राजा विक्रमादित्य एक बार जंगल में आखेट के लिए निकले। वे घने जंगल में भटक गये। साथी भी कहीं मार्ग में छूट गये। निविड़ वन में प्यास के कारण राजा का दम घुटने लगा। कहीं पानी दिखाई नहीं दे रहा था। सामने एक पर्णकुटी पर दृष्टि पड़ी। किसी तरह कुटी तक राजा पहुँचे। भीतर देखा तो एक साधु समाधिमग्न थे। इतने में राजा मूर्च्छित होकर गिर पड़े।
मूर्च्छा दूर हुई तो महाराजा विक्रमादित्य ने देखा वहीं सन्त उसका मुँह धो रहे हैं तथा पंखा झल रहे हैं। होश में आते ही सन्त ने राजा को पानी पिलाया। विस्मयवश राजा ने पूछा-आपने मेरे लिए समाधि क्यों भंग की, अपनी उपासना क्यों बन्द कर दी? सन्त मधुर वाणी में बोले- वत्स! भगवान की इच्छा है कि उनके संसार में कोई दुःखी न रहे। उनकी इच्छा की पूर्ति आवश्यक है। दूसरों की सेवा से ही उपासना सफल होती है।