समय की विषमता-सामूहिक साधना की अनिवार्यता

February 1999

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समस्याओं के आध्यात्मिक समाधान के लिए सामूहिक प्रयास अनिवार्य हो जाते हैं। भौतिक क्षेत्र में तो ऐसा हो सकता है कि तोप का एक बड़ा गोला सौ गोलियों जितना काम कर दे, किन्तु अध्यात्म क्षेत्र में ऐसा सम्भव नहीं है। यहाँ तो एक बड़ी मशाल की तुलना में सौ दीपकों का महत्व अधिक माना जाता है। हालाँकि भौतिक क्षेत्र में भी छोटी-छोटी इकाइयाँ मिलकर एक बड़ी संरचना बनने की बात को सर्वथा नकारा नहीं जा सकता। रुई का एक गट्ठा मरोड़कर वैसा मजबूत रस्सा नहीं बनाया जा सकता जैसा कि पतले-पतले धागों के संयोग से बनता है। सभी को मालूम है, बड़े मकान की संरचना छोटी-छोटी ईंटों के मिलने से होती है। लघु कणों के सम्मिश्रण से ही पदार्थ बृहदाकार ग्रहण करते हैं। चक्रवात की तुलना में हवा के छोटे-छोटे झोंके सन्तुलन-सामंजस्य बनाए रखते हैं। समुद्र की शोभा और छोटी कही जाने वाली लहरों के सामूहिक प्रयास पर टिकी होती हैं।

सामयिक विषमताओं-विपन्नताओं के समाधान का स्वरूप जब भी बन पड़ेगा, वह सामूहिकता के बलबूते ही संभव होगा। ये विषमताएँ दिखती भर दृश्य हैं, किन्तु इनकी जड़े कहीं गहरे अदृश्य में है। सामान्य क्रम में व्यक्ति और समाज के सम्मुख प्रतिकूलताओं, कठिनाइयों व समस्याओं के समाधान, निराकरण और अभिवर्धन के कड़वे-मीठे उपचार करने और साधन जुटाने होते हैं। प्रताड़ना और सहायता अपना-अपना काम करती हैं, इतने पर भी परोक्ष वातावरण की अनुकूलता-प्रतिकूलता की सफलता-असफलता बहुत कुछ निर्भर रहती है। विज्ञजन उस सम्बन्ध में भी जरूरी ध्यान रखते हैं। फसल उगाने के लिए वर्षाऋतु की प्रतीक्षा करते हैं अथवा अन्य उपायों से खेत को नम रखने का प्रबन्ध करते हैं। परोक्ष के सम्बन्ध में उपेक्षा बरतने से काम चलता नहीं। साधनों की तरह पराक्रम का भी, परिस्थितियों की तरह भावनाओं का भी ध्यान रखना होता है। अदृश्य, दृश्य से किसी भी कीमत में कम महत्वपूर्ण नहीं है। आज की परिस्थितियों के सम्बन्ध में तो यह और भी अधिक आवश्यक है। युगपरिवर्तन जैसे व्यापक और विशद प्रयोजन में तो दृश्य से भी कहीं अधिक अदृश्य का योगदान रहता है।

इस अदृश्य परिशोधन की सामयिक आवश्यकता पूरी करने के लिए आदर्शवादी भावनाशीलों की संयुक्त तप-सामर्थ्य सदा अपेक्षित रही है। उसका कोई और विकल्प नहीं हो सकता है। सीता अवतरण के लिए ऋषियों का एक-एक बूँद रक्त संग्रह करके घड़ा भरा गया था, जिसे हल चलाते समय राजर्षि जनक ने खेत में पड़ा पाया था। यह प्रयोजन एक व्यक्ति का सिर काट कर रक्त से घड़ा भर लेने से पूरा नहीं हो सकता था। उससे प्राणवानों की संयुक्त शक्ति वाला उद्देश्य कभी पूरा नहीं हो सकता था। यही बात दुर्गा अवतरण के सम्बन्ध में भी है। सभी देवताओं की संयुक्त शक्ति से प्रजापति ने महाकाली की संरचना की थीं। इन्द्र-कुबेर जैसे एक-दो वरिष्ठों को मिला देने भर से वह कार्य पूरा नहीं हो सकता था।

एक प्रकृति की अनेक प्राणवान इकाइयों को एक लक्ष्य के लिए नियोजित कर देने पर कितनी प्रचण्ड शक्ति उत्पन्न होती है, उसे सभी विज्ञजन भली-भाँति जानते हैं। प्रजापति ने ऋषि रक्त की बूँद-बूँद संग्रह करके घड़ा भरने का इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए परामर्श दिया था। दुर्गावतरण में देवशक्तियों की थोड़ी-थोड़ी शक्ति का संग्रह करने का प्रबन्ध भी इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए किया गया था।

राम-लक्ष्मण में बल कम न था। समुद्र को सुखा देने वाले बाण के धनी राम, रावण को आसानी से मार सकते थे। पर्वत को उखाड़ने वाले हनुमान लंका को भी पानी में डुबा सकते थे, किन्तु यह पर्याप्त न समझा गया। व्यवस्था यह बनी कि अधिक संख्या में रीछ-वानरों की उमंगों का संचय करके समन्वित प्राणशक्ति का उद्भव किया जाय। यह महत्वपूर्ण कार्यों के लिए नीति निर्धारण भी है, साथ ही प्राणवानों की संयुक्त शक्ति से उत्पन्न होने वाली प्रचण्ड क्षमता का रहस्योद्घाटन भी। भगवान कृष्ण क्या नहीं कर सकते थे। जरासन्ध, कंस और शिशुपाल की तरह वे कौरवों से अकेले निपट सकते थे, पर महाभारत में उन्होंने बड़े प्रयत्न से सहयोग जुटाया था। इतना ही नहीं उन्होंने गोवर्धन तक ग्वाल-बालों की समन्वित शक्ति से उठा तो अकेले भी सकते थे।

परशुराम के एकाकी प्रयत्नों का नगण्य परिणाम देखते हुए महात्मा बुद्ध ने दूसरी नीति अपनायी-यों दोनों के सामने एक ही जैसी समस्या थी। बुद्ध भी भगवान थे। परशुराम तीन कला के तो बुद्ध बीस कला के। फरसा वे भी उठा सकते थे, पर वे महान एवं व्यापक प्रयोजनों के लिए प्राणवानों की संयुक्त शक्ति का प्रयोग करने के पक्ष में रहे और उन्होंने चीवरधारी परिव्राजक स्तर के नर-नारियों की एक समर्थ विश्ववाहिनी खड़ी की। विश्व के कोने-कोने इसी प्रकार हो सका। शंकराचार्य ने भी बाद के समय में सामूहिक पुरुषार्थ का मर्म समझते हुए भारतीय संस्कृति के विकास हेतु दशनामी विशाल संन्यासी समुदाय का गठन किया।

पुराने जमाने में राजाओं के मल्लयुद्धों में थोड़े-से लोग हार-जीत का फैसला कर लेते थे और राज्य बदल जाते थे। गाँधी जी और अँगरेजों के बीच मल्लयुद्ध नहीं रचा गया। जनजागरण, जन समर्थन और जनसहयोग की संयुक्त शक्ति को उभारा गया और उस तूफान के सामने सर्वसमर्थ समझी जाने वाली सत्ता भी टिक न सकी। गाँधी की जीत का रहस्य इतना ही है कि उन्होंने देश के मणिमुक्तकों, साहसियों को कोने-कोने से ढूँढ़ निकाला और उन्हें एकजुट करके इतना बड़ा शक्तिपुंज एकत्रित किया, जिसने द्वितीय विश्वयुद्ध में जीतने वाले ब्रिटिश साम्राज्य को बुरी तरह पछाड़ दिया।

अवांछनीयताओं से लोहा लेने के लिए ही नहीं सृजन प्रयोजनों के लिए भी संयुक्त प्राणशक्ति का समय-समय पर प्रयोग होता रहा है। भगवान बुद्ध के समय एक लड़की ने जन-जन की अन्तः उदारता जगाने का व्रत लिया और उस आधार पर दुर्भिक्ष पीड़ित बालकों की प्राण रक्षा का ऐतिहासिक कार्य कर दिखाया। समुद्र का पुल बाँधने में रीछ-वानरों के तनिक-तनिक से सहयोग से कितना काम बन पड़ा, यह सर्वविदित है। देवर्षि नारद जन-जागरण के लिए निरन्तर परिभ्रमण करते थे। सूत जी सैनिकों को स्थान-स्थान पर एकत्रित करके प्रयत्नरत होने का प्रशिक्षण देते थे। ऋषि प्रणीत तीर्थस्थानों और बुद्ध कालीन विहार-संघारामों में सदाशयता की संयुक्त शक्ति को एकत्रित एवं प्रशिक्षित किया जाता था। भूतकाल के महान इतिहास की, भारत की साँस्कृतिक गरिमा की पृष्ठभूमि इसी आधार पर विनिर्मित हो सकी।

साधना क्षेत्र में यों होती तो व्यक्तिगत एवं एकान्तिक साधनाएँ भी हैं, पर उनका लक्ष्य, प्रयोजन एवं लाभ कर्ता तक ही सीमित रहता है। सर्वजनीन समाधान एवं संवर्द्धन के लिए यदि कोई बड़ा कदम उठाने की आवश्यकता हुई है, तो सदा समन्वित सहयोगी प्रयत्नों की आवश्यकता समझी और पूरी की गई है। राजतन्त्र द्वारा राजसूय यज्ञ ऐसे ही प्रयोजनों के लिए आयोजित किये जाते थे। उन्हें समारोह-सम्मेलन सत्प्रयत्न की भी संज्ञा दी जा सकती है। जो काम विद्वानमण्डली, तपस्वी-परिकर एवं शासक वर्ग अपने सीमित पराक्रम से सम्पन्न नहीं कर सकता था, उसे मध्यवर्ती भावनाशीलों की संयुक्त साधना शक्ति से भली प्रकार सम्पन्न कर लिया जाता था।

इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए ही इस वर्ष वसंत पंचमी से प्रखर साधना वर्ष का शुभारम्भ किया गया है। दिव्यदर्शी आसानी से समझ सकते हैं कि इससे उत्पन्न शक्ति से सामयिक परिस्थितियों से निबटा जा सकता है। इसका समय और विधान तो बहुत बड़ा नहीं है, परंतु प्रभावशीलता व्यापक है। अपने देवपरिवार के परिजन प्रारम्भ से ही साधनापरायण रहे हैं। गायत्री महामंत्र के आधार पर की जाने वाली तप-साधना उनकी रुचि एवं अभ्यास बन चुकी है। इसी साधना प्रक्रिया को उन्हें अधिकाधिक व्यापक बनाना और सामूहिक रूप से करना है। देखने-सुनने में यह प्रयोग बहुत छोटा और महत्त्वहीन-सा लगता है, पर बात ऐसी नहीं है।

संयुक्त प्राणशक्ति के उद्भव के प्रयोग-परिणाम की प्रतिक्रिया निश्चित रूप से असाधारण होती है। समय, श्रम, लक्ष्य एवं उपक्रम के बिखराव से महत्वपूर्ण शक्ति स्रोत भी बँटे-बिखरे व विश्रृंखलित रहते हैं। बिखराव में सामर्थ्य का कितना बिखराव होता है, उसके केन्द्रीकरण से उत्पन्न चमत्कार कितने प्रचण्ड होते हैं, यह सत्य किसी से छिपा नहीं है। वर्तमान प्रखर साधना वर्ष में सम्पन्न किया जाने वाला सामूहिक तप-पुरुषार्थ बिखराव के एकीकरण वाला विराट परिणाम उत्पन्न करने वाला है। साधकों की संकल्प-शक्ति उनकी तप-ऊर्जा का एकत्रीकरण और उसका वर्तमान विभीषिकाओं के समाधान में उपयोग, यही है वह महत्वपूर्ण आधार, जिसके कारण साधना वर्ष में की जाने वाली सामूहिक साधना से उन परिणामों की आशा की गयी है, जो प्रस्तुत विपन्नता से विश्वव्यवस्था को उबार सकें।


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