युगसंध्या के परिप्रेक्ष्य में साधकों से अपेक्षाएँ

February 1999

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गायत्री परिवार के परिजन जिस महान ज्ञान का अवगाहन चिरकाल से करते आ रहे हैं, उसे कार्य-रूप में परिणत करने का अवसर आ पहुँचा है। उत्थान के नाम पर जड़ता की ओर-सफलता के नाम पर सर्वनाश की ओर दौड़ी जाने वाली मानवजाति को इसी प्रकार दौड़ने नहीं दिया जा सकता। सामूहिक आत्महत्या के इस बेताल नृत्य को हम मूकदर्शक बनकर नहीं देख सकते। अपने देवपरिवार के प्रत्येक सदस्य को अपनी विशिष्ट स्थिति का मूल्याँकन करना चाहिए और अपने को विशेष उद्देश्य को लेकर अवतरित हुआ मानना चाहिए।

वे मूर्च्छा में पड़े हुए अथवा दिवास्वप्न देखने वाले जड़मति लोगों को सचेत करने - उन्हें साधना के लिए प्रेरित करने की जिम्मेदारी सम्भालें। आँधी में उड़ते-फिरते रहने वाले पत्तों की तरह उन्हें निष्प्रयोजन इधर-उधर भटकना नहीं है, वरन् समुद्र में खड़े हुए प्रकाश स्तम्भों के समतुल्य बनना है, जो घोर अन्धकार में स्वयं चमकते रहते हैं और अपने प्रकाश से उधर से निकलने वाले जहाजों को डूबने से बचाते हैं। इस लक्ष्य को हमें अपने जीवनक्रम में, दृष्टिकोण में सम्मिलित करना चाहिए और तदनुरूप अपने तपस्वी जीवन की गतिविधियों का निर्धारण करना चाहिए।

यह समय जिसमें हम जी रहे हैं, इतिहास में अतीव मार्मिक है। इन दिनों मानवी-संस्कृति जीवन-मरण के दोराहे पर खड़ी है। लोग बुद्धिभ्रम में बेतरह उलझ गए हैं। व्यक्तिवादी अति संकीर्ण की निकृष्ट मनःस्थिति के दलदल में गरदन तक फँस गया है। जैसे बने वैसे स्वार्थसिद्धि की ललक ने उसे अति घिनौनी अपराधियों जैसी दुष्प्रवृत्तियाँ अपनाए रहने का अभ्यस्त बना दिया है। अविचार और अनाचार का बोलबाला है। इस लोक प्रवाह ने सामाजिक वातावरण को विषाक्त बनाकर रख दिया है। स्नेह-सौजन्य के दर्शन अब कहीं कठिनाई से ही होते हैं। सज्जनता और सहृदयता अब कहने-सुनने की वस्तुएँ भर रह गयी हैं। अविश्वास और आशंका का साम्राज्य छाया हुआ है। आज का मित्र कल का शत्रु सिद्ध न होगा, इसका कोई भरोसा नहीं। मनुष्य की क्षुद्रता किस स्तर तक उभर आयी है, उसे देखते हुए लगता है कि मानवी सभ्यता क्रमशः इस धरती पर से उठती चली जा रही है।

यों शिक्षा, चिकित्सा, व्यवसाय, विज्ञान आदि की इन दिनों भारी वृद्धि हुई हैं और अगणित सुख-साधन उपलब्ध हुए हैं, किन्तु दुर्भावनाओं और दुष्प्रवृत्तियों की वृद्धि और भी अधिक द्रुतगति से हुई हैं। इस दावानल में सर्वजनीन सुख-शान्ति नष्ट-भ्रष्ट होती चली जा रही है। बड़े छोटों को निगल जाने के लिए आतुर बैठें हैं। विश्वयुद्ध की विभीषिकाएँ दिन-दिन सघन होती चली जा रही हैं। आशंका यही बनी रहती है कि कहीं परमाणु बम इस सुन्दर भूलोक को भस्मसात् कर देने का निमित्त न बन जाय और मानवी-सभ्यता का सदा-सर्वदा के लिए अन्त न हो जाय।

व्यक्ति और समाज किस प्रकार विपन्न परिस्थितियों में घिरते चले जा रहे हैं, यह देखकर भय मिश्रित निराशा होती है। हम सचमुच ही जीवन-मरण के दोराहे पर खड़े हैं। एक ओर सर्वनाश अट्टहास कर रहा है, दूसरी और मानवता सहमी खड़ी है। मरण ने अपना सरंजाम पूरे ठाट-बाट से खड़ा कर लिया है। जीवन इस असमंजस में घिरा खड़ा है कि हमारा क्या होना है? हमारा अस्तित्व अगले दिन तक रहना है या उसके इतिश्री होने की घड़ी आ पहुँची। जिस राह पर व्यक्ति और समाज ने चलने की ठान ली है, वह अत्यन्त भयावह है। हर क्षेत्र की हर स्थिति उलझती चली जा रही है और गतिरोध ने आगे बढ़ने का रास्ता बन्द कर दिया है। विवेक किंकर्तव्यविमूढ़ होकर हत प्रभ बना खड़ा है। सूझ नहीं पड़ता आगे क्या होना है अथवा क्या किया जाना है?

समय की इस विषम वेला में जाग्रत आत्माओं का विशेष कर्तव्य है। गायत्री परिवार को इस आपत्तिकाल में अपनी विशेष भूमिका निभानी है। उन्हें सामान्य नरपामरों की तरह नहीं जीना है। अपनी प्रतिभा को उसी कीचड़ में नहीं सड़ाना है, जिसमें कि सर्वनाश के गर्त में गिरने वाली अन्धी भेड़ें दौड़ती हुई चली आ रही हैं। हमें अपनी विशिष्ट स्थिति का अनुभव बार-बार करना चाहिए। ऊँचा उठकर बार-बार सोचना चाहिए और ऐसा कुछ करना चाहिए, जिसमें तपस्वी जीवन के आदर्शों का निर्वाह होता हो। युग की उलझी हुई समस्याओं को सुलझाने में हमें कुछ आध्यात्मिक पुरुषार्थ तो करना ही होगा। अपनी जाग्रति का परिचय दिए बिना अब काम चलेगा नहीं। प्रहरी सोते रहेंगे तो दस्युओं के आतंक वाली अंधकार भरी निशा में कुछ भी हो सकता है और ऐसा हो सकता है, जिसका परिमार्जन करने का समय फिर कभी आए ही नहीं।

आत्मा, परमात्मा और कर्तव्य के प्रति हमारी जो जिम्मेदारियाँ हैं, उन्हें पूरा करने के लिए इस वर्ष से बढ़कर परीक्षा की घड़ियाँ फिर कभी आने वाली नहीं हैं। घटनाचक्र जिस क्रम से घूम रहा है, उसे यथावत चलने दिया गया तो चिरप्रयासों से उपार्जित मानव सभ्यता का अता-पता मिलना कठिन हो जाएगा-हम कितने ही उन्नतिशील कहे जाएँ-वस्तुतः नरपशु मात्र रह जाएँगे। स्नेह सौहार्द्र को, आदर्शवादिता को खोकर हम भले ही कुछ क्यों न बन जाएँ, मनुष्य कहलाने योग्य तो रह ही नहीं जाएँगे। वर्तमान वर्ष की उथल-पुथल पर आध्यात्मिक शक्तियों का नियंत्रण न रह सका तो इस व्यापक उच्छृंखलता का आना इतना भयावह होगा, जिसकी कल्पना मात्र से अन्तरात्मा रोमांचित हो जाती है।

यों मनुष्य मात्र का कर्तव्य है कि विश्वसंकट की इस घड़ी में अपने सामान्य क्रम में कठिनाई उत्पन्न करके भी सामूहिक सुरक्षा के आध्यात्मिक प्रयासों में भावनापूर्वक भाग लें। आखिरकार आपत्तिकाल की अग्निपरीक्षा का समय आने पर सभी को अपने विशेष कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। परन्तु गायत्री परिवार के सदस्यों की स्थिति अन्यों से कहीं भिन्न और कई गुना ऊँची है। उन्हें प्रयास पूर्वक मणिमुक्तकों की तरह संग्रह करके एवं अदृश्य सत्ता की इच्छानुसार एक बहुमूल्य माला की तरह पिरोया गया है। उसे युग अवतार के गले का हीरक हार बनना है। रावण युग की विकृतियों के समाधान के लिए रीछ-वानरों ने जो भूमिका सम्पादित की, कंस और दुर्योधन के अनाचार को निरस्त करने के लिए ग्वाल-बालों एवं पाण्डवों ने जो रीति-नीति अपनायी, ठीक वही हमें करना है। प्रश्न न्यून शक्ति का, स्वल्प योग्यता का, साधनों के अभाव का नहीं-महत्व भावनाओं के उभरते हुए स्तर का है। यदि हममें समय की विषमता से जूझने का उत्साह हो तो संगठित तप-साधना को अपनाकर हम इस सर्वनाशी प्रवाह को रोक सकते हैं, जो इन दिनों विश्व-मानव का भविष्य सदा के लिए अन्धकारमय बनाने के लिए आ खड़ा हुआ है।

गायत्री परिवार के हर सदस्य को यह अनुभव करना चाहिए कि वह स्वयं में एक असामान्य सत्ता है, असामान्य काल में असामान्य कर्तव्यों का पालन करने के लिए जन्मा है। उसने जिस उद्देश्य के लिए जन्म लिया है, वह घड़ी अब आ पहुँची है। इस महत्वपूर्ण समय में ऐतिहासिक उत्तर-दायित्व के निर्वाह के लिए व्यक्तिगत और पारिवारिक महत्त्वाकाँक्षाओं का उन्माद अब कुछ समय के लिए ढीला कर देना चाहिए। यह समय न धनी आदमी बनने का है और न बड़ा आदमी बनने का। यह तो तपस्वी जीवनयापन करने का पुण्य क्षण है। तप शक्ति से ही उस प्रवाह को रोका जा सकता है, जो बाढ़ की तरह उफनता चला आ रहा है। यदि इसे रोका न जा सका तो ऐसा विप्लव सामने आएगा कि बड़प्पन और सम्पन्नता नाम की चीजें ढूँढ़े न मिलेगी और यदि युग परिवर्तित हो गया तो हमें न सही हमारे उत्तराधिकारियों को वह स्थिति जरूर मिल जाएगी, जो आज के हमारे प्रयासों की अपेक्षा कहीं अधिक उच्चस्तर की होगी। हममें से प्रत्येक का परम पवित्र कर्तव्य है कि जिस गायत्री साधना के प्रति हमारा सहज रुझान है, उसके प्रति निष्ठा और वफादारी का परिचय हम दें।

प्रातः सायं के सन्ध्याकाल में हम साँसारिक काम-धाम छोड़कर कुछ देर के लिए गायत्री उपासना में अपने को लगाते हैं। इस युगसंध्या में भौतिक महत्त्वाकाँक्षाओं की आपाधापी पर नियंत्रण करके जीवित रहने भर के लिए आवश्यक निर्वाह की व्यवस्था बनाकर तप-साधना में स्वयं प्रवृत्त होने और अन्यों को इसके लिए प्रेरित करने की बात सोचनी चाहिए।

यह भूलना नहीं चाहिए कि यह वर्ष प्रखर साधना वर्ष है। अपने संगठन के हर स्तर पर साधनात्मक गतिविधियों को इस वर्ष विशेष रूप प्रमुखता देनी होगी। यदि हम सामूहिक तप की ओर उन्मुख और सक्रिय हो सकें तो व्यक्ति, समाज और विश्वहित में हम लोग बहुत काम कर सकते हैं। ‘मनुष्य में देवत्व और धरती पर स्वर्ग अवतरण’ के अभियान की अग्रिम पंक्ति में खड़ा होने का अवसर सामने है। अपने देवपरिवार के निष्ठावान् सदस्यों को निम्नस्तरीय गतिविधियों से इनकार करके साहसपूर्वक तप-साधना के लिए विश्वामित्र एवं दधिचि की भाँति ऐसे कदम बढ़ाने चाहिए, जिसके लिए उनका अवतरण इन विशिष्ट घड़ियों में विशेष रूप से हुआ है।


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