मनुष्य जीवन दिव्यसत्ता की एक बहुमूल्य धरोहर है, जिसे सौंपते समय उसकी सत्पात्रता पर विश्वास किया जाता है। मनुष्य के साथ यह पक्षपात नहीं है, वरन् ऊँचे अनुदान देने के लिए यह प्रयोग-परीक्षण है। अन्य जीवधारी शरीर भर की बात सोचते और क्रिया करते हैं, किन्तु मनुष्य को सृष्टा का उत्तराधिकारी युवराज होने के नाते अनेकानेक कर्तव्य और उत्तरदायित्व निबाहने पड़ते हैं।
-जीवन देवता की साधना-आराधना (वा. क्र. 2) से
कठिनाइयों से डरकर यदि हिम्मत हार बैठा जाय तो बात दूसरी है अन्यथा प्राणधारी की अदम्य जीवनेच्छा इतनी प्रबल है कि वह बुरी-से-बुरी परिस्थितियों में जीवित ही नहीं-फलता-फूलता भी रह सकता है।
उत्तरी ध्रुव पर ऐस्किमो नामक मनुष्य जाति चिरकाल से रहती है। वहाँ घोर शीत रहता है। सदा बर्फ जमी रहती है। कृषि तथा वनस्पतियों की कोई सम्भावना नहीं। सामान्य मनुष्यों को उपलब्ध होने वाले साधनों में से कोई नहीं, फिर भी वे जीवित हैं। जीवित ही नहीं परिपुष्ट भी हैं। परिपुष्ट ही नहीं सुखी भी हैं। हम अपने को जितना सुखी मानते हैं, वे उससे कम नहीं कुछ अधिक ही सुखी अपने को मानते हैं और सन्तोषपूर्वक जीवन-यापन करते हैं। जरा-सी ठण्ड हमें परेशान कर देती है, पर एस्किमो घोर शीत में आजीवन रहकर भी शीत से प्रभावित नहीं होते।
-प्रसुप्ति से जाग्रति की ओर (वा. क्र. 7) से
सामान्य जीवन में भी कार्य करते समय बोलने और मौन रहने का अन्तर समझा जा सकता है। किसी काम को करते समय यदि बात भी करते रहा जाय तो मनोयोग उस कार्य में पूरी तरह जुट नहीं पाता। कारण कि बात करते रहने से वह एकाग्रता और दक्षता नहीं आ पाती जिसके द्वारा अधिक कुशलता तथा दक्षता से कार्य किया जा सके। बातूनी व्यक्ति का काम भली-भाँति सम्पन्न नहीं हो पाता।
बातूनी आदत जब स्वभाव का अंग बन जाती है, तो महत्त्वहीन बातों में काफी समय और चिन्तन नष्ट होता है, क्योंकि उस प्रसंग को अविवेकपूर्ण और अतिश्योक्ति पूर्ण बनाने में ही सारी विचार-शक्ति बुद्धि लग जाती है, जबकि मौन से एक स्वाभाविक ही गम्भीरता भी होती है। अतः लोकव्यवहार में भी मौन अथवा मितभाषी व्यक्तित्व को प्रभावपूर्ण बना देता है।