भारत भूमि बनेगी एक तपोभूमि

February 1999

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आज कल्पना यह की जा रही है कि सारे विश्व को गायत्रीमय बनाया जाय। मानवी आस्थाओं में घुसी अवांछनीयताओं की जड़ों को निकाल बाहर कर उनके स्थान पर सद्विचार-सत्कर्म भावसंवेदनाओं की स्थापना के लिए जिस महाशक्ति की आवश्यकता पड़ रही है, उसी का अवतरण युग शक्ति गायत्री के रूप में हुआ है, यह असंदिग्ध है। आज दुर्भावनाओं का असुर मनुष्य-मनुष्य के मन में, उनकी आस्थाओं में आधिपत्य जमा बैठा है, ऐसे में प्रखरतम-सर्वव्यापी निराकार स्तर की सद्बुद्धि का अवतरण करने वाली सत्ता ही युग परिवर्तनकारी अवतारी-सत्ता का रूप ले सकती है। ऐसी महाशक्ति का प्रादुर्भाव व चतुर्दिक् हो रहा विस्तार इस युग की सबसे बड़ी अलौकिक घटना मानी जा सकती है।

यह एक जाना-माना तथ्य है कि वातावरण में मनुष्य ढलता और बनता है किंतु असत्य यह भी नहीं कि मनुष्य द्वारा भी वातावरण ढाले और बनाये जाते हैं, जिनसे चिरकाल तक प्रवाहित होते रहने वाले संस्कारों की, विचारों की विलक्षण फौज न जाने ब्रह्माण्ड के किस कोने से दौड़ती हुई आती और बादलों की तरह आच्छादित हो जाती है। गायत्री उपासना में असत से सत की ओर अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने की, अज्ञान में ज्ञान की स्थापना की विलक्षण शक्ति है। एकाकी साधना द्वारा वह मात्र जपकर्ता को, साधक को लाभान्वित करती है, तो सामूहिक अनुष्ठानों द्वारा उससे सारा समाज, राष्ट्र एवं युग प्रभावित होता है, इस अकाट्य सत्य से कोई इनकार नहीं कर सकता। आज सारे समाज में अचिन्त्य चिन्तन के कारण दुर्मति-जन्य दुर्गति-नैतिक पतन, लिप्साओं की होड़ एवं क्षुद्र अहंकार रूपी विष जो समा गया है, उसे धोने के लिए गायत्री रूपी सद्ज्ञान एवं यज्ञरूपी सत्कर्म के साथ संस्कारों की पावन त्रिवेणी के विस्तार की क्रान्ति खड़ी करने की आवश्यकता इसीलिए सर्वाधिक पड़ रही है कि इससे कम में आध्यात्मिक वातावरण विनिर्मित होगा नहीं। वातावरण में प्रविष्ट की गयी श्रेष्ठ आस्थाएँ ही इस देश की नहीं, अपितु समूचे विश्व को उत्कृष्टता के प्रति निष्ठावान् बनाए रख सकेंगी। वातावरण का प्रभाव सभी भली-भाँति जानते हैं। किसी को श्मशान घाट लाकर खड़ा कर दिया जाय और बताया न जाय कि यह क्या है, तो अनायास भय उसे लगने लगता है। पशुओं को उनके मालिक दिनभर एक स्थान से दूसरे स्थान तक लाते ले जाते रहते हैं, किंतु जैसे ही उन्हें वधगृह की ओर ले जाया जाता है तो उन्हें भी भय से काँपते देखा जा सकता है। श्रवणकुमार जैसे पितृभक्त का मय दानव की भूमि से होकर गुजरते समय सूक्ष्म प्रकम्पनों से प्रभावित हो अपने माता-पिता को काँवर से उतारकर चलना व पुनः उस क्षेत्र से बाहर आकर प्रायश्चित करना, बताता है कि वातावरण में घुसे कुसंस्कार कितने प्रबल होते हैं? इसके विपरीत हिमालय रूपी तपोभूमि, ऋषि-महर्षियों की कर्मस्थली रहे स्थान, तीर्थ परिसर, आश्रम जहाँ सत्प्रवृत्तियों का निर्वाह अभी भी चल रहा हो तथा देवालयों में सूक्ष्म ‘वाइब्रेशन्स’ अति प्रबल-आस्थाएँ जगाने वाले होते हैं। हिमालय में सभी अवतारों ने, ऋषि-महर्षियों ने तप किया है, तभी तो उसे अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र माना गया है। इन संस्कारों का ही प्रतिफल है कि तमाम आधुनिकताओं के प्रवेश के बावजूद आज भी इस प्रदेश में पहुँचने वालों में श्रद्धा और भक्ति-भावनाएँ उमड़ती देखी जाती हैं। वातावरण न केवल शारीरिक स्वास्थ्य, खान-पान वेशभूषा, रहन-सहन को प्रभावित करता है, अपितु उसके सूक्ष्म संस्कारों में मनुष्यों के विचारों और भावनाओं को बदल डालने की जबर्दस्त ताकत निहित होती है। आज से कई वर्ष पूर्व डॉ. ब्रॉनलर द्वारा लिखे एक शोध-प्रबन्ध ‘ब्रेन रेडिएशन' के अनुसार यदि किसी क्षेत्र के लोगों में एक ही तरह के विचारों में अटूट निष्ठा हो तो उनके मस्तिष्कों से निकलने वाले मस्तिष्कीय विकिरण की सघन तरंगों का अनुपात वहाँ बढ़ जाता है व वह चिरकाल तक बना रहता है। इसे पिछले दिनों ‘आयडियोस्फियर’ नाम भी दिया गया है। जब यह समष्टिगत होकर विराट मन का रूप लेता है, तो उस क्षेत्र के वातावरण को बड़े जबर्दस्त ढंग से प्रभावित कर वहाँ उसी प्रकार के प्रभामण्डल का निर्माण कर डालता है। प्रस्तुत ‘प्रखर साधना वर्ष’ में संस्कार-महोत्सवों कथा-आयोजनों के पश्चात् आरंभ किए गए साधना-महापुरुषार्थ में यही तथ्य मन में विचार कर बारह वर्षीय युगसंधि महापुरश्चरण को तीव्र गति दी गयी है। इससे वह विराट प्रभामण्डल बनेगा, ऐसा वातावरण बनेगा कि भारत की देवभूमि के संस्कार निश्चित ही जाग्रत होंगे एवं इसके तपोभूमि के रूप में, जाग्रततीर्थ के रूप में स्थापित हो जाने की भवितव्यता सत्य होती दिखाई पड़ने लगेगी।

ग्रामे-ग्रामे यज्ञ, गृहे-गृहे गायत्री उपासना’ के अभियान ने विगत पाँच वर्षों में तेजी से गति पकड़ी है एवं अनीति-अनाचार-अनास्था से विषाक्त होते चले जा रहे वातावरण को परिमार्जित कर और न बिगड़ने देने की दिशा में बहुत कुछ मदद की है। देव-संस्कृति दिग्विजय अभियान के अंतर्गत संपन्न हुए अश्वमेध महायज्ञों की ऊर्जा को सितम्बर-अक्टूबर 1996 से लगातार चल रहे संस्कार महोत्सवों की श्रृंखला ने जन-जन तक पहुँचाया है व अगणित प्राणवानों की ऊर्जा को भली-भाँति मथा है। संस्कारों के प्रचलन-प्रभावशीलता में तेजी आयी है, उससे परिवार संस्था ही नहीं-समाजपरिकर भी प्रभावित हुआ है, पर इतना ही पर्याप्त नहीं है। जब अनास्था का असुर तेजी से पैर पसार रहा हो- भारतीय संस्कृति की मान्यताओं पर अन्तरिक्षीय जगत से लेकर पठन-पाठन तक के माध्यमों, इलेक्ट्रॉनिक व प्रिन्ट मीडिया द्वारा निरन्तर हमला जारी हो तो श्रेष्ठ वातावरण बनाये जाने के प्रयासों को द्रुतगति से क्रियान्वित ही नहीं करना होगा, लोगों को वे सर्वमान्य हो सकें, यह पुरुषार्थ भी करना होगा। जाति-सम्प्रदाय प्रचलनों, रीति-रिवाजों की भिन्नता वाले हमारे राष्ट्र व सारे विश्व में श्रेष्ठ आस्थाओं के प्रति लगन को एक महामारी की तरह फैलाने के लिए ही यह साधना रूपी महासमर आरंभ हुआ था व अंतिम दो वर्षों में उज्ज्वल भविष्य की प्रार्थना के रूप में यह भूमि के चप्पे-चप्पे में फैलने जा रहा है।

सामूहिक रूप से कहीं संकीर्तन चल रहा हो, अखण्ड जप चल रहा हो, रामायण का परायण अथवा अनुष्ठान संपन्न हो रहा हो तो उसका प्रभाव बड़ा व्यापक देखा जाता है। एकाकी उपासना से आदमी का अपना बाह्यान्तर मात्र प्रभावित हो सकता है, अधिक-से-अधिक परिवारजन व पड़ोसी प्रभावित होते देखे जा सकते हैं, किन्तु जब इन प्रेरणाओं को व्यापक रूप से जनशक्ति तक प्रवाहित करना होता है, तो उन्हें सामूहिक रूप देना पड़ता है। गायत्री मंत्र के -धियो यो नः प्रचोदयात्’ में यही शक्ति छिपी पड़ी है- जिसे सामूहिकता के परिप्रेक्ष्य में ही समझा जा सकता है। ‘धियः’ अर्थात् हमारी, प्रचोदयात्, अर्थात् बलात् श्रेष्ठता की ओर प्रवृत्त करना। जहाँ ‘नः’ है, वहाँ व्यक्ति से परे समष्टि का, विराट अहं का सामूहिकता का भाव आ जाता है। जब हम सामूहिकता अनुष्ठान करते हैं, तो इस ‘नः’ में प्रचण्ड शक्ति आ जाती है, क्योंकि कई प्राणवानों की ऊर्जा उसमें समन्वित हो जाती है एवं सारे वातावरण को आंदोलित कर देने की, इच्छित दिशा में मोड़ देने की शक्ति उस अनुष्ठान में पैदा हो जाती है। इसी परिप्रेक्ष्य में, प्रस्तुत साधना वर्ष में केन्द्रों के माध्यम से प्रायः चौबीस हजार से अधिक स्थानों पर एक साथ सामूहिक अखण्ड जप का वसंत पंचमी से शुभारम्भ व इसका प्रतिमाह होते चले जाने वाला संभावित विस्तार एक प्रचण्ड वातावरण बनाने वाला युगान्तरकारी प्रयास, माना जा सकता है। ऐसा प्रयास जिसकी तुलना विगत के किसी साधनात्मक पुरुषार्थ से नहीं की जा सकती।

युद्ध और संकट के समय प्रायः प्रत्येक राष्ट्र में सामूहिक प्रार्थनाएँ आयोजित की जाती हैं। ईसाई धर्म में रविवार को नियत समय पर सब एक साथ बैठकर ईश्वर को याद करते हैं। मुस्लिमों में नियत दिन, नियत समय पर सामूहिक नमाज के पीछे भी यही सिद्धान्त कार्य करता देखा जाता है। आज मानवजाति पर छाया संकट किसी विश्वयुद्ध से कम नहीं है। एक युग जाना है-दूसरा नया युग आना है। युगपरिवर्तन के लिए दुष्टता, असुरता, अधर्म और आडम्बरों से लड़ने के लिए जिस महान शक्ति की आवश्यकता हो सकती है, वह दुर्गा से कम नहीं हो सकती। दुर्गा शक्ति देवशक्तियों के संघबद्ध होने की, सामूहिकता की प्रतीक है। इस दृष्टि से गायत्री का सद्बुद्धि की प्रार्थना का उज्ज्वल भविष्य के अवतरण की याचना का विस्तार बड़े व्यापक क्षेत्र में होना अत्यावश्यक है। यही विचार कर प्रस्तुत साधना वर्ष की शुरुआत इस तरह की गयी है। इससे जो वातावरण विनिर्मित होगा, जो अन्तः क्राँति उठ खड़ी होगी, जो अन्तःकरणों में छाये अज्ञान, अंधकार व अशक्ति-अभाव को नष्ट-भ्रष्ट कर एक नयी शक्ति को उपार्जन करेगी। सृजन के पूर्व मानवीय सम्वेदनाओं का मार्ग प्रशस्त करने के लिए सारे वातावरण को गायत्रीमय बनाने के अतिरिक्त और कोई उपाय अब हैं नहीं।

शब्दशक्ति के विज्ञानसम्मत आधार यह बताते हैं कि इस महामंत्र के चौबीस अक्षर, चौबीस महान शक्तियों के मर्मस्थल बीज और शक्तिकोष हैं, जो सारे ब्रह्माण्ड में हलचल मचा देने की शक्ति रखते हैं। स्फोट प्रक्रिया द्वारा ये मानवी व्यक्तित्व में भी ऐसा चमत्कारी परिवर्तन लाते हैं कि चिंतन का प्रवाह भी बदलता देखा जाता है- सभी की मिल- मिल−जुलकर की गयी साधना एक विराट समूहमन का निर्माणाधीन ब्रह्माण्ड में एक नहीं लाखों मिसाइलों का काम करती है। अपने राष्ट्र ने गायत्री मंत्र की उपेक्षा करके अपना वर्चस्व खोया था एवं अब युगऋषि-अवतारी सत्ता के परम पुरुषार्थ से यह श्रेय भारत को ही मिलने जा रहा है कि सारे भारत ही नहीं, विश्वभर में इस मंत्र को चप्पे चप्पे में गूँजता-निनादित होता सुना जाएगा एवं इसी के आधार पर भारत पुनः जगद्गुरु के रूप में स्थापित होने की प्रक्रिया संपन्न करेगा। भारत चक्रवर्ती था- सारे विश्व का मार्गदर्शन करता था, अब चप्पे-चप्पे में साधना शक्ति के गायत्री मंत्र की प्रेरणाओं के समावेश से यह पुनः सारे विश्व का नेतृत्व करेगा, भारतभूमि, देवभूमि-तपोभूमि एक विराट तीर्थ बनेगी, इसमें रंचमात्र भी सन्देह न कर, निज को साधनात्मक पुरुषार्थ में नियोजित कर ही देना चाहिए।


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