मीर के भोले-भाले निवासियों को झेलना पड़ रहा था। संसार में सबसे अधिक बर्बर और लड़ाकू समझे जाने वाले अफरी और मसूद जाति के कबायली भूखे भेड़ियों की तरह कश्मीरी अवाम पर टूट पड़े थे। पाकिस्तान की सशस्त्र सेनाएँ छद्मवेश में उनके पीछे थीं।

आक्रमणकारी आग के सागर की तरह उमड़ते-घुमड़ते बढ़ते चले आ रहे थे। रास्ते में पड़ने वाले गाँवों को आग के हवाले करके वे हिन्दुओं और सिक्खों को खोज-खोजकर काट रहे थे। उनकी बहू-बेटियों को, रावलपिण्डी और पेशावर के बाजारों में पशुओं की तरह नीलाम करने के लिए जबरदस्ती बन्दी बना रहे थे। जो देशभक्त मुसलमान हिन्दू और सिक्ख को अपना भाई मानकर उनकी रक्षा कर रहे थे, उन्हें भी तत्काल मौत के घाट उतार दिया जा रहा था। इस नरसंहार में बहुत से ईसाई और अंग्रेज भी मारे गए थे। इन बर्बर आक्रमणकारियों को जहाँ-तहाँ रोकने के प्रयास में परमवीर बिग्रेडियर राजेन्द्रसिंह, मेजर सोमनाथ शर्मा और लेफ्टिनेण्ट कर्नल रणजीत राय को अपनी जानें गँवानी पड़ीं। कस्बों, गाँवों और गलियों में आतंक का साम्राज्य था। कश्मीर के हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई सब लोग अपनी जमीन-जायदाद सारी सम्पत्ति छोड़कर सुरक्षित पहाड़ियों की ओर भागे जा रहे थे।

भारतीय जवानों की संख्या हमलावरों की तुलना में नगण्य थी, फिर भी वे लोग लुटेरों को रोकने के लिए प्राणपण से कोशिश कर रहे थे। प्रायः सभी मोर्चों पर एक-सी स्थिति बनी हुई थी। इन्हीं में से एक मोर्चे पर भारी हिमपात हो रहा था। सेना के ट्रक बर्फ के नीचे दफन हो गए थे। भयावह शीत-प्रदेशीय जाड़े की मार से अनभ्यस्त भारतीय सैनिक व्याकुल थे, परन्तु देश की रक्षा के लिए जान हथेली पर रखकर जूझ रहे थे। अचानक शत्रुओं ने भारतीय सेना की उस टुकड़ी पर भयंकर धावा बोला। भारतीय सैनिक बहुत कम थे और दुश्मन हजारों। थोड़े से सेना के जवान इस शस्त्र सज्जित भीड़ का कब तक सामना करते? परन्तु भारतीय जवानों ने यह प्रण कर रखा था कि वे अन्तिम सैनिक तक लड़ेंगे। भारतीय टुकड़ी का एक-एक जवान शत्रु के कई-कई सैनिकों कबायलियों को यमलोक पहुँचाता हुआ धराशायी हो गया। अन्त में उस टुकड़ी का केवल कमाण्डर बचा था। वह भी बुरी तरह घायल था, फिर भी किसी तरह शत्रुओं को आगे बढ़ने से रोके हुए था।

अचानक उधर से गाँव का एक आदमी निकला। साधारण-सी कश्मीरी वेश-भूषा में स्वयं को लपेटे था। उसका नाम रामचन्द्र था और वह जाति का धोबी था। घर-बार लुट जाने के कारण वह जिस किसी तरह अपनी जान बचाकर भागा जा रहा था गोलियों की तड़तड़ाहट और गोलों के धमाकों से वह चौकन्ना हो गया। उसने इन आवाजों से अनुमान कर लिया कि यहीं कहीं भयानक युद्ध चल रहा है। वह छिपते-छिपते जैसे-तैसे जान बचाकर जाने लगा कि मरणासन्न वीर सेनानायक की आवाज कानों में पड़ी-भैया मेरी सहायता करो। जल्दी मेरे पास आओ।

पता नहीं कैसी दैवी प्रेरणा हुई, अपनी जान बचाकर भागने वाला रामचन्द्र बिना सोचे-विचारे उस सैनिक और के पास से गुजरा। शत्रुओं की ओर से अभी भी गोलियाँ वर्षा की बूँदों की तरह आ रही थीं। मोर्टार और गोले दग रहे थे। राइफलें, मशीनगनें और ब्रेनगनें गरज रही थीं। कमाण्डर ने उस देवदूत से कहा-भैया अब मैं उठने में असमर्थ हूँ। तुम ही इन हथियारों को चलाकर शत्रुओं का सामना करो। आखिर तुम भी तो भारतमाता के लाल हो। हमारी सहायता के लिए हमारे और जवान आते ही होंगे। डरो मत, उठाओ-हथियार मैं तुम्हें हथियार चलाना बताता हूँ।

परन्तु हथियार चलाना बताने के पूर्व ही वह मूर्च्छित हो गया। अब तो रामचन्द्र के सामने विकट समस्या थी। शत्रु सैनिक भारतीय चौकी पर कब्जा करने के लिए जी-जान से कोशिश कर रहे थे। उन्हें किसी-न-किसी तरह रोकना अति आवश्यक था। परन्तु हाय, बेबस रामचन्द्र अब क्या करे? वह ठहरा एक साधारण आदमी, हथियार चलाना भला क्या जाने? इसके पहले उसने ऐसे हथियार देखे तक नहीं थे। राइफलें, ब्रेनगनें, मशीनगनें, मोर्टार, हथगोले, राकेट सब कुछ वहीं उपलब्ध थे, परन्तु इस संकट की घड़ी में वह अस्त्र चलाने की विद्या कहाँ से लाए? विद्या कोई चीज वस्तु तो है नहीं कि उसे बाज़ार से खरीद ले। वह तो साधना से प्राप्त होती है, अभ्यास से प्राप्त होती है, गुरु से सीखी जाती है। रामचन्द्र के पास साधना-अभ्यास-गुरु इन तीनों में से कोई नहीं था। गुरु जो हो सकता था, वह मूर्च्छित पड़ा था। उसके मुँह से एक असहाय आह-सी निकली-काश मुझे हथियार चलाना आता।

रामचन्द्र आस्तिक व्यक्ति था। मन्दिर में घंटों बैठकर पूजा-पाठ तो वह नहीं करता था, परन्तु आदिशक्ति जगन्माता पर उसकी अपार श्रद्धा थी। विशेष अवसरों पर वह वैष्णोदेवी का दर्शन करने जाया करता था। उसने सुन रखा था आदिशक्ति गायत्री ने दुर्गा, काली, वैष्णोदेवी के रूप में अपनी अभिव्यक्ति की है। संकट के समय वह उन्हीं का स्मरण करता था। विकल हृदय से किया गया यह स्मरण ही उसकी साधना थी।

आज भी वह, शत्रु संहारिणी माँ वैष्णोदेवी का ध्यान करते हुए होठों से बुदबुदाने लगा-हे माँ! हमारे देश पर असंख्य लुटेरे चढ़ आए हैं। वे हमारे देश की शान्तिप्रिय जनता की धन-सम्पत्ति और जिंदगी लूट रहे हैं। गाँव-गाँव उजाड़ दे रहे हैं। इनसे देशवासियों की रक्षा तुम्हीं कर सकती हो। माँ! तुम तो राक्षसों का संहार करने वाली हो, शेर पर सवारी करने वाली हो, सारी विद्याएँ तुम्हारा ही रूप हैं। माँ! मुझे ये सारे हथियार चलाना सिखा दो ना! मैं तुम्हारा अकिंचन पुत्र हूँ। अपने लिए नहीं, अपने देश के लाखों लोगों की रक्षा के लिए मैं यह विद्या माँग रहा हूँ। माँ मुझ पर और मेरे देश पर कृपा करो।

रामचन्द्र आर्त पुकार करता हुआ आँखें मूँदे बैठा था। अचानक एक ज्योति-सी चमकी और अन्तःकरण एक मधुर ध्वनि से गूँज उठा। उठ जा! मैं प्रसन्न हूँ। हथियार उठा। देर मत कर।

बस क्या था, रामचन्द्र उठ खड़ा हुआ। उसने दनादन मोर्टार दागना शुरू कर दिया। मशीनगनों से गोलियाँ बरसाने लगा। वह जिस हथियार को छूता, उसे

चलाने का ज्ञान अपने आप हो जाता। शत्रु उसकी मार से जहाँ का तहाँ रुक गया। उसका एक भी वार खाली नहीं जा रहा था। उसे लगा, जैसे दो नहीं, उसके दस हाथ हैं। देखते-देखते दुश्मनों की लाशें बिछ गयीं। परन्तु दुश्मन इतने से भागने वाले नहीं थे। चार-पाँच दुस्साहसी शत्रु धीरे-धीरे गुप्त रूप से उसकी ओर बढ़ रहे थे और अब तो काफी करीब आ गए थे। रामचन्द्र ने आदिशक्ति माँ की कृपा से उन्हें देख लिया। उसने तपाक से उन पर पाँच-पाँच छह ग्रेनेड फेंके। वे वहीं चित्त हो गए। शत्रुओं का धीरज टूट गया। उन्होंने सोचा कि इस भारतीय चौकी पर और लोग आ गए हैं। अब तो जान बचाकर भागने में ही भलाई है। अपनी घबराहट में मोर्चा छोड़कर वे भाग गए।

बहुत देर बाद आहत-अचेत कमाण्डर की चेतना लौटी। उसने देखा एक ग्रामीण धुँआधार गोलियाँ बरसा रहा है और शत्रु सिर पर पाँव रखकर भागे जा रहे हैं। थोड़ी ही देर में मोर्चा खाली हो गया।

दुश्मनों का कहीं अता-पता न रहा। रामचन्द्र ने देखा कि सेनानायक के शरीर में अभी प्राण हैं, उसकी आँखें खुलीं हैं। उसने तुरन्त उसे अपने कन्धे पर उठा लिया और तीन-चार मील दूर स्थित सैनिक अस्पताल में पहुँचा दिया। सेनानायक फिर से बेहोश हो गया था।

भारतीय वीरों की बहादुरी के कारण शत्रु अपने इरादों में सफल नहीं हुए। कश्मीर युद्ध समाप्त हो गया। रामचन्द्र जैसे बहादुर नागरिक को भारत सरकार ने पुरस्कृत करना उचित समझा। उसे महावीर चक्र प्रदान किया गया। उसने यह सम्मान माँ वैष्णोदेवी के चरणों में लाकर समर्पित कर दिया। आदिशक्ति जगन्माता की कृपा की यह अनूठी गाथा भारत सरकार द्वारा प्रकाशित द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘आपरेशन्स इन जे. एण्ड के. इन 1947-48’ में पढ़ी जा सकती है। माँ आदिशक्ति की कृपा से कुछ भी इस दुनिया में असंभव नहीं।


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