जब भगवान बुद्ध आत्मशान्ति की खोज में गृह त्याग कर निकले और आत्मा की प्राप्ति का मार्ग विभिन्न गुरुजनों से उन्होंने पूछा, किन्तु जिज्ञासा यथावत रही तो उनके अन्तः से ही आवाज आयी-तप से अपने भीतर प्रकाश उत्पन्न कर।”
तप-साधना से मैं स्वयं ही उस परम तत्व को जानूँगा और उसे प्राप्त करूँगा-यह संकल्प उन्होंने लिया और वे आत्मबोध को प्राप्त कर बुद्ध कहलाये तथा धर्म चक्र प्रवर्तन जैसे महान कार्य को संपन्न कर सके।
भिक्षुओं को दीक्षा दी जा रही थी। उनके नाम, गोत्र, वेश और स्थान बदले जा रहे थे। अभ्यास के परिवर्तन पर जोर दिया जा रहा था। कारण पूछने पर तथागत ने बताया-साँप जिन दिनों केंचुली से लदा रहता है, उन दिनों न उसे कुछ दीखता है और न ही दौड़ते भी बनता है। केंचुली उतरते ही यह दोनों कठिनाइयाँ चलीं जाती हैं। व्यक्ति का कुसंस्कारी ढर्रा ही उसकी आत्मिक प्रगति में सबसे बड़ा व्यवधान है। इसलिए दीक्षा के रूप में मनःस्थिति परिवर्तन के साथ-साथ परिस्थिति और आदत बदलने के लिए भी कहा जा रहा है।”