देवालय इस वर्ष साधना केन्द्रों के रूप में विकसित हों

February 1999

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देवत्व के प्रति प्रगाढ़ निष्ठा और सम्मान की भावना देवभूमि भारत की प्राचीन परम्परा है। देवत्व का अर्थ है- विश्वकल्याण की कामना। जो सबके हित में अपने हितों का होम कर दे, वह देवपुरुष है। ऐसे माननीय पुरुषों को सम्मान देना योग्य बात है। समाज को सुखी और समुन्नत बनाने की कला सिखाने वाले और उस संकल्प की पूर्ति के लिए जीवनदान देने वालों की जितनी पूजा की जाय, वह कम ही है। महान सेवा के लिए महान श्रद्धा व्यक्त होनी ही चाहिए, साथ ही होना चाहिए महती साधना का अनुकरण।

देवत्व के प्रति श्रद्धा और पारस्परिक सद्भावना के प्रतीक के रूप में ही देव मन्दिरों का निर्माण किया जाता है। सद्भावना का लोकजीवन की सम्पन्नता से घनिष्ठ सम्बन्ध है। सामाजिक आचरण में जब दुर्भावनाएँ, अनाचरण, व्यामोह, विक्षिप्तता पारस्परिक वैमनस्य तथा आध्यात्मिक विकृति पैदा हो जाती है, तो जन-जीवन में दुःख, क्षोभ और वैमनस्य उमड़ पड़ता है। आज का लोकजीवन इन आसुरी प्रभावों से पूर्णतया सराबोर है। इसी से लोक तान्त्रिक ढाँचा लड़खड़ाता हुआ नजर आता है। इस मूढ़ता का करण लोगों की आध्यात्मिक साधनाओं से विमुखता है। विवेक या विचारशक्ति की न्यूनता के कारण ही लोग अपने मूल लक्ष्य से भटकते हैं। देवमूर्तियाँ लोगों के सद्भाव को जाग्रत करने की अलौकिक शक्ति रखती हैं, किन्तु उनके पीछे यदि किसी महान साधनापरायण व्यक्तित्व का हाथ न रहा तो केवल प्रतीक से किसी प्रकार के बचाव की संभावना न की जानी चाहिए। यही भूल यहाँ हुई है, पर अब आगे इससे सबक लेना है।

मोहम्मद गजनबी ने सोमनाथ के मन्दिर पर आक्रमण किया था। सोमनाथ के साथ करोड़ों रुपये की जागीरें थीं। बड़े-बड़े सन्त-महात्मा वहाँ निवास करते थे, किन्तु मूर्तिवाद के नाम पर फैले आडम्बर के कारण वह स्थान लोगों की श्रद्धा बनाए रख सका। आलस्य, प्रमाद एवं निठल्लेपन की वजह से वहाँ आध्यात्मिक ऊर्जा की सघनता भी न बनी रह सकी। इस सबके अभाव में बेचारी मूर्ति कैसे प्रतिवाद करती? उसे तोड़कर मोहम्मद गजनबी हीरे-जवाहरातों के जखीरे भर ले गया। धन गया, यह इतनी दुःखद घटना नहीं, जितनी कि आस्थाओं पर आघात हुआ। यह हृदय छेदने वाली बात है। धर्म-अध्यात्म के प्रति जिन्हें थोड़ी-बहुत भी प्रीति होगी, उनके दिलों में इस प्रकार की कसक उठना स्वाभाविक है।

इसमें एक ही बात सीखने को मिलती है कि देवालय बनें, किन्तु उनके साथ साधनापरायण तपस्वी जीवन का भी शिलान्यास हो। मूर्तियाँ स्थापित हों, किन्तु सद्भावनाएँ जगाने वाली प्रवृत्तियाँ भी उनके साथ जोड़ी जाएँ। विचार एवं व्यवहार से शिक्षा में पूर्णता आती है। देवालय शरीर का काम करते हैं, सद्भावनाएँ जाग्रत करने वाली प्रवृत्तियाँ उनमें प्राण का काम करती हैं। देह और प्राण के सम्मिश्रण से चैतन्यता आती है। अकेली देह निर्जीव है। हम देवालयों के महत्त्व को जानते और मानते हैं, पर वे प्राणविहीन न हों।

इन दिनों देवमन्दिरों में दिखावट और ढोंग बनाकर लोगों की श्रद्धा और उनके विश्वास छीन लेने की जो चोरबाजारी चल रही है, उसे किस तरह दूर किया जाए, यह एक विकट समस्या है। अधार्मिक लोगों का अन्धश्रद्धा वालों के साथ जो व्यवहार चल रहा है- इसे दूर करना वर्तमान साधना वर्ष की सबसे पहली प्राथमिकता है। समाज में सौमनस्य, आध्यात्मिक उन्नयन और सदाचार जगाने की विवेकपूर्ण प्रवृत्तियाँ किस तरह जागरूक हों? इन समस्याओं का यदि तत्काल समाधान न किया गया तो देवभूमि भारत की आध्यात्मिकता निरन्तर खोखली होती चली जाएगी और जो धर्म के बचे-खुचे अंकुर शेष हैं, उन्हें भी नष्ट होने में देर न लगेगी।

अब यह तथ्य लोगों को समझ ही लेना चाहिए कि देवमन्दिरों के दर्शन का जो प्रयोजन लोग लेकर चलते हैं, वह वास्तव में सिद्ध नहीं होता। देव-स्थानों के दर्शन के बाद भी लोगों की नैतिकता का, तप-साधना का, व्यावहारिक अध्यात्म का विकास न हो तो कौन कह सकता है कि आपने देवत्व के दर्शन किए, इससे तो यही समझा जाएगा कि लोगों ने समय, श्रम और धन का अपव्यय ही किया है। इस जीवन में देवत्व को प्राप्त न कर सके तो कौन जाने मृत्यु के बाद कोई पारलौकिक सुख मिलेगा भी या नहीं। कोई भी विचारवान व्यक्ति इस बात पर विश्वास कर लेगा, ऐसा समझना कठिन है।

देवस्थानों का निर्माण लोगों में आध्यात्मिक प्रवृत्तियाँ, साधनात्मक संस्कार जाग्रत करने की दृष्टि से किया जाता है। इस क्रम में यही आशा की गयी थी कि तपस्वी साधकों का सत्संग लाभ लोगों को अधिक मिले, साथ ही स्वाध्याय-आध्यात्मिक संगठन आदि का अखण्ड यज्ञ देवालयों में चलता रहे। पर व्यवहार में आज यह सब नहीं रहा। लोग आते हैं, चन्दन-अक्षत-पुष्प-पाई-पैसा आदि की सस्ती भेंट चढ़ाकर अपनी अन्धश्रद्धा व्यक्त करके चले जाते हैं। उनके जीवन में किसी प्रकार का प्रकाश उत्पन्न नहीं होता। वही आसक्ति, वही वासना, क्रोध-मोह सबका सब वही। न पारिवारिक जीवन में किसी तरह का उल्लास आया, न गन्दी आदतें छूटी। अन्तःकरण में अच्छे संस्कार न बढ़ें और आप यह मान्यता बना बैठें कि परलोक में आपको स्वर्ग मिलेगा, तो इस पर कोई विश्वास न करेगा। आत्मबल, उत्सर्ग, संयम, त्याग और प्रखर साधना की प्रामाणिकता इस जीवन में न मिली तो इसे परमात्मा की अकृपा ही समझना चाहिए। इसके बिना जीवन में किसी तरह का कल्याण सम्भव नहीं है।

वर्तमान साधना वर्ष में जिस आध्यात्मिक ज्वार को लाने की कामना की गयी है, उसका आधार है- विवेक, जो आत्मज्ञान पैदा करता है। इस जीवन में आत्मज्ञान का सम्पादन न हो और परलोक में जीवन-मुक्ति का विश्वास करें, तो इसे हास्यास्पद ही माना जाएगा। आध्यात्मिक विकास मनुष्य के आत्मज्ञान और सत्प्रवृत्तियों के रूप में दिखाई देता है। इन्हीं के आधार पर देवजीवन की कल्पना व कामना की जाती है।

देवालयों का महत्त्व इसलिए नहीं होता कि उनमें परमात्मा की मूर्ति स्थापित होती है। प्रतिमा परमात्मा का प्रतीक मात्र है। अपनी श्रद्धा व्यक्त करने के लिए ईश्वर के बाह्य कलेवर को मूर्ति रूप में मान लेते हैं, किन्तु उसकी आत्मा तप-साधना में सन्निहित है। देवालय का अर्थ है- जहाँ तपस्वी देवपुरुषों का निवास हो। उनके सत्संग से ही परमात्मा के आन्तरिक कलेवर को प्राप्त करते हैं। इसी दृष्टि से देवस्थानों का महत्त्व होता है।

जड़ में भी परमात्मा का अस्तित्व मानने की अपूर्व श्रद्धा और देवालयों की भावनात्मक विशेषता के परिणाम-स्वरूप दर्शन करने वालों में जो संस्कारों की सूक्ष्म प्रतिक्रिया होती है, उसी से लोककल्याण का पथ-प्रशस्त होता है। अखिल विश्व में परमात्मा की व्याप्ति, भावनाओं की शुद्धि और जीवन की सफलता के लिए विवेकपूर्ण प्रवृत्तियों का संचालन हो तो ही देवालय देव को देवभूमि बना सकते हैं।

इस प्रखर साधना वर्ष में जो युगसाधक देवालयों को अपनी सक्रियता का केन्द्र बनाकर शिक्षा, सद्भावना और जीवन दिशा का प्रशिक्षण देने का उत्तरदायित्व वहन करें, उन्हीं से कुछ लोकोपकार की कामना की जा सकती है। देवालयों के माध्यम से चरित्र, प्रेम, मैत्री, करुणा, दया, मेधा, मनस्विता की शिक्षा देने का गुरुतर कार्य सँभलना साधना वर्ष की कसौटी भी है और इसके भागीदार साधकों की जिम्मेदारी थी। लोक-जीवन को साधनापरायण बनाना ही उनका उद्देश्य है। आध्यात्मिक भावनाओं का प्रसार और संस्कारों की प्रशस्ति का उत्तरदायित्व देवालयों का है। इन्हीं के आधार पर उनको इतना महत्वपूर्ण स्थान मिला है। इस वर्ष क्षेत्रीय स्तर पर इनको साधना केन्द्र के रूप में विकसित किया जाना चाहिए, ताकि यह सर्वविदित हो सके कि आध्यात्मिक प्रशिक्षण एवं ब्रह्मकर्म के निर्वाह के कारण ही उनका महत्व सर्वोपरि है। इस गौरव को प्राप्त न कर सके तो देवालयों की महिमा महत्ता शून्यवत ही है।

स्मरण रहे, देवालयों ने ही भारत महादेश को देवभूमि का गौरव प्रदान किया था। आज इनके उत्कर्ष की पुनः आवश्यकता है। इस क्रम में हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि बाह्य कलेवर की अपेक्षा आन्तरिक भावनाओं की उपासना अधिक फलवती होती है। हमें पाषाण नहीं, देवत्व की आत्मा को मूर्ति-रूप में पूजना है। इतना कर सके तो समझा जा सकेगा कि साधना वर्ष का आयोजन सफल ही नहीं शानदार भी रहा। देवालयों को इस प्रखर साधना वर्ष में साधना केन्द्रों के रूप में विकसित करके ही भारत को पुनः देवभूमि का गौरव प्रदान किया जा सकता है।


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