कौन देंगे लोकजीवन को सच्चा नेतृत्व

February 1999

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प्रखर साधना वर्ष के सरंजाम-आयोजन की निश्चित परिणति राष्ट्र और विश्व-मानवता का उज्ज्वल भविष्य है। वही उज्ज्वल भविष्य जिसके चित्रांकन में निरत विश्व मनीषा ने अनेकों मोहक चित्र प्रस्तुत किए हैं। आध्यात्मिक, साँस्कृतिक, सामाजिक, राजनैतिक पहलुओं के अनुरूप प्रत्येक का अपना सौंदर्य है। अन्तर्दृष्टि के बल पर प्रकाश युगीन सामाजिक संरचना, व्यवस्था-प्रणालियों आदि का जीवन्त चित्रण कर रही कल्पना की तुलिका एक एक ठहराव-सा अनुभव कर रही है। कौन होंगे वे व्यक्ति, जिनके ऊपर भावी समाज के नेतृत्व का भार होगा? सही माने में संरचना व व्यवस्था-प्रणालियाँ तो कलेवर मात्र हैं, प्राण तो वे व्यक्ति ही हैं, जिनके रहने तक कायकलेवर अपना सौंदर्य बरकरार रखता है। इनके जर्जरित होते ही अच्छी-से-अच्छी संरचना अपना अस्तित्व गँवा बैठती है।

मानवीय इतिहास की पोथी उलट-पुलट कर देखें तो यह तथ्य कहीं अधिक मुखर होकर अपना स्पष्टीकरण देता है। कबीले-यूथों के सामुदायिक निवास से राजतन्त्र, लोकतन्त्र, साम्यवाद, समाजवाद के उत्थान और अवसान की गहराइयों में यही स्वर गूँजते हैं। यथार्थ में कोई भी प्रणाली या विधि-व्यवस्था उतनी खराब नहीं होती, जितनी कि हम सब समझ बैठते हैं। यदि राजतन्त्र का नेतृत्व करने वाले विक्रमादित्य और चन्द्रगुप्त सदृश व्यक्ति हों, जिन्होंने अपने समूचे जीवन का उद्देश्य एकमात्र जनकल्याण मान रखा हो, तो शायद राजतन्त्र अभी भी अपनी सामयिकता सिद्ध कर सके। इसी प्रकार लोकतन्त्र की बागडोर जनहित में आधी धोती पहनने वाले गाँधी के हाथ में हो तो रामराज्य अभी भी अपनी अभिव्यक्ति किए बिना न रुके। यही बात अन्य प्रणालियों के बारे में भी सत्य है।

ऐसे में हो सकता है, यह सवाल किसी के मन को परेशान करने लगे कि यदि व्यक्ति की इतनी महत्ता है, कर्णधार इतने अधिक उपादेय हैं, तब फिर प्रणालियों में यह उलट-फेर क्यों? क्या नयी प्रणालियों को जन्म देने वालों की अकल गड़बड़ थी? इन प्रश्नों के जवाब में यही कहा जा सकता है कि व्यवस्था की अपनी उपादेयता है। इनकी संरचना में फेर-बदल करने वाले भी असंदिग्ध रूप से बुद्धिमान थे। इतने पर भी नेतृत्व करने वाले व्यक्तियों का महत्त्व कम नहीं हो जाता। बदलते समय के अनुरूप व्यवस्था की संरचना में फेर-बदल सिर्फ इसलिए करना पड़ता है, ताकि इसकी सहायता से मानव महासागर में खोए, उपेक्षित पड़े, सुयोग्य-प्रतिभाशाली चरित्रवान नररत्नों को उभारा जा सके। इन्हें अपना नेतृत्व सौंपकर तत्कालीन समाज चैन की साँस ले सके। कोई भी प्रणाली जब अपना दायित्व निभा सकने में अक्षम होने लगती है, नीतिज्ञ उसे बदल डालने के लिए नई स्थानापन्न प्रणाली की ढूँढ़-खोज में लग जाते हैं।

प्रकारान्तर से यह ढूँढ़-खोज नेतृत्व सँभाल सकने योग्य व्यक्तियों की होती है; उसका स्वरूप और प्रक्रिया भले ही कुछ और हो। स्वाभाविक है, इसे जानने की लालसा बहुतों में जगे। हर कोई यह जानना चाहे कि वह कौन-सी योग्यता है, जो मनुष्य को इस योग्य बनाती है। विशेषकर जिसका सम्पादन-अनुशीलन करके हममें से कोई भावी समाज की नौका का कर्णधार बन सकने योग्य बन सके।

सही भी है, संसार के सभी महत्वपूर्ण कार्यों के लिए एक विशेष योग्यता और शक्ति की आवश्यकता होती है। अनेक व्यक्ति कुछ महत्वपूर्ण करने की आकांक्षा तो करते हैं, पर उनको करने के लिए जिस क्षमता एवं शक्ति की जरूरत होती है, उसे सम्पादित नहीं करते, फलस्वरूप उन्हें सफलता से वंचित ही रहना पड़ता है। जिनने भी कोई बड़ा पुरुषार्थ किया है, बड़ी विजय प्राप्त की है, उन्होंने तात्कालिक परिस्थितियों से ही सब कुछ प्राप्त नहीं किया, अपितु उनकी पूर्व तैयारी ही उस सफलता का कारण रही है।

‘मैन, मॉरल एण्ड सोसाइटी’ के रचनाकार ब्रिटिश, मनीषी जे0सी0 फ्ल्यूगेज सदाशयता, सद्व्यवहार, संगठन-शक्ति चरित्रनिष्ठा और सामाजिक हितों के लिए समर्पित बुद्धि को नेतृत्व की योग्यता मानते हैं। उनके अनुसार चरित्र ही वह प्राण है, जो व्यक्ति और समाज दोनों को ओजस्विता प्रदान करता है। सिद्धान्तकार लैम्ब्रेट की दृष्टि से सोचें तो अगले दिनों समाज का जो स्वरूप बनेगा, उसके अनुसार नेतृत्व की योग्यता के लिए महज चरित्रनिष्ठा काफी नहीं-बल्कि चाहिए तपःशक्ति। उनके अनुसार भाव प्रधान समाज के नेतृत्व हेतु पूर्ण व्यक्ति चाहिए। पूर्ण व्यक्ति का तात्पर्य है- वे जिनका व्यक्तित्व तप-साधना के साँचे में ढला है।

इतिहासवेत्ता राधाकुमुद मुखर्जी की रचना ‘मैन एण्ड थाट इन एंषिएण्ट इण्डिया’ के अनुसार पूर्वकाल में लाखों वर्षों तक सतयुग की सुख-शान्ति भरी परिस्थितियाँ इस संसार में रही हैं। इसका कारण एक ही रहा है कि उस समय के लोकनायक-मार्गदर्शक आत्मशक्ति से सम्पन्न रहे और केवल वाणी से नहीं, बल्कि अपनी आत्मिक महानता की किरणें फेंककर लोकमानस को प्रभावित करते रहे। मस्तिष्क की वाणी मस्तिष्क तक पहुँचाती है और आत्मा की आत्मा तक। कोई सुशिक्षित व्यक्ति अपनी ज्ञान-शक्ति का काम सुनने वालों की जानकारी बढ़ाने के लिए दे सकता है, पर अन्तःकरण में जमी हुई आस्था में हेर-फेर करने का कार्य ज्ञान से नहीं, तपःशक्ति से सम्पन्न होना सम्भव हो सकता है। प्राचीनकाल के लोकनायक ऋषि-मुनि इस तथ्य को भली-भाँति जानते थे। इसीलिए वे दूसरों को उपदेश देने, उनकी बाह्य सेवा करने में जितना समय खर्च करते थे, उतना ही प्रयत्न स्वयं के जीवन को सँवारने, तप के साँचे में ढालने के निमित्त करते थे। तप-साधना से ही वह ऊर्जा मिलती है, जिसकी प्रेरणा से किसी के मन पर जमी बुराइयों को आकर्षक कुसंस्कारों को हटाकर अच्छाइयों के कष्टसाध्य मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी जा सके।

प्राचीन इतिहास की ही भाँति पिछले दो हजार वर्षों में भी इसी आधार पर जनमानस का सुधार एवं परिष्कार सम्भव होता रहा है। भगवान बुद्ध के मन में अपने तथा संसार के दुःखों के निवारण की लालसा जगी। इसकी लिए उन्होंने पच्चीस वर्ष की आयु से मोह बन्धनों को तोड़कर बीस वर्ष तक लगाता आत्मनिर्माण की साधना की। पैंतालीस वर्ष की आयु में उनका व्यक्तित्व लोकनायक के रूप में उभरा। भगवान महावीर ने अपनी आयु का तीन-चौथाई भाग तप में और एक चौथाई भाग जननेतृत्व में लगाया। इन दोनों महापुरुषों ने उपदेशों की बौछार उतनी नहीं की, जितने आज के सामान्य उपदेशक कर लेते हैं। तब भी उनका प्रभाव पड़ा और आज भी संसार की एक-चौथाई जनता उनके मार्गदर्शन पर आस्था रखती है।

समस्त विवादों से परे तप-साधना की एक ही सार्वभौमिक परिभाषा है, स्वयं के जीवन की समस्त खोटों को निकाल फेंकना। साथ ही अध्यात्म के उन प्रयोगों का दैनन्दिन जीवन में समावेश करना जो व्यक्तित्व की अन्तःशक्तियों को जगाते हैं। आदि गुरु शंकराचार्य ने बीस वर्ष की ऐसी ही तपश्चर्या के बलबूते अपने समय के मार्गदर्शन का दायित्व सँभाला। गुरु गोविन्दसिंह ने लोकमत नामक स्थान में तप-प्राण बटोरा, उसी को बिखेरकर स्वयं को युग निर्माता के रूप में प्रतिष्ठित कर सके। छत्रपति शिवाजी का व्यक्तित्व गढ़ने वाले समर्थ रामदास ने तप कौशल से स्वयं को साँचा बना डाला था। संवत् 1924 के कुम्भ में स्वामी दयानन्द को हरिद्वार प्रवास के दौरान कोरी वाणी फीकी मालूम पड़ी। इस न्यूनता की पूर्णता के लिए उन्होंने हिमालय में कठोर तप को ही साधना बनाया।

श्री रामकृष्ण परमहंस ने पचास वर्ष तक की आयु में विशुद्ध तीस वर्ष तप-साधना में लगाए। योगी अरविन्द घोष, महर्षि रमण, स्वामी रामतीर्थ की तपश्चर्या प्रसिद्ध है। वैष्णव आचार्यों में से रामानुज, मघ्व, निम्बार्क आदि ने जितना ज्ञान संचय किया, उतनी ही तप-साधना की। संसार के अन्य महापुरुष जिन्होंने लोगों को उच्च भूमिका की ओर बढ़ाया, निश्चित रूप से तपस्वी साधक थे। पैगम्बर मुहम्मद ने पच्चीसवें वर्ष में साधना की ओर कदम बढ़ाया और चालीस साल तक उसी में लगे रहे। महात्मा ईसा के जीवन के छत्तीस वर्ष तपश्चर्या में लगे। यहूदी धर्म के यहोबा और पारसी धर्म के देवदूत जरथुस्त्र की दीर्घकालीन तप-साधनाएँ प्रसिद्ध हैं।

मानवीय जीवनक्रम में आदि काल से लेकर अब तक एक ही तथ्य समय-समय पर स्पष्ट होता रहा है कि अध्यात्म ही लोकजीवन को सच्चा नेतृत्व दे सकने में समर्थ हो सकता है। इक्कीसवीं सदी के नये समाज में ओछे-हलके वाचाल व्यक्तियों के लिए कोई स्थान न रहेगा। फिर नेतृत्व जैसे महान कार्य के लिए इन जैसों के बारे में सोचना ही ठीक नहीं। यह महान कार्य महान आत्माएँ ही कर सकेंगी और महान आत्माओं के अनेक गुणों में प्रमुख एक तप-साधना भी है, जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। साधनारत का प्रयोजन ऐसे ही तपस्वियों को आगे लाना और उन्हें लोक नेतृत्व के लिए तैयार करना है।


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