परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी- - ब्रह्मवर्चस अर्जन की साधना व उसका मर्म

February 1999

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गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।

देवियो, भाइयो! साधना की सफलता आन्तरिक पवित्रता-प्रखरता पर निर्भर करती है। वेदमंत्रों के उच्चारण का फल केवल अंतरंग को पवित्र करने से ही मिलता है। राजा दशरथ के यहाँ जब पुत्रेष्टि यज्ञ की बात चली थी, तो गुरु वशिष्ठ ने कहा था कि हमारे सौ बच्चे हो गये हैं। अतः हमारे द्वारा मंत्र पढ़ने से कोई लाभ नहीं होगा। संयम का पालन नहीं होगा, आहार-विहार ठीक नहीं होगा, तो वेदमंत्र का कोई लाभ नहीं हो सकेगा। ऋषियों में एक शृंगी ऋषि थे। उनकी संयम साधना, आहार-विहार साधना अनूठी थी। महिलाओं के सम्बन्ध में उन्हें कुछ भी पता नहीं था। वे जंगल में पले थे। आहार-विहार ठीक होने के कारण उनका अन्नमय कोष परिशोधित था। मनोमय कोष पवित्र था। अतः उस विशेष आयोजन के लिए शृंगी ऋषि को बुलाया गया था। उनके मुख से उच्चरित वेदमंत्रों के द्वारा यज्ञ होने पर दशरथ जी के यहाँ भगवान के रूप में चार बालक पैदा हुए। भगवान राम, भगवान भरत, भगवान लक्ष्मण, भगवान शत्रुघ्न पैदा हुए। ये कहाँ से पैदा हुए? ये मंत्रों से पैदा हुए। उसे किसने बोला था? शृंगी ऋषि ने बोला था।

मित्रो! आहार-विहार के सम्बन्ध में परिष्कृत होने के लिए आपको भी तैयार होना चाहिए। हम ब्रह्मवर्चस की साधना में आपको यही कराएँगे तथा आपको मजबूर करेंगे कि आप अपने आहार-विहार को ठीक करें। हम आपकी सात्विकता पर जोर देंगे। अगर आपको अमुक चीज ठीक नहीं लगेगी तो इसके लिए आपको ठोस प्रयास करना होगा तथा उसके लिए तैयार होना होगा। जब हम आपको ब्रह्मवर्चस की साधना कराएँगे तो आपको एक भिगोना दे दिया जाएगा और कहा जाएगा कि आप यहाँ से संस्कारवान अनाज लें और अपना सात्विक आहार स्वयं तैयार करें। इसमें खिचड़ी, दलिया बनाकर खा लीजिए। पहले जमाने में संत-महात्मा इसी प्रकार भिक्षा लेकर आते थे और अपना भोजन स्वयं बनाकर खा लेते थे। आपको भी उसी प्रकार करना चाहिए। हम आपको यहाँ पर जायकेदार चीजें नहीं देंगे, वरन् हम आपका जायका खराब करेंगे, उस आदत को सुधारेंगे जिसने आपको असंयमी बना दिया है।

साधना-उपासना की पहली सीढ़ी सात्विकता है। अतः आपको यह ध्यान रखना होगा कि आप चाहे यहाँ रहें अथवा कहीं भी रहें, आपको इसी प्रकार सात्विक अन्न-आहार का प्रयोग करना चाहिए। इस प्रकार अगर आप करेंगे तो आपको पता चलेगा कि सात्विक आहार का भजन-पूजन पर, साधना-उपासना पर क्या प्रभाव पड़ता है। हमने चौबीस साल तक जौ की रोटी एवं छाछ का सेवन किया है। इस बीच न नमक खाया है, न शक्कर। आप पूछते हैं कि गुरुजी आपने कौन-सा बीजमंत्र लगाया है? हमने अपनी साधना में केवल सात्विक आहार का सेवन किया है। पूजा-उपासना के पहले, भजन के पहले हमें अपने मस्तिष्क एवं शरीर को सात्विक बनाना होगा, ताकि भगवान हमारे शरीर में उपस्थित हो सकें और हमारे मस्तिष्क में प्रेरणा दे सकें। इसके लिए हमें सात्विक आहार का सेवन करना होगा।

मित्रो! हमें न केवल अपने पेट को, वरन् जीभ को भी नियंत्रित करना होगा। इसके द्वारा ही आदमी के भीतर बैठा हुआ देवत्व जाग्रत होता है तथा मनुष्य प्रगति के पथ पर आगे बढ़ने लगता है। अपनी जीभ के ऊपर हमें बड़ी सावधानी से ध्यान देना होगा। फिर ध्यान देना होगा कि हम जो बोलते हैं, उसका प्रभाव पड़ता है कि नहीं। हम गिरे हुए तो नहीं हैं? हमारे द्वारा किसी को दुख तो नहीं हो रहा है? इस प्रकार के विचार अपने भीतर पनपने के लिए हमें अपने अन्नमय शरीर को ठीक करना होगा। इसमें अन्न तथा जल दोनों चीजें सम्मिलित हैं। वातावरण का प्रभाव भी पड़ता है। अन्न के साथ इन चीजों को भी ठीक करना होगा।

दूसरा शरीर हमारा प्राणमय कोष है। हमारे शरीर में एक मैग्नेट काम करता है, जो अंतरिक्ष की चीजों को खींचता रहता है तथा उसे प्राणवान बनाता रहता है। आप जानते हैं कि जहाँ वृक्ष होते हैं, वहाँ बादल खिंचते हुए चले आते हैं। उसी प्रकार जहाँ कहीं भी श्रेष्ठता होगी, हमारा प्राणमय कोष उसे खींचता रहता है। पिछले दिनों लीबिया में सारे पेड़ काट दिये गये तो वहाँ का सारा क्षेत्र रेगिस्तान में बदल गया। बादलों ने वहाँ बरसना बन्द कर दिया। इस घटना के बाद वहाँ की जनता को, सरकार को पेड़ लगाने पड़े। धीरे-धीरे अब थोड़ी-बहुत बारिश हो जाती है। इसी प्रकार प्राणमय कोष, जिसे हम मैग्नेट कहते हैं, वह श्रेष्ठ चीजों को, जो हमारी जीवात्मा की खुराक हैं, को खींचता रहता है। इस मैग्नेट को हम साहस कहते हैं। इस साहस के माध्यम से बड़ी-बड़ी चीजें आती-जाती श्रेष्ठता की ओर बढ़ते चले जाते हैं।

इस प्राणमय कोष को जब मनुष्य जाग्रत कर लेता है, तो उसके अन्दर चमत्कार उत्पन्न हो जाता है। नैपोलियन बोनापार्ट का जब प्राणमय कोष जाग्रत हो गया था, उसके भीतर का साहस जब जाग गया था तो वह आल्पस पर्वत को पार कर गया था। गाँधीजी ने जब इस शरीर को जगा लिया तो अंग्रेज हमारे देश से भाग खड़े हुए। वह गाँधी के प्राणमय कोष का चमत्कार था। यह असली ताकत हमारे प्राणवान प्राणमय कोष का चमत्कार है। आपको अपने इस प्राणमय कोष को जाग्रत करना होगा। आपको हिम्मत-साहस की शक्ति को जाग्रत करना होगा।

बेटे, हिम्मत की शक्ति बहुत महान है। इसके द्वारा आप सभी चीजें प्राप्त कर सकते हैं। लव-कुश ने इसी के द्वारा हनुमान, लक्ष्मण तथा अन्य वीरों को हरा दिया था। यह उनकी। शरीर में कोई ताकत नहीं होती। असली ताकत तो अन्दर होती है। मनुष्य की वास्तविक ताकत उसकी प्राणों की ताकत है, हिम्मत की ताकत है। शरीर की ताकत से कुछ नहीं होता है। जो भी गाँधी जी के पास जाता था, वह उनका हो जाता था। सरदार पटेल, नेहरू, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, जो भी उनके पास गये, उनकी आँखों के वशीभूत हो गये। वह गाँधी जी की शक्ति नहीं थी, वरन् उनके प्राणमय कोष की शक्ति थी। यह उनकी हिम्मत थी एवं साहस था।

मित्रो, आपको भी तपस्वी बनने के लिए, साधक बनने के लिए अपने प्राणमय कोष को ताकतवर बनाना होगा। पिछले दिन हम आपको बतला रहे थे कि आपको तपस्वी जीवन जीने के लिए, साहसी बनाने के लिए हम आपको प्राणवान बनाएँगे। जिस प्रकार जीभ को कण्ट्रोल करने के लिए अन्नमय कोष को ठीक करना पड़ता है, उसी प्रकार अपने आप से लोहा लेने के लिए आपको तपस्वी होना होगा। शरीर पग-पग पर न जाने क्या-क्या माँगता रहता है, उसे कण्ट्रोल करना होगा। अब आपको शरीर से यह कहना होगा कि अब तक हमने तेरी बात मानी, अब तुझे मेरी बात माननी होगी। इस प्रकार प्राण पर नियंत्रण हो जाने पर हम प्राण शरीर के द्वारा एक मैग्नेट पैदा करेंगे, जो इस शरीर में चमत्कार उत्पन्न कर देगा।

मित्रो, हमें अपने मन को भी नियंत्रित करना होगा। उस पर कण्ट्रोल करना होगा। जिस प्रकार रिंग मास्टर चाबुक लेकर अपने जानवरों को कंट्रोल करता है, आपको भी अपने मन को उसी प्रकार कण्ट्रोल करना होगा। आपको अपनी सारी इन्द्रियों को नियंत्रित करना होगा। उनको अपने वश में करना होगा। बेटे, इसी का नाम तप है, जिसे हम आपको बतलाना चाहते हैं। हम आपको तपस्वी बनाने का प्रयत्न करेंगे। अगर आप तपस्वी बन जाएँगे तो इसी जिन्दगी में आप उन सारी चीजों को प्राप्त कर लेंगे जिनकी आपको आवश्यकता है। स्वामी दयानन्द जब अपने गुरु के आदेश पर जनजागरण के लिए निकले तो उनकी वाणी सुनने को कोई तैयार नहीं हुआ। तब वे तप करने चले गये और उसके बाद उनकी वाणी में निखार आया और वे आर्यसमाज के बहुत बड़े प्रवर्तक हुए।

मित्रो, हमारी वाणी में शक्ति है किन्तु वह ऐसे ही नहीं आयी है। हमने भी अपने गुरु के आदेश पर चौबीस साल तक तप किया था। महात्मा आनन्द स्वामी की बातों को लोग मानें, इसलिए उन्होंने भी बरारी में तप किया था। जब गाँव के लोगों को पता लगा कि एक महात्मा तप कर रहे हैं, भजन कर रहे हैं, तो उनके लिए भोजन की व्यवस्था बना दी। वे जब तप करके निकले तो एक विशेष ऊर्जा उन्हें प्राप्त थी। स्वामी दयानन्द ने जहाँ तप किया था, वहाँ तीन नदियाँ आकर मिलती हैं। उस अवधि में उन्होंने केवल एक समय भोजन किया। वे तीन साल तक लगातार तप करते रहे और उसके बाद इतनी शक्ति लेकर आये कि उसका वर्णन नहीं किया जा सकता है। उन्होंने काफी काम भी किया। आर्यसमाज की जगह-जगह स्थापना की तथा निरन्तर दौरा करते रहे। यह प्राणों की शक्ति थी। हम आपके भीतर भी उसी प्रकार की शक्ति पैदा करना चाहते हैं, जिससे कि आप उभरकर आगे आयें। आप जितना बर्दाश्त कर सकते हैं, हमारा कहना है कि आप उतना ही तपस्वी जीवनयापन करने के लिए तैयार रहें। चांद्रायण व्रत से लेकर जो भी आप कर सकते हैं, उसे अवश्य करें।

साधना में तप-तितिक्षा की अपनी महत्ता है। ब्रह्मवर्चस की साधना के अंतर्गत यह निश्चय आपको करना होगा कि आप अस्वाद व्रत से लेकर क्या-क्या कर सकते हैं तथा अपनी कमजोरियों से किस प्रकार लड़ सकते हैं। तपस्वी जीवन जीने के लिए आप कितनी तप-तितिक्षा कर सकते है? यह निश्चय आपको करना है। आपको यह निश्चय करना है कि इसका स्वरूप कितना बड़ा, छोटा या मध्यम हो सकता है। बच्चों के लिए तप-साधना क्या हो सकती है? ब्रह्मवर्चस् के माध्यम से हम आपको यह सब बतलाने वाले हैं कि पंचकोशी साधना क्या होती है? इसका पंचमुखी गायत्री से क्या संबंध होता है?

हमारे मन के भीतर चमत्कारी शक्तियाँ भरी पड़ी हैं। मन के अन्दर से अनेकों तरंगें निकलती हैं, जो बाहर आकर फैल जाती हैं। उसे अगर हम नियंत्रित कर लें तो मजा आ जाएगा। तब हम एक प्राणवान व्यक्ति बन सकते हैं। मन शक्ति का पुँज है। अगर उसे नियंत्रित कर लें तो हम सब कुछ प्राप्त कर सकते हैं। अभी तक हम विज्ञान द्वारा इसके केवल सात प्रतिशत भाग की ही जानकारी प्राप्त कर सके हैं, शेष तिरानबे प्रतिशत की जानकारी प्राप्त करना अभी बाकी है। इसे ‘जादू का पिटारा’ कह सकते हैं। यह हमारा मस्तिष्क भानुमती का पिटारा है। अगर इसके बिखराव को हम नियंत्रित कर सके तो एक बहुत बड़ी शक्ति हम प्राप्त कर सकते हैं। अनेक दिशाओं में भागने वाले मन को अगर हम नियंत्रित कर सके तो हम अंगद, हनुमान तथा भीम की तरह सामर्थ्यवान हो सकते हैं। भगीरथ किस प्रकार अपने मन को नियंत्रित एवं नियोजित करके हिमालय में फैली गंगा को धरती पर लाये थे, यह सभी जानते हैं। वे एक सफल इंजीनियर थे, जो अपने मस्तिष्क को नियंत्रित करके इस प्रकार की योजना को चरितार्थ करने में सफल हुए थे। अनेक दिशाओं में बिखरी अपने मस्तिष्क की शक्ति को अगर हम नियंत्रित कर सके तो हम भगीरथ के तरीके से महान शक्तिशाली बन सकते हैं।

अतः आप अपने मस्तिष्क से बेकार की बातों को निकाल दीजिए, फिर आप वैज्ञानिक, संत, महामानव बन सकते हैं। दूसरी दिशा में यानी निगेटिव दिशा में अगर इसे लगा दें, तो फिर एक नम्बर का डाकू, जेब-कतरा भी बन सकते हैं। सर्कस में लड़कियाँ मन को एकाग्र कर लेती हैं, तो चमत्कार दिखा देती हैं। अगर हम अपने मन के बिखराव को रोक सकें तो वह सारा-का-सारा लाभ प्राप्त कर सकते हैं, जिसकी हमें आवश्यकता है। मस्तिष्क जितना शक्तिशाली यंत्र शरीर में और कोई नहीं है।

वास्तव में उसी मनुष्य का भविष्य अच्छा है, जो एक दिशा में चल सकता है। जिसका लक्ष्य एक हो तथा वह हमेशा उसी की पूर्ति में लगा हुआ हो। द्रौपदी की शादी के समय स्वयंवर रचा गया। स्वयंवर की शर्त के अनुसार मछली की आँख में तीर मारना था। अनेकों को पानी में मछली की पूँछ तथा सिर दिखाई पड़ रहा था। अर्जुन से जब लोगों ने पूछा कि है। उस समय हमारे मस्तिष्क में एक विशेष हलचल होती रहती है। उस वक्त अगर आप हमारे बगल से भी निकल जाएँ तो हमें पता नहीं चलेगा कि आप कब आये और कब चले गये। यही एकाग्रता है, जिसके द्वारा मनुष्य को सफलता मिलती है। एकाग्रता एक दिशा का, एक धारा का नाम है। स्वामी विवेकानन्द जब प्रथम बार अमेरिका गये तब लोगों ने उन्हें ‘जीरो’ अर्थात् शून्य के सम्बन्ध में बोलने के लिए पन्द्रह मिनट का समय दिया। वे पूर्णरूपेण एकाग्रता के साथ इस विषय पर बोलते गये। पन्द्रह मिनट बोलने के बाद पन्द्रह मिनट पुनः उनको बोलने के लिए कहा गया। मित्रो! 'मेडीटेशन' इसी का नाम है। आदमी किसी काम में पूर्ण तन्मयता के साथ यदि जुट जाए तो उसी में सफलता प्राप्त कर सकता है। उसे ऋद्धियाँ सिद्धियाँ प्राप्त हो सकती हैं।

मित्रो! किसी भी कार्य में सफलता प्राप्त करने के लिए हमें एकाग्रता के बारे में भी सोचना होगा। अभी हमारा जीवन अस्त-व्यस्त है। अगर हमने अपने जीवन में एकाग्रता का अभ्यास किया होता, तो हमारे जीवन की सारी समस्याओं का हल हो गया होता तथा हम प्रगति के रास्ते पर बढ़ रहे होते। जमीन का भौतिक जीवन में भी कम महत्व नहीं है। नागपुर का संतरा, बंगाल का चन्दन वहाँ के जमीन के हिसाब से महत्व रखता है।

स्थूल का उतना महत्व नहीं, जितना सूक्ष्म का है। गाँधी जी का शरीर बाहर से बहुत कमजोर लगता था, परन्तु उनके अन्दर वाला सूक्ष्मशरीर इतना अधिक मजबूत था कि उसके द्वारा उन्होंने आश्चर्यजनक कार्य कर डाले। अष्टावक्र ऋषि बाहर से देखने में काले-कलूटे एवं टेढ़े-मेढ़े थे, परन्तु उनका भीतर का शरीर इतना महत्वपूर्ण था कि उनके ज्ञान एवं कार्य को देखकर विदेह कहे जानेवाले राजा जनक जैसे विद्वान भी आश्चर्यचकित हो जाते थे।

मित्रो! हम चाहते थे कि आप भी अपने भीतर वाली जमीन अर्थात् शरीर को जगा सकते तो मजा आ जाता। अगर आप इसका विकास नहीं कर सके और मात्र भौतिक शरीर का, भौतिक पदार्थों का ही ध्यान रखेंगे, तो हमें यह कहने में जरा भी संकोच नहीं होगा कि आप कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकेंगे। अगर आप केवल भौतिक शरीर का ही ध्यान रखते हैं, तो हम आपको अध्यात्मवादी नहीं कह सकते हैं। भले ही आप चाहे चालीसा का पाठ करते हैं या रामायण का पाठ करते हैं, उससे हमारा कोई मतलब नहीं है। आप अगर अध्यात्मवादी हैं और आपको अगर कुछ प्राप्त करना है तो आपको अपने भीतर वाले हिस्से को जगाना होगा, क्योंकि मनुष्य की शक्ति-सामर्थ्य ऋषि-तत्व ऋद्धि-सिद्धि जो भी है, वह उसके अन्दर ही है, जिसके लिए मनुष्य को साधनाएँ करनी पड़ती हैं। अन्दर एटम बम की शक्ति भरी पड़ी है, जिसे आपको जगाना और नियोजित करना भर है।

साथियों, मैं यह कह रहा था कि जीवात्मा की शक्ति बहिरंग में नहीं, अन्तरंग में है। वास्तव में हम केवल बाहर की चीजें ही देख पाते हैं। अन्दर की चीजें हम नहीं देख पाते। इस कारण से उसका महत्व हमें नहीं मालूम पड़ता है। अगर हम भीतर की चीजों का पता लगा सकें तथा उसे जाग्रत करने का प्रयास कर सकें, तो हमारे जीवन का कायाकल्प हो सकता है। आध्यात्मिकता का शिक्षण हमने प्रारंभ से देने का प्रयास किया है तथा लोगों को बतलाने का प्रयास किया है कि आप अपने आपको पहचानिए तथा उसके विकास के लिए प्रयास कीजिए। “आत्मा वाऽरेज्ञातव्य श्रोतव्य ध्यातव्य” यही वास्तविकता है। अपने आपको जाने, पहचानो तथा इसे जाग्रत करने का प्रयास करो, ताकि तुम महान हो सको- निहाल हो सको। हमारे भीतर ऋद्धि-सिद्धियों का, शक्तियों का जखीरा भरा है, उसके बारे में अगर जान सके तो मजा आ जाएगा।

मित्रो! हमने सुना है कि कोशिकाओं के भीतर ‘जीन्स’ होते हैं, जो शरीर निर्माण से लेकर मनुष्य की सारी गतिविधियों का नियंत्रण-संचालन करते हैं और उसे निहाल कर देते हैं। आत्मा भी अन्तरंग वाला ‘जीन’ है, जो जाग्रत हो जाने पर आदमी को निहाल कर देता है। हमारा ऊपर वाला शरीर जो हमें दिखाई पड़ता है, वह हमारा स्थूलशरीर है। जिस प्रकार हम कपड़ा पहने हुए हैं, ठीक उसी प्रकार इस काया आपको क्या दिखलाई पड़ रहा है? उसने कहा कि मछली की आँख एवं तीर की नोंक। अंत में विजयी अर्जुन ही हुए।

मित्रो, जिनके जीवन का एक लक्ष्य होता है, सफलता उनको ही प्राप्त होती है। एकाग्रता सबसे बड़ी चीज है। वैज्ञानिक की एक दिशा होती है, एक लक्ष्य होता है। जब हम लेख लिखते हैं तो हमारी एकाग्रता होती का जो ऊपरी स्वरूप है, वह स्थूलशरीर है। हम बाकी शरीरों के बारे में जानते हैं या नहीं, यह नहीं कह सकते, परन्तु सूक्ष्मशरीर के बारे में यह जानते हैं कि यह सपने के समय बाहर आ जाता है। इस तरह हम अंदाजा लगा लेते हैं कि हमारे अन्दर बहुत बड़ी शक्ति है, जो हमारे शरीर से बाहर निकल जाती है और इस प्रकार का सपना दिखा जाती है।

सूक्ष्मशरीर को देखा नहीं जा सकता है। जिस तरह से हम बिजली को नहीं देख सकते हैं, उसी तरह से हमारे दिमाग में विद्यमान अदृश्य इलेक्ट्रिसिटी का महत्व कम नहीं है। इसी प्रकार पाँच प्राणों से बना हुआ हमारा सूक्ष्मशरीर भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। अपना स्थूलशरीर जो हमें बाहर से दिखाई देता है और जो खाता-पीता है, टट्टी-पेशाब करता है, राग-द्वेष करता है, उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना कि सूक्ष्मशरीर। अगर हम अन्दर वाले इस शरीर को विकसित कर लें तो हम शक्तिशाली हो सकते हैं। यह मनुष्य का भीतर वाला माद्दा है, जो अध्यात्म का बहुत ही महत्वपूर्ण माद्दा है, हिस्सा है। यही संसार को प्रभावित करता है और चमत्कार दिखलाता है। इसे हम 'सूक्ष्मशरीर' कहते हैं। यह बहुत ही महत्वपूर्ण है। एक हमारी फिजिकल बॉडी है, जो हमें बाहर से दिखलाई पड़ती है, जिसे हम स्थूलशरीर कहते हैं। उसके बाद हमारा सूक्ष्मशरीर है, जो बहुत ही शक्तिशाली एवं महत्वपूर्ण है।

अगर हम अपने खानदान के बारे में जान लें तो हमें अपने बारे में पूरी जानकारी मिल जाती है। उसी प्रकार हमारे अन्दर एक से बढ़कर एक शक्तिशाली शरीर भरा पड़ा है, कोष भरे पड़े हैं, जखीरा भरा पड़ा है। अगर उसे हम जान सके तो दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति बन सकते हैं। वास्तव में मनुष्य को इसी वास्तविक सम्पदा के बारे में जानकारी होनी चाहिए। हम जो पाँच देवताओं की उपासना करते हैं, वह वस्तुतः अपने भीतर की, व्यक्तित्व के विकास की उपासना है। हमें न तो भगवान के सामने नाक रगड़ने की आवश्यकता है और न पूजा करने की आवश्यकता है। बिजली के बारे में जिनको जानकारी होती है वे घर में बैठे रहकर उसके बटन दबाते रहते हैं, जिससे घर के पंखे चलते रहते हैं, बल्ब जलते रहते हैं। अतः उस बिजली के बारे में भी आपको सही जानकारी होनी चाहिए।

मित्रो! आपको हम यह बतलाना चाहते हैं कि हम भगवान की उपासना छोड़कर अगर अपने व्यक्तित्व का विकास करने का प्रयास करें, अपने आप का सुधार करने का प्रयास करें तो यह जीवन स्वर्गमय हो सकता है तथा हम सारी चीजें प्राप्त कर सकते हैं। उस परिस्थिति में मनुष्य देवता बन जाता है, पैगम्बर बन जाता है। यह कार्य अपने आपको परिष्कृत करने से ही संभव होता है। अध्यात्म खुशामद करने का, नाक रगड़ने का नाम नहीं है। वास्तव में इसके लिए मनुष्य को तपाने की आवश्यकता है। तपाने से सोना तथा लोहा साफ हो जाता है। तपाने से पानी स्टीम-भाप बन जाता है। आप को भी तप करने की आवश्यकता है, इसके लिए आपको छोटे-छोटे सिद्धान्तों का परिपालन करने, अभ्यास में उतारने की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए, अस्वाद व्रत रखने का प्रयास करें। आप नमक एवं शक्कर का त्याग करें। अगर जीभ पर कण्ट्रोल कर लिया तो आप सब चीजें प्राप्त कर सकते हैं। यह बहुत ही खराब है, सबको परेशान करती है। जीभ पर कण्ट्रोल करना स्वास्थ्य के लिए भी हितकर है।

इसी तरह वाणी पर संयम रखें। बोलने से पहले यह सोचें कि हम जो कुछ बोलने जा रहे हैं, सामने वाले पर उसका क्या प्रभाव पड़ेगा। आपको इसके लिए मौन धारण करने की आवश्यकता है। कम-से-कम प्रतिदिन दो घंटे के लिए मौन रहने का प्रयास करें। आप इसे सुबह या शाम ही रखें, पर रखें अवश्य। इससे वाणी में तेजस्विता आती है। वाक्युद्ध न हो, इसके लिए भी मौन व्रत का पालन करने की आवश्यकता है। आहार का भी संयम होना चाहिए और वाणी का भी।

वाणी-संयम के साथ अन्य इंद्रिय-संयम भी जुड़े हुए हैं। इसके लिए ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। वस्तुतः इसका खण्डन मनुष्य के विचारों के कारण होता है। मन में अगर कुविचार आ रहे हैं, तो उसके विपरीत उलटे विचार करना शुरू कर दें। अगर कामवासना के विचार आते तो भीष्म पितामह, हनुमान आदि को याद करें। उनकी कहानी पढ़ें। इस प्रकार सकारात्मक चिन्तन से अपने विचारों को बदला जा सकता है। बुरे विचारों को बदला जा सकता है। बुरे विचारों को हटाकर उसके स्थान पर दूसरे सुन्दर विचारों को अपने मन में स्थान दीजिए। इस प्रकार पवित्र-निर्मल बनकर उस महान शक्ति को अपव्यय होने से रोकें, जो कि जीवन की एक महत्वपूर्ण शक्ति है। ब्रह्मचर्य एक महान तप है।

पैसों का अपव्यय न करें। आप जो पैसा खर्च करते हैं, उसको बड़े ही संयमी भाव से खर्च करें। खर्च करने से पहले हजार बार सोचें कि क्या इस चीज की वास्तव में आवश्यकता है या नहीं? क्या इसके बिना काम नहीं चल सकता? इस तरह पैसे पर नियंत्रण रखा जा सकता है और अपव्यय से भी बचा जा सकता है।

समय का संयम सबसे महत्वपूर्ण तप है। इस संसार में जो भी महापुरुष हुए हैं, उन्होंने अपने समय को, काल को पाटी से बाँधकर रखा था। आप टाइम टेबल बनाकर काम करें। अपने विचारों को कण्ट्रोल करना सीखें। इस संसार में जो भी व्यक्ति सफल हुए हैं, उन्होंने अपने विचारों को नियंत्रित रखा है। जिस काम को करना अनिवार्य है, उसे अवश्य पूरा करें। इससे भी आपको लाभ ही होगा।

इस प्रकार की छोटी-छोटी तप-साधना ब्रह्मवर्चस् की साधना, प्रज्ञायोग की साधना के द्वारा आप अपने विचारों को, अपने अंतरंग को अधिक शुद्ध एवं पवित्र बना सकते हैं तथा जीवन के- प्रगति के सोपान को पार कर सकते हैं। आज की बात समाप्त।॥ ( शान्तिः॥


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