सच्चा योगी (Kahani)

February 1999

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नचिकेता ने यमाचार्य से भगवान को जानने की इच्छा प्रकट की, तब यमाचार्य ने कहा-

देवैरत्रापि विचिकित्सितं पुर न हि सुविज्ञेयमणुरेष धर्मः।

अन्यं वरं नचिकेतो वृणीष्व, मा मोपरोत्सीरति मा सृजैनम्॥ कठोपनिषद्

हे नचिकेता! इस सम्बन्ध में तो देवता भी सन्देहग्रस्त हैं, योग-विज्ञान अत्यन्त सूक्ष्म होने से शीघ्र समझ में नहीं आता। इस कठिनाई में न पड़कर तुम अन्य कोई वरदान माँग लो, मुझे दबाओ मत।

किन्तु जब नचिकेता ने भोग और साँसारिक सुखों को भी तृणवत, तुच्छ और क्षण-भंगुर मानने का साहस अभिव्यक्त किया, तो यमाचार्य सन्तुष्ट हुए। उन्होंने कहा-दृढ़निश्चय और कठिनाइयों से लड़ सकने का जिसमें साहस है, वही योगी हो सकता है।

यह कठिनाइयाँ इसलिए और भयंकर हैं, क्योंकि भगवान को प्राप्त करने में जो समर करना पड़ता है, वह अपने आपसे ही करना पड़ता है, अपनी इच्छाओं को ही मारना पड़ता है। इसलिए उसमें प्रवेश से पूर्व ही उसका तत्त्वज्ञान समझना आवश्यक है। समझ-बूझ के साथ उठाया गया कदम लाभदायक होता है। औंधे-सीधे चल पड़ने और थोड़ी ही दूर चलकर वह मार्ग छोड़ देने से तो योगविद्या का उपहास ही होता है। इसलिए अस्थिर व बालक-बुद्धि लोगों को नहीं, निष्ठावान् साधकों को ही योग-मार्ग पर आरूढ़ होने की आज्ञा दी जाती है।

यदि मनुष्य अपने मन में उठने वाली अनेक प्रकार की कामनाओं और वासनाओं को रोक लेता है और उनका प्रयोग इन्द्रियों की इच्छा से नहीं, अपनी इच्छा से उस तरह कर सकता है, जिस प्रकार सारथी रथ में जुते हुए घोड़ों को, तो वह निश्चय ही अपनी शक्तियों का ऊर्ध्वगामी विकास करके परमात्मा की उपलब्धि कर सकता हैं


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