महाकाल की महायोजना

February 1999

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युगऋषि द्वारा बारह वर्ष की युग-सन्धि की अवधि घोषित की गयी थी। 1988-89 से लेकर सन् 2000 तक की अवधि को सभी अध्यात्मविदों-परिस्थितियों का आकलन करने वाले वैज्ञानिकों ने परमपूज्य गुरुदेव के स्वर में स्वर मिलाकर इसे परिवर्तन की वेला के रूप में प्रतिपादित किया था। इन दिनों एक अच्छा समय आने की संकट भरी पूर्व वेला से हम गुजर रहे हैं। यहाँ तक कि 1999 से 2000 की अवधि में अणुयुद्ध और खण्ड-प्रलय जैसी विभीषिकाओं का सामना करने तक की बात कही गयी है। ऐसी परिस्थितियों में हमें महाकाल की महायोजना को तीव्रतम गति देकर क्रियान्वित करने हेतु तत्काल ही गतिशील होना चाहिए। सामूहिक अध्यात्मिक अनुष्ठानों का क्रम विराट गायत्री परिवार के अधिष्ठाता, कुलपति द्वारा सन् 1942 से सतत् चलाया जाता रहा है, जबकि ‘अखण्ड ज्योति ‘ पत्रिका अपनी शैशवावस्था के मात्र चौथे वर्ष में थी। इस बीच द्वितीय विश्वयुद्ध करी पराकाष्ठा का समय आया, अणुबम का विस्फोट नागासाकी व हिरोशिमा में हुआ, भारत को आजादी मिली, छिटपुट युद्ध चलते रहे, जिनमें कश्मीर का एक हिस्सा भारत से अलग हो गया, अष्टग्रही योग, चीन युद्ध, पाक के विरुद्ध दो युद्ध अमेरिका के स्काईलैब का अनियंत्रित हो जाने की प्रक्रिया भी हुई। सभी संदर्भों में सामूहिक प्रयोगों में सभी वर्गों एवं सम्प्रदायों के सभी भावनाशील सम्मिलित हुए तथा उसके सत्परिणाम भी देखे गए। इसी का अब अंतिम चरण आ पहुँचा है एवं हम एक सहस्राब्दी बदलने से युग बदलने से कुछ ही दिन दूर हैं।

प्रस्तुत प्रखर साधना वर्ष में, देश-विदेश में गायत्री परिवार के प्रायः पचास हजार से अधिक केन्द्रों पर प्रचण्ड आध्यात्मिक आन्दोलन चलाया जा रहा है। इसमें हर जाति, सम्प्रदाय, वर्ग के भावनाशील-विचारशील साधक भाग ले रहे हैं। यह भागीदारी मात्र एक वर्ष की नहीं है। इसे महापूर्णाहुति होने तक व उसके बाद न्यूनाधिक रूप में सतत् सन् 2001 के बाद भी चलते ही रहना है। तब तक चूँकि भागीदारी करने वालों की संख्या बढ़ती ही चली जायेगी, उनकी थोड़ी-सी साधना मात्र से वही शक्ति उत्पन्न होगी, जिसे इस साधना वर्ष में पैदा करने का प्रयास किया जा रहा है। प्रस्तुत भागीदारी करने वालों के दो वर्ग हैं-(1) नैष्ठिक साधक या वरणी साधक (2) सहयोगी अथवा भागीदार साधक। जो भी इस क्रम में जुड़ रहे हैं, उनके लिए साधना का स्तर निर्धारित कर दिया गया है, जिसे उन्हें कम-से कम महापूर्णाहुति तक नियमित चलाना है। इस साधना से जुड़ने वाले और अन्यों को जोड़ने वालों को ईश्वरीय सुरक्षा कवच तथा प्रगति के अवसरों का पुण्य-लाभ अपनी साधना-भावना के अनुपात में निश्चित ही मिलना है।

दृष्टिकोण स्पष्ट रहना चाहिए कि इस वर्ष का हम सबका नारा एक ही है “सामूहिक साधना द्वारा सबको सद्बुद्धि-सबको उज्ज्वल भविष्य।” इसी उद्देश्य से प्रायः पचास से अधिक स्थानों पर प्रशिक्षण क्रम पूरे भारत भर में चलाया गया है। पश्चिमोत्तर, सुदूरपूर्व व दक्षिण के जो भाग छूट गए हैं, वहाँ यह क्रम आगामी दो माह में पूरा हो जाएगा। जहाँ-जहाँ प्रशिक्षण हुए हैं- वहाँ से संगठनात्मक ढाँचा साधना की धुरी पर पूरे प्रभावक्षेत्र को दृष्टिगत रख बनेगा एवं एक भी हिस्सा ऐसा न रहेगा, जहाँ यह सन्देश न पहुँच पाए। अभियान में एकरूपता तथा प्रखरता बनाए रखने के लिए साधना पद्धति को बड़ा सुगम बनाया गया है। इसमें हर स्तर के व्यक्ति सम्मिलित हो सकते हैं। नये साधक 10 मिनट की प्रार्थना से यह क्रमशः जीवन-साधना के स्तर तक पहुँच सकते हैं, जहाँ उन्हें व्यक्तित्व-परिष्कार का लक्ष्य सहज ही सिद्ध होता दृष्टिगोचर होने लगेगा। साधना के इस क्रम में हमारे देश की भाषा, क्षेत्र, शिक्षा का स्तर, जाति-संप्रदायगत विभिन्नता को देखते हुए कई स्तर बनाए गए हैं। जिन्हें जो सुलभ लगे-वे उससे जुड़ सकते हैं अथवा जुड़ने हेतु प्रेरित किए जा सकते हैं। ये इस प्रकार हैं-

(1) एकदम नये व्यक्तियों को जो किसी मंत्र या उपासना पद्धति से नहीं जुड़े हैं-पहले चरण में मात्र दस मिनट ईश्वर की प्रार्थना इस भाव से करें कि सभी अनिष्ट से बचें, सबको सद्बुद्धि मिले व सभी उज्ज्वल भविष्य तक पहुँचे। इसके लिए निम्नलिखित भाषा विभिन्न भाषाओं में अनुवाद कर, टाइप कराके, छपवाकर वितरित की जा सकती है, ताकि अशिक्षितों को भी याद कराया जा सके व अपनी भाषा का भाव भी उनके मन में बना रहें, यह प्रार्थना है- ‘हे प्रभु आप हम सबको सद्बुद्धि दें, उजला भविष्य दें। प्रभु! मैं सदैव अच्छा ही सोचूँ, अच्छे ही कर्म ही करूं।’ दुहराई जा सकती है व इस दौरान अपने इष्ट का अथवा सूर्य के उगते स्वरूप का ध्यान भी किया जा सकता है।

(2) जो लोग किसी भी इष्ट या मंत्र के सहारे नियमित उपासना करते हैं- यथा ॐ नमः शिवाय, हरे कृष्ण, हरे राम, जय श्री कृष्ण, जय श्री राम, नमो भगवते वासुदेवाय, शब्द कीर्तन, जैन धर्म की प्रार्थना, नमाज के समय की प्रार्थना अथवा बाइबिल की प्रार्थना-का भाव और जोड़ लें। भावविह्वल होकर दस पंद्रह मिनट निर्धारित समय पर नित्य प्रार्थना करें। यदि सहमत हो सकें तो इष्टमंत्र, नाम-जप के साथ ही गायत्री मंत्र, उसका भावार्थ अथवा मात्र पञ्चाक्षरी जप की एक माला जपने के लिए प्रेरित किया जाय।

(3) जो लोग गायत्री महामंत्र का उपयोग बिना किसी संकोच के कर सकते हैं, उन्हें नियमपूर्वक साधना के लिए प्रेरित, प्रशिक्षित, अभ्यस्त किया जाय। ध्यान यह रखा जाय कि माला की गिनती का महत्व कम है- भावविह्वल होकर उदीयमान सूर्य के तेज का ध्यान करते हुए मंत्रजाप किया जाय। इस क्रम में नियमितता रखी जाय। जो दीक्षित नहीं हैं वे सतत् जप कर सकते हैं। ध्यान चाहें तो अपने इष्ट का, गुरुसत्ता का अथवा हिमालय के शिखरों का भी कर सकते हैं। यदि यह जप परिवार के सभी सदस्य सामूहिक रूप से कर सकें, तो पंद्रह से तीस मिनट किसी भी परिवार-समूह के अंग के लिए निकालना मुश्किल नहीं है। परिणाम अति चमत्कारी होंगे। यदि सप्ताह में एक बार करना शक्य लगे, तो अवश्य करें।

नियमित जप करने वाले साधक षट्कर्म से लेकर सूर्यार्घ्य दान तक का क्रम, शक्ति-संचार की साधना का क्रम, संयम के प्रतीक के रूप में रविवार या गुरुवार का अस्वाद व्रत अथवा एक समय भोजन तथा दान-पुण्य के रूप में धर्म घट में एक मुट्ठी अन्नदान एवं ज्ञानघट (गुल्लक) में प्रतिदिन पच्चीस पैसे ज्ञानयज्ञ के लिए अर्पित करें अथवा बच्चों से कराएँ।

ऊपर एक सामान्य क्रम विभिन्न वर्गों के लिए दिया गया है। वरणी स्तर के साधकों को तीन माला भावपूर्वक एक आत्मकल्याण के लिए, एक विभीषिकाओं के निवारणार्थ करना चाहिए, साथ ही सप्ताह में रविवार के फलाहार-न्यूनतम आहार सहित उपवास एवं गुरुवार को अस्वाद भी करना चाहिए। सहयोगी साधक एक माला गायत्री मंत्र की नियमित करें अथवा दस मिनट सामूहिक साधना में भावपूर्वक उज्ज्वल भविष्य की प्रार्थना मौन बैठकर करें।

यह समग्र अभियान वैयक्तिक, पारिवारिक एवं सामुदायिक स्तर पर भारत व विश्व के कोने-कोने में आगामी दो वर्ष तक चलेगा। इसके अतिरिक्त हर गाँव, कस्बे-शहरों के मुहल्लों में प्रशिक्षित कार्यकर्ता ढाई दिवसीय साधनात्मक आयोजन संपन्न कराएँगे, जो किसी निर्धारित स्थान पर सामूहिक रूप से होंगे। सामूहिक जप में बड़ी शक्ति है। इसमें समूहमन जाग्रत होता है एवं समूहमन के जागरण से प्रचण्ड शक्ति का उद्भव होता है। इस पर विस्तार से इस अंक में प्रकाश डाला गया है।

10 फरवरी, 2000 को वसंत पंचमी पर्व है। साधना के सामूहिक आयोजनों के साथ-साथ गाँव-गाँव दीपयज्ञों से साधना वर्ष की पूर्णाहुति

स्मरण रहे- यह साधना की धुरी पर संगठन के पुनर्गठन-गायत्री परिवार के विराटतम रूप लेने का समय है। इन दो वर्षों में युगपरिवर्तन की प्रक्रिया को जिन्हें अपने चर्मचक्षुओं से मात्र देखना ही नहीं, उसमें अपनी भूमिका भी सुनिश्चित करनी हो, उसके लिए यही सबसे उचित समय है। इसके परिणाम कितने विलक्षण होंगे, यह भागीदारी करने वाले अपने निजी जीवन में पारिवारिक परिकर में एवं समाज-क्षेत्र में स्वयं परिलक्षित कर धन्य हो सकेंगे। सारी विश्व-वसुधा पर मँडरा रहे भयंकर बचाव के लिए दैवी सुरक्षा कवच तथा संभावित सुख-सौभाग्य के लिए दैवी अनुदानों से लाभ उठाने का यह अंतिम अवसर है। इसमें निज की तो सुरक्षा है ही समूह का हित भी साथ जुड़ा है। महाकाल के खण्डनर्तन कभी-कभी ही होते हैं। अगले दिनों त्रिपुरासुर के मर्दन की पुनरावृत्ति लोभ, व्यामोह और अहंकार के कालपाशों से मानवता को मुक्ति मिलने के रूप में होने जा रही है। ऐसे त्रिपुरारी महाकाल की जय-जयकार कर हम स्वयं को इस महायोजना का भागीदार बना सकें, इससे बड़ा सौभाग्य इस समय का कोई और नहीं हो सकता, न कभी भविष्य में होगा।


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