व्यक्तिगत जीवन की भगवान महाकाल के साथ साझेदारी

February 1999

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समय आ गया है, जबकि हमें वासना और साधना में से एक को वरण करने के लिए सुनिश्चित फैसला कर लेना चाहिए। अंतर्जगत में देवासुर संग्राम चिरकाल से चलता आ रहा है। अब कोई ऐसा दैवी-अवतरण होना चाहिए, जिससे इस अन्तर्द्वन्द्व के कारण उत्पन्न महाविनाश का अन्त हो सके। हमारे भीतर दो प्रबल तत्व बैठे हैं। एक देवता दूसरा असुर। इस संसार का सृजन ही अन्धकार और प्रकाश के, पतन और उत्थान के, दुःख और सुख के तत्वों से हुआ है। एक से जूझने और दूसरे को अपनाने के लिए जो प्रयत्न करना पड़ता है, उसी के सहारे चेतना और गतिशीलता निखरती है। प्रगति के पथ पर यही दो चरण बढ़ाते हुए लक्ष्य तक पहुँचना सम्भव होता है। इस जड़-चेतन के, तम और सत के, दैत्य और देव के सृजन में स्रष्टा का जो भी प्रयोजन रहा हो-स्थिति वही है। मनुष्य के सामने श्रेय और प्रेय के दो मार्ग सदा से खुले रहे हैं। अपने भाग्य का निर्माता वह इसी कारण कहा गया है कि इन दोनों में से एक का चयन करके वह अपने लिए उत्थान और पतन का पथ प्रशस्त कर सकता है।

मानवी बुद्धि की परीक्षा उसकी दूरदर्शिता और अदूरदर्शिता की कसौटी पर कसी जाती है। एक तात्कालिक प्रलोभन और सदा के लिए विनाश का मार्ग है। दूसरा वह है, जिसमें पहले तो कठिनाइयाँ स्वीकार करनी पड़ती हैं, बाद में चिरस्थायी सुख-शान्ति की व्यवस्था बनती है। जाल में फँसने वाले पक्षी और काँटे में गला फँसाने वाली मछली जैसे जीव अदूरदर्शिता अपनाते हैं। तत्काल के सरल और प्रचुर दिखने वाले प्रयोजन के लिए इतने आतुर हो जाते हैं कि दुष्परिणामों की बात सोच ही नहीं सकते। चाशनी को देखकर टूट पड़ने वाली मक्खी की भी यही दुर्गति होती है। उपभोग की आतुरता में लोग अपना पैसा, स्वास्थ्य, सम्मान, सन्तोष और भविष्य बुरी तरह बिगाड़ते हैं। उन्हें यह दिखाई ही नहीं पड़ता कि सदुद्देश्य अपनाकर श्रेष्ठता की दिशा में चलने वाले आरम्भ में तो कुछ घाटा उठाते, किन्तु अन्ततः प्रगति के उच्च शिखर पर जा पहुँचते हैं।

दोनों ही मार्ग हर विवेकशील के आगे खुले हुए हैं। एक प्रेय का-दूसरा श्रेय का, एक वासना का-दूसरा साधना का, एक मूर्खता का- दूसरा दूरदर्शिता का, एक पतन का- दूसरा उत्थान का; इन दोनों में से एक का चयन करने की चुनौती इन दिनों हर जाग्रत आत्मा के सामने अपेक्षाकृत अधिक मुखर हो सामने आ खड़ी हुई है। दोनों ओर लाभ दिखते हैं और हानि भी। मन भ्रमता-भटकता रहता है। कभी एक को अपनाने की बात सोचता है, कभी दूसरे को। कभी एक को पकड़ता है, कभी दूसरे को। कभी एक छोड़ता है, कभी दूसरे को। इस असमंजस भरी मनःस्थिति को ही देवासुर संग्राम कहा गया है। इसी को अन्तर्द्वन्द्व कहते हैं। जब तक यह स्थिति बनी रहेगी, तब तक कोई चैन से न बैठ सकेगा। अंतर्जगत में चलते रहने के कारण चीत्कार और हाहाकार छाया रहता है। इस स्थिति के रहते किसी को और कुछ भले ही मिल जाय, शान्ति और सन्तोष के दर्शन हो ही नहीं सकेंगे।

इस देवासुर संग्राम का अन्त सामान्य बुद्धि के सहारे नहीं हो सकता। क्योंकि दोनों पक्ष अपनी-अपनी सामर्थ्य और विशेषता के कारण पूर्ण प्रबल हैं। इनमें से किसी की भी क्षमता कम नहीं, कोई हारने वाला नहीं। कभी एक हारेगा, कभी दूसरा। कभी एक की जीत होगी, कभी दूसरे की। विग्रह का अन्त तो तप-साधना के परिणामस्वरूप अवतरित होने वाली भगवत्कृपा ही करती है। पौराणिक गाथाओं में इसी प्रसंग के अनेकों आख्यान हैं। देवासुर संग्रामों के अन्त तभी होते रहे हैं, जब भगवान की शक्ति ने किसी-न-किसी रूप में प्रकट होकर अपना-अपना चमत्कार दिखाया है। इन कथानकों में एक ही तथ्य स्पष्ट है कि श्रेय और प्रेय की खींचतान का अन्त ऋतम्भरा-प्रज्ञा दूरदर्शी विवेकशीलता, साधना के लिए साहस कर सकने वाली प्रखरता के आधार पर ही होता है। जब तक अन्तरात्मा की धरती पर प्रखर तप-साधना के फलस्वरूप अवतरित होने वाली भगवत्कृपा सक्रिय न होगी, तब तक अन्तर्द्वन्द्व से भरी अशान्त मनः स्थिति में विक्षोभ उभरते ही रहेंगे।

युगनिर्माण परिवार के प्रत्येक परिजन के अन्तःकरण में इन दिनों ऐसा ही देवासुर संग्राम प्रचण्ड होता चला जा रहा है। इसे कोई भी दिव्य-चक्षु सम्पन्न व्यक्ति अपनी और अपने पास वाली जाग्रत आत्मा की अन्तःस्थिति का पर्यवेक्षण करके सहज ही देख सकता है। बाह्य जीवन के विग्रह, विद्वेष, झंझट कितने कष्टकारक, कितने चिन्ताजनक, कितने विक्षोभयुक्त होते हैं, इसे हर कोई जानता है। जिनने कभी भी अन्तर्द्वन्द्व का अनुभव किया है कि इससे अधिक उद्विग्नता एवं अशान्ति और कुछ हो नहीं सकती, वे देवासुर संग्राम के दिनों की परिस्थितियों का वर्णन जब पौराणिक आख्यानों में पढ़ते हैं, तो उसकी रोमांचकारी भयानकता सामने आ खड़ी होती है। इसी का एक रूप देखना हो तो जाग्रत आत्माओं के अंतःक्षेत्र में चलने वाले अन्तर्द्वन्द्व की स्थिति का अनुमान लगा लेना चाहिए।

वर्तमान के पल बड़े ही विचित्र हैं। एक ओर भगवान महाकाल अपनी भुजाएँ पसारे, गोदी में चढ़ाने का-छाती से लगाने का आह्वान कर रहे हैं। दूसरी ओर लोभ और मोह के बन्धन हाथों में हथकड़ी, पैरों में बेड़ी की तरह बँधे हैं। अहंता कमर में पड़े रस्सों की तरह जकड़े बैठी है। पीछे लौटें, जहाँ-के-तहाँ रुके पड़े रहें या फिर आगे बढ़ें? ये प्रश्न ऐसे हैं जो अपना समाधान आज ही चाहते हैं। अनिर्णीत स्थिति का असमंजस जाग्रत आत्माओं के लिए क्रमशः असहज ही बनता जाता है। समय आ गया है कि इस महती सामयिक समस्या का कोई समाधान खोज ही लिया जाय। उपेक्षा करते रहने से समय बीतता जाएगा और यह सुरदुर्लभ अवसर सदा के लिए हाथ से चला जाएगा, जो आज सही रीति से समाधान बन जाने पर अभी भी उज्ज्वल भविष्य की संरचना कर सकता है। जो बीत गया वह बहुत था, पर जो शेष रहा है यह भी इतना है कि इसकी बर्बादी यदि रोकी जा सके, जीवनक्रम की वर्तमान दिशाधारा बदली जा सके तो बचे हुए दिनों में भी स्वयं पार होने और दूसरों को अपनी नाव में बिठाकर पार कर सकने की परिस्थिति बन सकती है।

अपने देवपरिवार में सम्मिलित जाग्रत आत्माएँ अपने को फिर से मूर्च्छित कर सकने में सफल न हो सकेंगी। तप-साधना ही उनके लिए एकमात्र मार्ग है। शरीर बढ़ जाने पर फिर शिशु शरीर पा सकना या छोटे कपड़े पहनकर गुजारा कर सकना सम्भव नहीं। असुरता को देर तक सहन करना और देवत्व को देर तक टकराते रहना न तो उनके लिए सम्भव है और न शोभनीय। इससे आत्मा की, परमात्मा की और युगधर्म की अवमानना ही होती रहेगी। ओछा जीवन जीते रहने पर भी चैन से रहा नहीं जा सकेगा।

अच्छा है महेश्वर महाकाल को अपने अन्तःकरण के आँगन में क्रीड़ा का अवसर दें। देवत्व का समर्थन करें और इस प्रखर साधना वर्ष में ऐसे महातप का निश्चय करें, जिसके आधार पर जाग्रत आत्माओं में, देवमानवों जैसी जीवन नीति निर्धारित की जा सके। यह निर्धारण ही पर्याप्त नहीं-इसे क्रियान्वित करने के लिए सत्संकल्प और उत्साह भी चाहिए। इसी उमंग भरे उभार को व्यक्तिगत जीवन की भगवान के साथ साझेदारी के रूप में माना जा सकता है।

वैसे भी जिन्हें अपनी निज की, अपने परिवार की, देश-समाज की विश्व मानव की और प्राणिमात्र की कुछ ठोस सेवा करने की इच्छा हो, तो उन्हें तप-साधना में प्रवृत्त हो ही जाना चाहिए, क्योंकि इसी के द्वारा व्यापक रूप से मनःक्षेत्र में भरी हुई वह गन्दगी साफ होगी, जिसकी सड़ाँध से विभिन्न जातियों के विषाणु उत्पन्न होते हैं और एक-से-एक भयंकर महामारियों का सृजन करते हैं। हर विषाणु मारने की अपेक्षा हर रोगी का अलग इलाज करने की योजना बनाने से पहले हमें तप-साधना के रूप में स्वच्छता का, असुरता के प्रतिरोध का व्यापक अभियान चलाना चाहिए, ताकि महामारी के उद्गम स्रोत पर नियंत्रण प्राप्त किया जा सके।

इस प्रखर साधना वर्ष की शुरुआत के साथ ही युगपरिवर्तन की, जनमानस के भावनात्मक नवनिर्माण की घड़ी और भी अधिक निकट आ पहुँची है। अरुणोदय का, ऊषा का आलोक प्राची के समीप न सही दूर दिखाई पड़ने लगा है। ऐसे अवसर पर अनिर्णय अन्तर्द्वन्द्व को मिटा देना ही उचित है। हम जहाँ भी, जिस भी स्थिति में हैं, वहीं यह निश्चय-निर्णय करें कि इस ब्रह्ममुहूर्त में आलस्य-प्रमाद के गर्त में पड़े न रहेंगे। कमर बाँधकर आगे बढ़ेंगे और कर्तव्यों की पुकार को शिरोधार्य करते हुए शूरवीरों जैसा दुस्साहस जुटाएँगे। इस अवसर पर हमें विश्वामित्र, दधिचि एवं अगत्स्य जैसी तप-साधना का परिचय देना होगा, अन्यथा सफलता संदिग्ध बनी रहेगी।

जाग्रत आत्माओं से कहना यही है कि वे अपने आन्तरिक देवासुर संग्राम को देखें और उसके समाधान के लिए सद्विवेक से, सत्साहस से साधना का- तपश्चर्या का सम्बल लें। यदि ऐसा हो सके तो इसी देवपरिवार की असंख्य प्रतिभाएँ युगदेवता के चरणों में अपनी छोटी या बड़ी भावभरी आत्माहुति प्रस्तुत कर सकती हैं। महाकाल ने इसी की माँग की है। जाग्रत आत्माओं में से हर एक की असाधारण भूमिका इस संदर्भ में हो सकती है। अबकी बार का वसन्त पर्व जाग्रत आत्माओं के लिए यही संदेश लेकर आया है।


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