दैवी प्रकाश उतरेगा हर साधक के अंतस् में

February 1999

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जिनके मन में साधक समुदाय में पायी जाने वाली आत्मकल्याण और लोकमंगल की ज्योति विराजमान् है, उनके लिए सदा की भाँति अभी दैवी-प्रकाश का अनुग्रह उपलब्ध करना सरल है। अड़चन तो दैत्य ही उत्पन्न करते हैं, जिन्हें तृष्णा और लिप्सा के अतिरिक्त और कुछ सूझता ही नहीं। जिनकी साधना उच्च उद्देश्यों के निमित्त है- उन्हें पात्रता के अनुरूप दिव्य-अनुदानों को प्राप्त करते रहने में कोई बाध नहीं पड़ती। शुभ प्रसंगों पर देवताओं द्वारा पुष्पवृष्टि होने के उल्लेख कथा-पुराणों में आते रहते है॥ इस अलंकारिक वर्णन में इसी तथ्य को उजागर किया गया है कि सत्प्रयोजनों में दिव्यसत्ता की सहानुभूति ही नहीं, अनुकम्पा और सहायता भी मिलती है। यदि ऐसा न रहा होता तो विपन्न परिस्थितियों में जन्मों और असंख्य अवरोधों से घिरे रहने पर महापुरुषों को उच्चस्तरीय सफलताएँ प्राप्त कर सकना किस तरह सम्भव हो सका होता?

यह नवयुग की सन्धिवेला का अन्तिम चरण है। इसमें आकुलता भक्तों को कम और भगवान को अधिक है। आमतौर से वोटर ही चुने प्रतिनिधियों से अपना कुछ काम कराने के लिए उनका द्वार खटखटाते रहते हैं। सामान्य समय में यही चलता रहता है, किन्तु चुनाव के दिनों में स्थिति ठीक उल्टी हो जाती है, तब खड़े हुए उम्मीदवार ही वोटरों के दरवाजों पर चक्कर काटते हैं और सहायता प्राप्त करने के लिए बहुत कुछ कहते और करते देखे जाते हैं। इन दिनों परिस्थिति ऐसी ही है, जिसमें निराकार भगवान को साकार मनुष्यों की सहायता तलाश करनी पड़ रही है। बिजली की सामर्थ्य सर्वविदित है, पर उसे भी अपनी सामर्थ्य का परिचय देने के लिए बल्ब, पंखा, हीटर, मोटर आदि उपकरणों की आवश्यकता पड़ती है। लम्बे सफर जल्दी पूरे करने हों तो द्रुतगामी वाहन तलाश करने होते हैं। महाकाल की समर्थता में सन्देह नहीं, पर सदा की भाँति इस समय भी उसे प्रत्यक्ष परिवर्तन कर सकने के लिए तपस्वी साधकों की जरूरत पड़ रही है।

राम ऋष्यमूक पर्वत पर पहुँचे थे और हनुमान-सुग्रीव को सहयोग देने के लिए- सहमत करने के लिए मनाते रहे थे। अर्जुन ने जब महाभारत लड़ने में आनाकानी दिखाई थी, तो कृष्ण समझाने से लेकर नाराज होने तक और अन्ततः उनका रथ चलाने की शर्त पर समझौता कर पाए थे। श्री रामकृष्ण परमहंस ने विवेकानन्द के घर पर चक्कर काटे थे और साथ देने के लिए कई तरह के अनुदान देने का वादा करते रहे थे। वे तब तक पीछे ही लगे रहे जब तक कि स्वामी विवेकानन्द उनके सहयोगी नहीं बन गए। चन्द्रगुप्त चाणक्य को ढूँढ़ने नहीं गए थे, बल्कि चाणक्य ने ही उन्हें ढूँढ़ा था। समर्थ और शिवाजी के सम्बन्ध में भी यही बात है।

इसी प्रकार के अनेक घटनाक्रम और भी मौजूद हैं, जिनमें विशेष अवसरों पर विशेष अवसरों पर विशेष आवश्यकता की पूर्ति के लिए दिव्यसत्ता जाग्रत आत्माओं को तलाश करने और उनका सहयोग पाने के लिए प्रयत्नरत रही है। आमतौर से ऐसा नहीं होता। सामान्य समय में साधकों को ही समर्थों का मनुहार करना पड़ता है। भगवान अकारण भक्तों के दरवाजों पर नहीं पहुँचते। समदर्शी को न किसी से मोह होता है न द्वेष। न उन पर निन्दा का असर पड़ता है न प्रशंसा का। भगवत्कृपास्वरूप दैवी प्रकाश का एक ही सुनिश्चित उद्देश्य है-सत्प्रयोजनों में सहयोग पाने के लिए माध्यम उपलब्ध करना। निराकार होने के कारण उन्हें आकारधारी मनुष्यों की सहायता जुटानी पड़ती है।

स्रष्टा ने इस धरती को अपनी सर्वोत्कृष्ट कलाकृति के रूप में विनिर्मित किया है। ऐसा सुन्दर ग्रह इस ब्रह्माण्ड में और कोई नहीं। मनुष्य को जब उसने गढ़ा है, तो उसमें अपनी समस्त विशेषताएँ बीज रूप में भर दी हैं। धरती और मनुष्य से स्रष्टा को असाधारण प्यार है, इसलिए उनके पराभव का संकट जब कभी खड़ा होता है, तो वे स्वयं दौड़ते चले आते हैं और सन्तुलन बनाये रखने का अपना यदा-यदा हि धर्मस्य’ वाला आश्वासन पूरा करते हैं। चेतना को कृत्य करने के लिए शरीर की आवश्यकता पड़ती है। इसकी पूर्ति वे तपस्वी आत्माओं का सहयोग प्राप्त करके पूर्ण करते हैं। अवतारों के सहयोगी अपनी तुच्छ-सी सहायता का इतना बड़ा उपहार प्राप्त करते रहे हैं, जितना सामान्य रूप से बहुत कुछ कर गुजरने पर भी सम्भव नहीं था।

यों दिव्यलोक से अवतरण मात्र अदृश्य प्रवाह का होता है। उसे युगान्तरीय चेतना जैसी किसी अदृश्य हलचल के नाम से जाना जा सकता है। पर आँधी का परिचय तो पत्तों के हिलने और धूलिकणों के उड़ने जैसी दृश्य घटनाओं से ही मिलता है। युगान्तरीय चेतना साधकों का वरण करती है और उन्हीं के माध्यम से अपना प्रयोजन पूर्ण करती है। ऐसे साधकों-तपस्वियों का सौभाग्य अनन्तकाल तक सराहा जाता है। वर्ष 1999 में भी ऐसा ही सुयोग सामने है, उसमें साधकों के लिए अनुपम अनुदानों का सुअवसर अनायास ही प्रस्तुत है, किन्तु उसके साथ सदा की तरह अभी भी पुण्य-प्रयोजनों के लिए अनुदानों का उपयोग करने की शर्त जुड़ी है। जो दूसरों की जेब काटकर अपनी मौज-मस्ती का ताना-बाना बुनते रहते हैं, उनके लिए तो यह सुयोग भी सन्तोषप्रद सिद्ध न हो सकेगा। साधक समुदाय में प्रवेश करने की प्रमाणिक पात्रता तो उदात्त चरित्र, उदार व्यवहार के सहारे ही विकसित होगी।

वर्तमान साधना वर्ष में नैष्ठिकों को विशिष्ट स्तर के और सामान्य साधकों को सामान्य स्तर के अनुदान मिल रहे हैं। प्रयास और परिश्रम की तुलना में यह उपलब्धि भी इतनी बड़ी है, जिसे चन्दन के निकट उगे पेड़ों और पारस का स्पर्श करने वाले लौह-खण्डों को मिलने वाले अनायास सौभाग्य के समतुल्य समझा जा सकता है। सूर्य के उदय होने पर उसके प्रकाश क्षेत्र में आने वाले सभी प्राणी ओर पदार्थ गर्मी प्राप्त करते हैं। वर्षा के समय खुले में जा खड़े होने पर किसी को भी गीले होने का अवसर मिल जाता है। इसमें प्रयास स्वल्प और लाभ असाधारण हैं। जब चाहें, जहाँ चाहें वहीं सूर्य की ऊर्जा-वर्षा की तरलता का लाभ नहीं मिलता। इस साधना वर्ष को भी दैवी प्रकाश एवं अनुग्रह प्राप्त करने का एक विशिष्ट अवसर माना जा सकता है।

इस साधना पर्व पर ईश्वरीय प्रयोजनों के लिए आत्मिक पुरुषार्थ करने और श्रेय पाने वालों की ढूँढ़-खोज चल रही है। इस खोज-बीन में एक मौलिक विशेषता है। सरकारी नियुक्ति तन्त्र अपनी आवश्यकता के अनुरूप छाँट कर लेने के उपरान्त शेष को दो टूक मनाही कर देते हैं। प्रस्तुत दैवी-आमन्त्रण में ऐसा नहीं है। इसमें सर्वथा निराश किसी को भी नहीं किया जाएगा। जो जितने का, जिस स्तर का अधिकारी है, उसे उतना तो दिया ही जाएगा। इस साधना आयोजन में भागीदार होने वाला कोई भी खाली हाथ नहीं रहने पाएगा।

देवात्मा हिमालय के आध्यात्मिक ध्रुव केन्द्र से इस प्रखर साधना वर्ष के दिनों में एक विशिष्ट प्राण प्रवाह रेडियो प्रसारण की तरह, वर्षा-मानसून की तरह उमड़ता रहेगा। उससे लाभान्वित होने के लिए सभी जागरूकों को साधना करने के लिए प्रोत्साहित किया गया है। साधना आयोजन में जो बढ़-चढ़कर भागीदारी निभाएँगे, उनका साहस एवं उत्तरदायित्व अधिक होने के कारण उन्हें अनुदान भी इसी स्तर के मिलेंगे। किन्तु जो उतना साहस न जुटा सकेंगे, उन्हें भी पात्रता के अनुरूप हल्के स्तर के उपहार पाने का अवसर मिलेगा। वर्षा में बड़ा तालाब और सरोवर अगाध जलराशि एकत्रित कर लेते हैं, किन्तु खाली रह जाने की शिकायत छोटे गढ्ढों और पोखरों को भी नहीं रहती। उन दिनों गणना उनकी भी सौभाग्यशालियों और उपलब्ध कर्ताओं में ही होती है।

अकाल पड़ने पर कुआँ खोदने आदि के लिए, तकाबी बाँटने के लिए सरकारी अफसर स्वयं गाँव-गाँव घूमते हैं। इतना ही नहीं, खोदने की सुविधा और जानकारी देते हुए प्रयत्नरत होने के लिए किसानों की खुशामद भी करते हैं। यों प्रत्यक्ष लाभ किसानों का ही है। पीने का पानी और सिंचाई का साधन मिलने से राहत उन्हीं को मिलती है, फिर भी सरकार जानती है कि समर्थ किसानों पर ही देश की खुशहाली निर्भर है। इसलिए तकाबी लेने और कुएँ खोदते देखकर उन्हें भी कम प्रसन्नता नहीं होती। प्रखर साधना वर्ष में हिमालय की दिव्यशक्तियों जो अनुदान वितरण कर रही हैं, वे कई प्रकार की हैं और उनकी गरिमा का स्तर भी क्रमशः बढ़ा-चढ़ा है, जो उन्हें प्राप्त करेगा। साधना वर्ष के कार्यक्रमों में भागीदार होने वाले लोगों के पैरों में गति और हाथों में प्रगति के सूत्र थमाने वाले अनुदान देने का निश्चय स्वयं भगवान महाकाल का है। इस सुविधा का लाभ प्रत्येक भागीदार साधक को मिलेगा। इस प्रखर साधना वर्ष का असाधारण उपहार समझा जाना चाहिए और उससे लाभान्वित होने का परिजनों में से प्रत्येक को प्रयत्न करना चाहिए। इस आत्म श्रेय एवं दैवी प्रकाश अनुदान का दुहरा लाभ प्राप्त करने वाले अपने सौभाग्य कली सराहना पीढ़ी-दर-पीढ़ी किए बिना न रह सकेंगे।

संत तुकाराम जन्मजात शूद्र थे। उनका ईश्वरभक्ति करना तथा भक्ति गीत लिखना तात्कालिक सवर्ण पंडितों की दृष्टि में अनुचित ही नहीं- एक अपराध था।

एक निकटवर्ती पंडित श्री रामेश्वर भट्ट ने उन्हें बुलाया और कहा कि तुम्हें शूद्र होने के नाते यह सब कुछ नहीं करना चाहिए। न ईश्वरभक्ति, न भजन-कीर्तन और न अभंगों की रचना।”

तुकाराम अत्यन्त ही सरल स्वभाव के- आवश्यकता से अधिक नर्म तथा बहुत ही सीधे-सादे व्यक्ति थे। उन्होंने रामेश्वर भट्ट की बात स्वीकार कर ली और पूछा-किन्तु जो अभंग रचे जा चुके हैं- उनका क्या होगा?” तब उस हृदयहीन पंडित ने कहा-उन्हें नदी में बहा दो।”

अनासक्त योगी-तुकाराम ने सचमुच ही अपने अभंगों की पोथी इन्द्रियाणि में प्रवाहित कर दी। उस दबाव में वे ऐसा कर तो गये, पर मन इतना मर्माहत हो गया कि वे विट्ठल मंदी के सामने तेरह दिन तक बिना अन्न-जल ग्रहण किए पड़े रहे और सोचते रहे ”मेरी भक्ति में ही कहीं कोई त्रुटि है, जो भगवान मुझसे प्रतिकूल हो गये हैं।”

दुःखी मन की पुकार-जो सच्चे मन व सत्य के प्रकाश से उद्भासित हो-कभी खाली नहीं जाती। तेरहवें दिन तुकाराम को स्वप्न हुआ कि “पोथियाँ नदी किनारे पड़ी हैं-जाकर उठा ला।” तब उनके स्वप्न का हाल सुनकर उनके भक्त गण जयघोष करते हुए गये और पोथियाँ किनारे पर से उठा लाये।


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