तीर्थंकर महावीर साधना में लीन थे। पास ही मैदान में एक ग्वाला अपने बैल चरा रहा था। उसे किसी आवश्यक कार्य से गाँव में जाना था। उसने सोचा पास में बाबा बैठे हैं, यह बीच-बीच में बैल देख लिया करेंगे, तब तक मैं घर से लौट ही आऊँगा।
महावीर ध्यानस्थ थे। बैन चरते-चरते दूर निकल गये। ग्वाला लौटकर आया तो महावीर पर बहुत नाराज हुआ और उसने रस्सी के एक टुकड़े से उनकी पिटाई शुरू कर दी। उनके शरीर पर इस निर्मम प्रहार से कई निशान पड़ गये।
देवराज इन्द्र से ग्वाला की यह ताड़ना न देखी गई। उन्होंने तीर्थंकर से आकर प्रार्थना की- भगवन्! यह ग्वाला अज्ञानी है- आपके अलौकिक महात्म्य से पूरी तरह अनभिज्ञ है। मेरी इच्छा सदैव आपके साथ रहने की है, ताकि आने वाले कष्टों का निवारण करता रहूँ। आप मुझे सतत् सेवा में उपस्थित रहने की आज्ञा दीजिये।
महावीर ने जो उत्तर दिया, वह जैन साहित्य की अमूल्य निधि है और निराश व्यक्तियों को सैकड़ों वर्षों से प्रेरणा देता रहा है-स्ववीर्येणैव गच्छन्ति जिनेन्द्रा परमा गतिम्।”
किसी दूसरे के सहारे रहकर अथवा दूसरे के पुरुषार्थ के भरोसे बैठकर आज तक कोई आत्मबोध लाभ प्राप्त नहीं कर सका। अपने पुरुषार्थ से ही अपना निर्माण किया जा सकता है। अपने भाग्य को बनाने वाले कोई दूसरा नहीं वरन् उसका पुरुषार्थ ही होता है। अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए पुरुषार्थ का स्थान ही सर्वोपरि है।