शास्त्रार्थ, जिसकी परिणति हुई साधना के भारतव्यापी विस्तार में

February 1999

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मिथिलाँचल में प्रवेश करते ही आचार्यश्री के मुखमण्डल पर हमेशा छायी रहने वाली अलौकिक दीप्ति और भी अधिक सघन हो गयी। कुछ ऐसा लग रहा था, माने आचार्य इस समूचे अंचल में सूक्ष्मरूप से व्याप्त विदेह राजा जनक की ज्ञानचेतना एवं जगन्माता सीता के दिव्य वात्सल्य की प्रखर अनुभूति में निमग्न हो गए हों। उनके साथ शिष्य वर्ग था, जिसने अपनी आँखों से आचार्य की चमत्कार भरी घटनाएँ देखी थीं। मार्ग में अब तक जो भी राजा महाराजा या विद्वान-मण्डली मिली थी, सभी ने उनके श्रीचरणों में अपनी भावभरी श्रद्धा निवेदित की थी। जिन शिष्यों ने निकट संपर्क में रहकर आचार्य की घोर तपस्या, अगाध विद्वत्ता का अनुभव किया था, वे भगवत्पाद शंकराचार्य की चमत्कार भरी कहानियाँ सुनाकर सहयात्रियों को मुग्ध करते चले आ रहे थे। सारे मिथिलाँचल में आचार्य शंकर की जय-जयकार हो रही थी।

आचार्य के दिव्य व्यक्तित्व से निकलते अलौकिक तेज से जन-जन मुग्ध था। वे दैनिक चर्या, रहन-सहन खान-पान पूजन-शयन में शास्त्रानुकूल नियमों का इस तरह पालन करते कि कभी कोई भी व्यतिक्रम नहीं हो पाता। प्रातःकाल एक प्रहर रात रहे, उठकर नित्य क्रिया से निवृत्त हो शीतल जल से स्नान करते। इसके बाद संध्या पूजन के अनन्तर ध्यान में निमग्न हो जाते। सूर्योदय होते-होते शिष्य वर्ग नित्य क्रिया से निवृत्त हो इनके पास पहुँच जाता। आचार्य कभी शय्या पर शयन नहीं करते, भूमि पर थोड़े-से पुआल बिछाकर एक सामान्य चादर के द्वारा रात्रि बिता लेते। शीत और ग्रीष्म का उन पर कोई प्रभाव नहीं दिखाई पड़ता, किन्तु अपने सहयात्रियों की सुविधा का पूरा ध्यान रखते। समृद्ध व्यक्तियों, राजा-महाराजाओं के सहयोग से यह यात्री दल निरन्तर सुविधापूर्वक यात्रा करता आया था। आचार्य दिन में केवल एक बार भिक्षा करते। चलते-चलते मार्ग के समीप जो भी गाँव मिल जाता, उसमें किसी एक घर से भिक्षा माँगकर क्षुधा तृप्त कर लेते, किन्तु शिष्यगण तथा अन्य यात्री अपनी-अपनी आवश्यकता के अनुसार भोजन की व्यवस्था बना लेते। मध्याह्न में थोड़ा विश्राम करके सब पुनः आगे बढ़ जाते।

आज भगवत्पाद आचार्य मिथिलाँचल के अत्यन्त रमणीक स्थान सहरसा में ठहरे थे। छोटा होने के बावजूद यह नगर सम्मोहक एवं तीर्थ-चेतना की तरंगों से आप्लावित था। यहाँ से करीब चौदह मील दूर कन्दरा अपने सूर्य मन्दिर के लिए विख्यात था। गायत्री महामंत्र के आराध्य देवता सविता की ऐसी भुवन मोहिनी छवि शायद ही कहीं अन्यत्र मिले। यहाँ से कुछ ही दूर जिसे इन दिनों सिमरी बख्तियारपुर कहते हैं, वहाँ से 5 मील दक्षिण में कोपरिया के पास कात्यायनी का स्थान सुशोभित था। माँ सती की यहाँ दायीं भुजा गिरी थी, तभी से यह स्थान आदिशक्ति की सघन चेतना एवं करुणा का केन्द्र बना हुआ था।

आचार्य के निवास स्थल से करीब 25-30 मील पूर्व में पतरघट नगर में पतरहट्टा विश्वविद्यालय अवस्थित था। इसकी शोभा और गरिमा उन दिनों नालन्दा एवं तक्षशिला से भी कहीं अधिक बढ़ी-चढ़ी थी। इस विश्वविद्यालय के छात्रों एवं आचार्यों ने भी आचार्यश्री की तपस्या एवं विद्वता के बारे में सुन रखा था, सो वे भी बड़ी संख्या में भगवत्पाद शंकराचार्य को प्रणाम करने के लिए आने लगे थे। सभी की एक ही आकांक्षा थी कि उन्हें भी आचार्य की दिव्यवाणी सुनने का सौभाग्य मिले।

आचार्यश्री के पड़ाव से करीब चालीस मील दूर विराट गाँव था। इतिहास विश्रुत है कि यही स्थान कभी महाभारतकालीन महाराज विराट की राजधानी था। यहाँ पर भगवती चण्डिका का भव्य मन्दिर अवस्थित था, जिसके बारे में लोगों ने अनेक जनश्रुतियाँ आचार्यवर को सुनायी। इसके पास ही कीचक का टीला है। लोकोक्ति है कि यहीं पाँडवों ने अपना डेरा डाला था। स्थानीय लोगों का मानना था कि राजा विराट के साले कीचक द्वारा द्रौपदी के साथ दुर्व्यवहार करने पर भीम ने उसे मार गिराया था। वही स्थान ‘कीचक का टीला’ के नाम से विख्यात है। सहरसा के पास ही बनगाँव से उत्तर दिशा में देवणडीह नामक गाँव के बारे में आचार्यश्री को वहाँ के जनसमुदाय ने बतलाया। यहाँ कई एकड़ जमीन में जंगलों से भरा हुआ एक ऊँचा डीह है। डीह के उत्तरी भाग में स्थित बाणेष्वर महादेव का मन्दिर जितना भव्य एवं दिव्य था, उतना ही रहस्यमय भी। बनगाँव से करीब दस मील दूर पश्चिम में कोशी नदी के किनारे कारु खिरहरी का स्थान था। ग्रामीणजन इस स्थान पर जानवरों के बच्चे देने की खुशी में श्रद्धा स्वरूप दूध चढ़ाते हैं। यहाँ हर समय खीर पकती रहती है, जिसे लोग प्रसाद रूप में ग्रहण करते हैं। यहाँ के बारे में लोकमान्यता थी कि कारु खिरहरी के नाम से मनौतियाँ माँगने पर अस्वस्थ जानवर भर निश्चित रूप से स्वस्थ हो जाते हैं।

मिथिला अंचल के इस क्षेत्र के बारे में आचार्यश्री ने बहुत कुछ जाना और बहुत कुछ सुना। जनसमुदाय द्वारा इस स्थान और आस-पास के स्थानों की महिमा-महत्ता को सुनते-सुनते भगवत्पाद आचार्य कहीं अतीत में खो गए। उनके मानस चक्षुओं के सामने महाविरागी-परम साधक अद्भुत कर्मयोगी महाराज जनक का जीवन स्पष्ट होने लगा। वे सोचने लगे- भरतखण्ड को आज ऐसे ही साधकों की आवश्यकता है, जो विश्वामित्र, याज्ञवल्क्य जैसे महासिद्धों की कृपा, करुणा एवं तेजस्विता को अपने में मूर्त कर सकें। साधनापरायण होकर औरों को भी अपने ही जैसा साधक बना सकें। आचार्य शंकर न जाने कब तक अपने इन मनोभावों में खोए रहते कि इतने में ही एक तेजस्वी तरुण ने उन्हें प्रणाम करते हुए उनके ध्यान को यथार्थ की ओर आकर्षित किया। यह वही तरुण था, जिसने आचार्यश्री के भोजन एवं निवास की व्यवस्था की थी। आचार्य इसकी अध्यात्म साधना के प्रति अपूर्व श्रद्धा से आह्लादित थे। उनकी सोच थी कि राष्ट्र का युवा यदि साधना में अभिरुचि रखे- तपस्वी एवं मनीषी बने, तो फिर भारतवर्ष को विश्वगुरु बनते देर नहीं लगेगी।

उन्होंने आगन्तुक युवक की ओर प्रश्नवाचक मुद्रा में देखा। आशय समझ कर युवक ने कहना शुरू किया- कल आप महिष्मती (महिषी) की ओर प्रस्थान करने वाले हैं, आचार्य प्रवर! यदि आपका अनुग्रह एवं आदेश हो तो मैं भी आपके साथ चलूँ। महिष्मती यहाँ से 17 मील दूर अवस्थित था। कुमारिल भट्ट के मेधावी शिष्य मण्डनमिश्र का निवासस्थान होने के कारण यह स्थान समूचे देश में विख्यात हो चला था। आचार्यश्री मण्डन मिश्र के नाम से जाने जाने वाले पं. विश्वरूप से मिलने के विशेष उद्देश्य से ही मिथिलाँचल पधारे थे। विश्वरूप की पत्नी देवी भारती भी अपूर्व विदुषी थी। जनसामान्य तो उन्हें विद्या एवं कला कला की देवी भगवती सरस्वती के रूप में मानता एवं सम्मान करता था। वे दम्पत्ति इस समूचे क्षेत्र का गौरव थे। आचार्यश्री का विचार था कि यदि महान प्रतिभा के धनी ये दोनों उच्च साधक बन सके तो समूचे राष्ट्र में आध्यात्मिक साधना का वातावरण पैदा किया जा सकता है।

इनके आवास तक पहुँचने के लिए किसी-न-किसी क्षेत्रीय जन की आवश्यकता तो थी ही, सो आचार्य प्रवर ने प्रसन्नतापूर्वक स्वीकृति देते हुए कहा- तुम मेरे साथ चल सकते हो अरुण। इन शब्दों के साथ ही वे पुनः अपने भाव राज्य में निमग्न होने लगे- मनुष्य दुःखी है, किन्तु वह उसका स्वभाव और रूप नहीं जानता। समाज, धर्म, लोक-सबकी मर्यादा है, किन्तु सबसे ऊपर व्यक्ति की मर्यादा है। यदि व्यक्ति सुधर जाएगा तो सब कुछ सुधर जाएगा। आचार्यश्री को अपने भाव राज्य में विलीन होते देख युवा साधक अरुण ने उनसे प्रणाम करते हुए विदा ली। सभी को अगले दिन की प्रतीक्षा थी।

प्रातः होते ही सभी उनके पास आ जुटे। भगवत्पाद शंकराचार्य के नेत्रों में असीम करुणा जाग उठी। एक दिव्यरागिणी के समान आकाश में ऊषा उदित हुई। वह उठ खड़े हुए। वह ऐसे भव्य ज्योतित गौरव थे, जैसे सहस्रों शताब्दियों का जय-जयकार पुञ्जीभूत होकर साकार करुणा, दया और क्षमा बनकर खड़ा हो गया हो। यह दर्शन की क्षुद्र सीमाओं में बँधने वाला नहीं, वरन् उससे भी ऊपर मनुष्यत्व का उन्नत व्यक्तित्व था, जो अपने लिए नहीं दूसरों के लिए जीवित रहना चाहता था। यह था वह व्यक्ति, जिसने ईश्वर को सर्वव्यापी परम चेतना के रूप में निराकार एवं सद्गुणों के समुच्चय के रूप साकार- दोनों ही स्वरूप में अनुभव किया था। जिसने अध्यात्म के शीर्ष पर पहुँचकर सोचा था-लोक की आर्तावस्था को मैं दूर करूँगा। उन्हें वासना के महापंक से निकालकर आत्मबल सम्पन्न साधक के रूप में गढूँगा।

वह धीरे-धीरे चल पड़े। उनके पाँव धीर-गम्भीर गति से उठने लगे। आचार्यश्री के पाँव माने पृथ्वी की धूलि में इस क्षणिक जीवन की पर्तों पर अमरता का जीवित संदेश लिखने के लिए बढ़ चले थे। यात्रा अविराम रही और वे अपने शिष्यों एवं युवा साधक अरुण के साथ महिष्मती आ पहुँचे। प्रातः नित्य-नियम के अनुसार पूजा-अर्चन एवं ध्यान के उपरान्त मंडनमिश्र के निवासस्थान की खोज करते हुए चले गए। खोजते-खोजते मध्याह्न वेला आ गयी।

आचार्य के शिष्य पद्मपाद ने एक पनघट पर खड़ी पनिहारिनों को देखकर पूछा कि मंडनमिश्र के घर का मार्ग कौन है? एक परिहास प्रिय पनिहारिन मुसकराते हुए बोली- क्यों युवा संन्यासी क्या आप परदेश से आ रहे हैं? इस देश में भला ऐसा कौन है जो पंडित समाज को मंडित करने वाले उस मंडनमिश्र को नहीं जानता, जिनके द्वार पर पिंजरों में बैठी सारिकाएँ जगत के नित्य और अनित्य अथवा अनित्यानित्य होने के प्रश्न पर निरन्तर विचार करती रहती हैं। आपको स्वतः ‘प्रमाणं परतः प्रमाणं’ पर विवाद करने वाली सारिकाएँ जहाँ दिखाई पड़ें, समझ लीजिए वही मण्डनमिश्र का विशाल राजप्रासाद है।

पद्मपाद ने आचार्य के समीप पहुँचकर जब पनिहारिनों का वृत्तान्त कहा तो वे किंचित् मुस्कराए और अपनी भव्यगति से उस ओर चल पड़े जिधर मण्डनमिश्र का आवास था। आवास के द्वार पर पहुँचकर आचार्यश्री ने द्वारपाल से मण्डनमिश्र से मिलने की इच्छा जतायी। काफी देर के बाद पं. मण्डनमिश्र द्वार पर आए। उनके मुख पर मनीषी की तेजस्विता नहीं अपितु विद्वान होने का गर्व था। यद्यपि देवी भारती के चेहरे पर विदुषी होने की सहज सौम्यता थी। आचार्यश्री के नेत्रों से निकलने वाली करुणा की धारा ने मंडनमिश्र के दर्प को धूमिल कर दिया। इसी के साथ आचार्य बोले-पंडित प्रवर! मैं आपके साथ विचार-विमर्श के लिए उपस्थित हुआ हूँ। आचार्य कुमारिल भट्ट ने मुझे इसी उद्देश्य से यहाँ भेजा है। यदि आपको मेरे विचार स्वीकार हों, तो आप राष्ट्रहित में मुझे सहयोग दीजिए।

परन्तु हमारे विचार-विमर्श का निर्णायक कौन होगा? मंडनमिश्र ने जानना चाहा। तब आचार्य शंकर ने हँसते हुए मण्डनमिश्र से कहा- सरस्वती स्वरूपा आपकी पत्नी देवीभारती यहाँ विद्यमान हैं। उनसे अधिक योग्य निर्णायक भला कौन मिलेगा? आचार्य की इस अद्भुत उदारता एवं हृदय की अभूतपूर्व विशालता ने उन दोनों को मुग्ध कर दिया।

परन्तु भारती के सामने एक विकट समस्या खड़ी हो गयी। वह मन में सोचने लगी कि मैं निर्णय किस तरह दे पाऊँगी? यदि पति देव की पराजय होती है तो उन्हें परिव्राजक बनकर आचार्य प्रवर का सहयोग करना पड़ेगा। यदि आचार्य शंकर विजयी नहीं होते तो उन्हें गृहस्थ धर्म में आना पड़ेगा। ये दोनों स्थितियाँ किसी के लिए भी कल्याणकारी न होंगी। आचार्य देवी भारती की समस्या समझ गए। वह भारती को आश्वस्त करते हुए बोले- देवी भारती! ईश्वर में विश्वास रखकर जो कार्य किया जाता है, उसका परिणाम सबके लिए कल्याणकारी होता है। तुम क्यों व्यर्थ चिन्ता कर रही हो? मंगलमय प्रभु सब प्रकार मंगल ही करेंगे।

अगले दिन अरुणोदय के साथ ही शास्त्रार्थ की अपूर्व घड़ी आ गयी। एक ओर आचार्य शंकर थे, जिनकी रगों में राष्ट्र की पीड़ा प्राण-प्रवाह एवं रक्तप्रवाह बनकर प्रवाहित थी। उनका हृदय देश के निवासियों की पीड़ा एवं दुर्दशा से कातर था। उनमें अहं का लेश भी न था। दूसरी ओर महापण्डित मण्डनमिश्र थे, जो वैभववान् विद्वान होते हुए भी स्वकेंद्रित थे। उनका हृदय धड़कता तो था, पर इन धड़कनों में भारत की व्यथा नहीं, वैभव का स्पन्दन था। मस्तिष्क में तर्क तो थे, पर उनका सत्य के प्रति आग्रह नहीं, स्वयं के पांडित्य का गर्वपूर्ण प्रदर्शन था।

शास्त्रों का प्रयोजन क्या है पंडित प्रवर? आचार्य ने स्नेहिल मुसकान के साथ अपना प्रश्न किया।

‘जीवन नीति का निर्धारण।’ मंडनमिश्र ने संक्षिप्त उत्तर दिया।

और महापंडित आप जानते हैं, जीवन-नीति के नियम युग के अनुरूप निर्धारित होते हैं। शाश्वत तो जीवन लक्ष्य होता है। जीवन नीति तो देश-समाज-परिस्थितियों के अनुरूप, बदलते युग के अनुसार ही होती है। इसका निर्वाह ही युगधर्म है। युगधर्म की व्यापकता में स्वधर्म स्वयमेव समाहित हो जाता है।

आज के युग की परिस्थितियों से आप परिचित हैं पंडित प्रवर! देशवासी अपनी चेतना खोते जा रहे हैं। जाति, धर्म के नाम पर विग्रह-विद्वेष का दावानल धधक रहा है। जन सुप्त है और जननेतृत्व दिशाविहीन। समूचा राष्ट्र आर्थिक एवं बौद्धिक रूप से कंगाल होता जा रहा है। विदेशी शक्तियाँ महाग्राह की तरह राष्ट्रीय अस्तित्व को निगल जाने के लिए प्रयासरत हैं। ऐसे समय में एकमात्र युगधर्म हो सकता है-राष्ट्रीय चेतना का जागरण। यह केवल आत्मसाधना से ही सम्भव है, क्योंकि आत्मसाधना ही राष्ट्रवासियों को उनका खोया चरित्र देगी, उनमें साहस एवं विश्वास का संचार करेगी। उन्हें देवत्व का गौरव वापस दिलाएगी।

आचार्य के शब्दों का आधार बौद्धिक तर्कजाल नहीं, उनके अंतर्मन की पीड़ा थी, जिसने मंडनमिश्र को उद्वेलित कर दिया। आज उनके तर्क भावनाओं के महासागर में तिनकों की तरह बह गए। लेकिन अभी से आचार्य का शिष्यत्व स्वीकार कर पाते कि अगले दिन देवी भारती ने गृहस्थ धर्म सम्बन्धी जिज्ञासाएँ आचार्य के सम्मुख रखीं।

बड़े ही शान्तभाव से भगवत्पाद आचार्य ने उन्हें समझाया-देवी! पति-पत्नी होने का अर्थ मात्र दैहिक मिलन तक सीमित नहीं है, बल्कि विशिष्ट उद्देश्य के लिए आत्मा के विस्तार में शाश्वत-मिलन है। तुम महापंडित की अर्द्धांगिनी हो, अब उनकी आत्मा की अभिन्न सहचरी बनो। इस देश की नारियाँ सदियों से दलित एवं उत्पीड़ित हैं। शताब्दियों से उन्हें मानवीय अधिकारों से वंचित रखा गया है। पुरुष का जन्म देने वाली उसे पालन-पोषण करने के साथ-शिक्षा एवं संस्कार देने वाली नारी उसी के हाथों प्रताड़ित है। क्या इसकी पीड़ा से तुम्हारा हृदय कभी विह्वल नहीं होता?

आचार्य के भावभरे कथन ने देवी भारती के वैदूर्य को भावसंवेदना के महासागर में निमग्न कर दिया। वह पूछने लगी- हमें क्या करना होगा- आचार्य देव।

राष्ट्र की शक्ति नारी को आदिशक्ति की साधना का मर्म समझाना होगा। उसे गायत्री महामंत्र की साधना में दीक्षित करना होगा। गायत्री साधना एवं गायत्री महामंत्र के तत्त्वदर्शन से ही उन्हें अपने स्वरूप एवं शक्ति का भान होगा।

देवी भारती एवं महापण्डित मंडनमिश्र दोनों ही आचार्यश्री के चरणों में नत हो गए। आचार्यप्रवर कह रहे थे-

वाक् वैखरी, शब्दझरी, शास्त्र व्याख्यान कौषलम्। सतु वैदुष्यामे वैदुष्ये न तु मुक्तये॥

अर्थात् शास्त्रों की तर्कपूर्ण सम्मोहक व्याख्या विद्वानों की विद्वता तो बढ़ा सकती है, परन्तु किसी को भवबन्धन से मुक्त नहीं कर सकती। यह तो साधना से ही सम्भव है।

आचार्यश्री के इस अलौकिक उपदेश ने समूचे मिथिलाँचल में गायत्री साधना का ज्वार ला दिया। भगवत्पाद आचार्य स्वयं भी इस पावन भूमि में खड़े होकर गदगद स्वर में कह रहे थे- यहाँ आकर मेरी झोली भर गयी। महादेवी सीता की पुण्यभूमि ने मुझे मण्डनमिश्र जैसा तेजस्वी परिव्राजक दिया है- जो अब से श्रीमतं सुरेष्वराचार्य के नाम से देश विख्यात होंगे। इनकी साधना एवं तपस्या से समूची भारतभूमि गौरवान्वित होगी। ऐसा ही हुआ।


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