हर साधक की इन महाक्रान्तियों में भागीदारी हो

February 1999

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बीसवीं सदी का अंत एवं इक्कीसवीं सदी का शुभारम्भ एक ऐसी वेला में आया है, जिसे क्रांतियों की पराकाष्ठा का समय कहा जा सकता है। औद्योगिक क्रान्ति, आर्थिक क्रान्ति, वैज्ञानिक क्रान्तियाँ विगत दो सौ वर्षों में युग की काया पलट कर देने वाली मानी जाती रही हैं। आज से दो सौ वर्ष पूर्व का मानव यदि कालप्रवाह में चलकर एकाएक आ जाय तो वह हतप्रभ होकर रह जाएगा कि वह जिस दुनिया को छोड़कर गया था, वह तो यह नहीं है। विज्ञान ने अभूतपूर्व प्रगति की है एवं मानवी-सभ्यता को विकास के नये आयाम दिए हैं। उद्योग क्षेत्र में हुई क्रान्ति ने जहाँ मानवमात्र के लिए श्रम के बदले पूँजी को जुटाया, वहीं साम्यवाद के रूप में एक समता के सिद्धान्त को भी जन्म दिया। यह बात भिन्न है कि वह साम्यवाद आज पूँजीवाद-प्रत्यक्षवादी भौतिकवाद की हवा में लेनिन व मार्क्स के जाने के साथ ही लुप्तप्राय-सा हो गया है, फिर भी एक क्रान्ति तो समाज के आर्थिक चिन्तन में हुई ही। इतना सब होते हुए भी आज यदि एक महाक्रान्ति की आवश्यकता अनुभव की जा रही है, तो उसे युगपरिवर्तन के लिए एक अनिवार्य आवश्यकता मानते हुए भली-भाँति समझना व उसका एक अंग बनकर जीना ही सभी के लिए वरेण्य माना जाना चाहिए।

आज छह सौ करोड़ की आबादी वाली विश्ववसुधा बड़ी विषमताओं से भरी परिस्थितियों में जकड़ी दिखाई देती है। साधन व सम्पन्नता दोनों बढ़े हैं, किंतु साथ ही अभाव भी। मनुष्य बढ़ते उपभोगवाद की नीति के कारण शरीर-मन दोनों ही दृष्टि से तेजी से दुर्बल व रुग्ण-अशक्त होता चला जा रहा है। जानकारी बढ़ाने के साधन, मस्तिष्कीय विकास के अगणित तरीके विकसित हुए हैं, फिर भी आधी-से-अधिक जनशक्ति निरक्षर-अनगढ़ स्थिति में दिखाई देती है। संतोष व शान्ति, मानसिक प्रसन्नता-प्रफुल्लता का मानो अकाल-सा आ गया है। हर व्यक्ति तनावग्रस्त दिखाई पड़ता है। असुरक्षा व एकाकीपन का भार इतना लद रहा है कि जिन्दगी भारी लाश की तरह ढोनी पड़ रही है। हताशाओं, आत्महत्याओं का दौर बढ़ रहा है। बाहर से चतुर दीखने वाले किंतु अंदर से खोखले-उथले व्यक्तियों की संख्या विगत पचास वर्षों में तेजी से बढ़ी है। पारिवारिक सौजन्य-स्नेह भी समाप्तप्राय सा लगता है। यौन-आकर्षण ही दाम्पत्य जीवन का एकमात्र आधार नजर आता है। विवाहेत्तर संबंध, पारिवारिक कलह एवं बच्चों में बढ़ती अपराधों की संख्या एक विभीषिका समान दिखाई देती है। दहेज के लिए विवाह, बहुओं को जलाया जाना-सताया जाना, विवाह-शादियों में अनाप-शनाप व्यय, फैशन-परस्ती फिजूलखर्ची इस परिमाण में बढ़ गए लगते हैं कि माने अब भौतिकता का कहीं कोई स्थान ही नहीं रह गया। अविवाहित कन्याओं की समस्या आज भी इक्कीसवीं सदी के आगमन की वेला में यथावत है। मनुष्य आधुनिक तो हुआ है, परंतु उसकी सोच और अधिक जातिवादी, सम्प्रदायवादी अर्थप्रधान, ऊँच-नीचवादी होती चली गयी है। अंधविश्वास, सामाजिक कुरीतियाँ, मूढ़मान्यताएँ-लगता है पुनः बाढ़ के रूप में आती चली जा रही हैं व इस सदी के पूर्व के सारे आंदोलन निरर्थक से नजर आ रहे हैं। शासन पूरी तरह शोषण, बेईमानी, अराजकता भरे तंत्र पर टिका कुचक्र का षड्यंत्र मचाता दीखता है। पूरी स्थिति देखकर लगता है कि सृजन से ध्वंस की गति तीव्र है एवं मानवजाति के दिवालिया होने का संकट आ खड़ा है।

महाक्रान्तियाँ ऐसी ही वेला में होती हैं। जब मनुष्य का बाहुल्य थक जाय और विनाश की आशंकाएँ बलवती होने लगें, तो प्रवाह को उलटने का पुरुषार्थ जिस महाकाली के माध्यम से होता है, उसी को महाक्रान्ति कहा गया है। ऐसे घटनाक्रम सूक्ष्मजगत के- परोक्ष में पहले घट जाते हैं, प्रत्यक्ष जगत में वे बाद में दृष्टिगोचर होते हैं। प्रस्तुत साधना वर्ष में जब मानवी आध्यात्मिक पुरुषार्थ की प्रखरता चरम सीमा पर है, इस महाक्रान्ति को घटित होते सभी के द्वारा चर्मचक्षुओं से देखा जा सकेगा। परमपूज्य गुरुदेव ने नवयुग का आगमन तीन आधारों पर सुनिश्चित बताया है। वे हैं-मनुष्य के चिन्तन, चरित्र व व्यवहार में आमूलचूल परिवर्तनं चिन्तन प्रक्रिया में परिवर्तन को विचार क्रान्ति, चरित्र में बदलाव को नैतिक क्राँति एवं व्यवहारी में आए हेर-फेर को सामाजिक क्रान्ति नाम उन्होंने दिया था। जब तक इन तीन मूलभूत आधारों पर समग्र परिवर्तन की बात नहीं सोची जाती- युगपरिवर्तन संभव नहीं हो सकता। हिंसा से या रैली निकालने से यह बदलाव व्यापक स्तर पर न अब तक लाया जा सका है, न कभी भविष्य में लाया जा सकेगा। परमपूज्य गुरुदेव द्वारा आरंभ किए गए सारे क्रिया-कलाप इसी आध्यात्मिक महाक्रान्ति की धुरी पर खड़े देखे जा सकते हैं। जब भी हम क्रान्ति के विषय में सोचें, हमें युगदेवता-आराध्य सत्ता के चिन्तन के साथ अपनी संगति जोड़कर बड़े व्यापक परिप्रेक्ष्य में इस पर चिन्तन कर इस साधना वर्ष में असली जामा पहनाने का प्रयास कर नवयुग के अभ्युदय की बात सोचनी चाहिए। इसमें जो भी कुछ संघर्ष है- वह सारा विचारों का विचारों से ही है। ऐसे पुरुषार्थ में सदा से ही देवत्व की विजय होती रही है, अतः हमें साधनात्मक वातावरण बनाने भर की आवश्यकता है- क्राँति के बीज ऐसी पृष्ठभूमि में सहज ही पुष्पित-पल्लवित होते चलेंगे।

रचनात्मक स्तर पर जिन तीन क्राँतियों की चर्चा होती है, उनके क्रियाशील होने की चर्चा परमपूज्य गुरुदेव ने व्यक्ति के तीन स्तरों पर की है। पूर्व की अखण्ड ज्योति एवं युगनिर्माण योजना पत्रिकाओं का अनुशीलन करने पर वे इस प्रकार हैं-

(1) स्वस्थ शरीर के निर्माण हेतु-स्वास्थ्य संवर्द्धन की क्रान्ति जिसमें आहार-विहार से लेकर आचार-विचार की बात बतायी गयी है। इस राष्ट्र ही नहीं-सारे विश्व को समग्र स्वास्थ्य देने हेतु आयुर्वेद के पुनर्जीवन-वनौषधियों से स्वास्थ्य संवर्द्धन, शाकाहार की क्रान्तिकारी प्रक्रिया का विस्तार एवं मनोविकारों के शमन हेतु आध्यात्मिक उपचार उसी के अंतर्गत आते हैं।

(2) स्वच्छ मन के निर्माण हेतु-आस्तिकता संवर्द्धन की क्रान्ति की चर्चा की गयी है। आस्थाओं को सबल-परिष्कृत उपासनात्मक उपचार के द्वारा ही किया जा सकता है। चिंतन में पवित्रता का समावेश किए जाने के लिए साधनात्मक प्रयास इंद्रिय, समय, अर्थ व विचार चारों स्तर पर संयम किए जाने के माध्यम से संपादित होने चाहिए। आध्यात्मिक चिंतन ही स्वच्छ मन का जन्मदाता माना जाना चाहिए। अपने-अपने इष्ट के प्रति समर्पण भाव जब राष्ट्र देवता के प्रति समर्पण में रूपान्तरित होता है, तो ऐसा मन समष्टि के साथ मिलकर एक विराट-समूह मन का निर्माण करता है जिसमें परिवर्तन हेतु अनिवार्य क्राँतिकारी शक्ति होती है।

(3) सभ्य समाज के निर्माण हेतु- नारी जागरण की धुरी पर समाज का अभिनव निर्माण। नारी शक्ति समाज की आधी से अधिक जनशक्ति ही नहीं है, आज का समाज असभ्य हुआ ही है नारी शक्ति- भावसंवेदना को धारण करने वाली शक्ति की अवमानना से। नारी जागरण का अर्थ है- समाज का नेतृत्व भावसंवेदना के माध्यम से संचालित होना, परिवारों में सुसंस्कारिता का जागरण होना एवं मानव के चिन्तन में शुचिता- पवित्रता का समावेश होना। इक्कीसवीं सदी मातृशक्ति की सदी है। इसे पुनः स्थापित करने हेतु ही इस रचनात्मक क्राँति का- युगनिर्माण योजना, अखिल विश्व गायत्री परिवार द्वारा सूत्र-संचालन किया जा रहा है।

महाक्रान्ति का दूसरा चरण सुधारात्मक-संघर्षात्मक है। स्मरण रहे, यह संघर्ष वैचारिक स्तर पर आरंभ होता है, तब ही यह ऐसा वातावरण बनाता है, जिसमें नवसृजन की तरंगें हिलोरें लेने लगती हैं। इसमें चार चरण परमपूज्य गुरुदेव ने बताए हैं- (1) साधना के आधार पर-दुष्प्रवृत्तियों का उन्मूलन एवं सत्प्रवृत्तियों का संवर्द्धन- यह वस्तुतः अपने आप से लड़ा जाने वाला एक समर-संग्राम है। साधक स्तर के व्यक्तित्वों का सृजन होगा तो व्यक्तिगत स्तर से लेकर-पारिवारिक एवं सामाजिक स्तर पर संव्याप्त दुष्प्रवृत्तियाँ स्वतः समाप्त होती चली जाएँगी एवं ईमानदारी, सृजनशीलता, कर्मठता जैसी सत्प्रवृत्तियों को बढ़ावा मिलेगा। साधना आज समाजीकरण के स्तर पर पहुँचनी चाहिए एवं असुरता को प्रश्रय देने वाली सारी वृत्तियों के विरुद्ध वातावरण बनना चाहिए। साधना का अर्थ है- अपने आप को साध लेना- रिंग मास्टर के हन्टर की तरह बार-बार उन वृत्तियों पर अंकुश लगाना जो उच्छृंखल हो समाज के संतुलन को बिगाड़ती हैं। इसी का दूसरा पक्ष है- विचारों में श्रेष्ठता का समावेश कर उनका समाज के नवनिर्माण हेतु नियोजन। व्यक्ति के स्तर पर आरंभ यह साधना समाज के विराट स्तर तक पहुँचती हुई बड़े व्यापक आंदोलन-व्यक्तिनिर्माण से समाज-निर्माण-युगनिर्माण में बदल जाती है।

(2) स्वाध्याय- दूसरा चरण है, जिसके आधार पर वैचारिक क्राँति द्वारा उन सभी कुरीतियों से जूझने का ज्ञानयज्ञ चल रहा है, जिनका उन्मूलन किए बिना समाज निर्माण संभव नहीं। कुरीति उन्मूलन आंदोलन को युग-निर्माण योजना द्वारा इसी धुरी पर खड़ा किया गया है, विवेक जाग्रत तब हो जब पतन-निवारण में सहायता करने वाले स्वाध्याय का प्रचलन बढ़े। आज स्वाध्याय चाहे वह साहित्य के रूप में हो अथवा टेलीविजन चैनलों के माध्यम से- मनोरंजन का रूप ले चुका है स्वाध्याय, आत्मनिर्माण से लेकर लोकमंगल के लिए हो- चाहे श्रेष्ठ विचारों के विस्तार हेतु माध्यम कोई भी प्रयुक्त किया जाय। यदि विवेक स्थिर रहा तो समाज से कुप्रचलन-अंधमान्यताएँ रूढ़िवादी रीति-रिवाज-धर्म के नाम पर चलने वाली कुरीतियों का स्वतः अंत हो जाएगा।

(3)संयम- तीसरा चरण है, जिसके द्वारा व्यसन मुक्ति आंदोलन को संघर्षपरक रूप दिया गया है। आत्मसंयम के अभाव में ही व्यक्ति नशों की गिरफ्त में आ जाता है। मनुष्य का शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य आज खोखला हुआ है- तम्बाकू, शराब, मादक हेरोइन जैसे द्रव्यों, पान-गुटका नशीली दवाओं के प्रचलन से। अकेले शराब ने ही न जाने कितने परिवार उजाड़े हैं व राष्ट्र का अरबों का नुकसान किया है। अपराधों से अराजकता बढ़ी है सो अलग। संयम के प्रचलन को बढ़ावा देकर देव दक्षिणा क्रम में व्यसन मुक्ति आंदोलन को इस प्रखर साधना वर्ष में प्रचण्ड गति दी जानी चाहिए।

(4)सेवा- वह चौथा चरण है, जिसके द्वारा आज की सर्वश्रेष्ठ समाज देवता की आराधना संभव है। आज की सेवा नियोजित होनी चाहिए, विवाहोन्माद की असुरता से प्रतिरोध करने वाले आँकलन के रूप में। विवाह संस्कार एक पावन पुनीत कृत्य है, जिसमें दो आत्माओं का आध्यात्मिक मिलन होना चाहिए। इसे एक पैशाचिक कृत्य बना दिया गया है- नेग के नाम पर, दहेज के नाम पर, फैशन-खूबसूरती के नाम पर खूब शोषण होता है। अनाप-शनाप पैसा बहाकर यह संस्कार मात्र भारत में ही संपन्न होता है। राष्ट्र को दरिद्र व बेईमान होने का मूल कारण खर्चीली शादियाँ ही हैं। आज की सर्वश्रेष्ठ सेवा यही है कि दहेज रूपी असुर से जूझने वाले साधक श्रेष्ठ खड़े हों। स्वयं न दहेज लेने, न देने की शपथ लें। जहाँ ऐसा प्रचलन हो, वहाँ असहयोग-सत्याग्रह आदि के द्वारा वातावरण बनाने में मदद करें।

इस प्रखर साधना वर्ष में स्वस्थ शरीर, स्वच्छ मन, सभ्य समाज द्वारा तीन रचनात्मक क्रान्तियाँ तथा साधना, स्वाध्याय, संयम, सेवा रूपी चार बातों द्वारा संघर्षात्मक-सुधारात्मक क्रान्तियों में भागीदारी हर साधक को करनी चाहिए।


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