वसंत पर एक साधक की अनुभूति

February 1999

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माघ का महीना, शुक्लपक्ष की पंचमी, दिन शुक्रवार। वसन्त जीवन और जगत के कण-कण में अपनी अलौकिक चेतनता का संचार कर रहा था। वह भी अपने कक्ष में साधनारत था। ब्रह्ममुहूर्त में उसकी आत्मचेतना-ब्राह्मीचेतना की ओर उन्मुख थी। परमपूज्य गुरुदेव के श्रीचरणों की भक्ति के प्रभाव से उसकी समस्त भ्रान्ति नष्ट हो गयी और उसके चैतन्य में सर्वमयता स्थिर हो गई। जो बाहर हो रहा था, वह भीतर होता हुआ प्रतीत होने लगा। अहम् और इदम् के मध्य जो आच्छादन था, दूर हो गया। साधक के कण-प्रतिकण में, अणु-परमाणु में जो अव्यक्त नाद है, वह सुनायी पड़ने लगा।

वह अपनी अन्तःचेतना में इस वसन्त पंचमी की विशिष्टता और अनूठेपन को अनुभव कर रहा था। उसे वह वसन्त भी स्मरण था, जब उसकी चेतना के तन्तु युग प्रत्यावर्तन करने वाली महाशक्ति से जुड़े थे। आज से तेरह वर्ष पूर्व के वे क्षण भी अविस्मरणीय एवं अद्भुत थे। दैवी चेतना साकार रूप से सक्रिय थी। महेश्वर महाकाल अपनी अभिन्न शक्ति देवी भगवती के साथ युग-परिवर्तन के सरंजाम जुटा रहे थे। उसने इन दोनों का स्थूल सान्निध्य और साहचर्य पाया था। इन तेरह वर्षों में घटनाक्रमों न अपने अनेक रूप बदले-नए-नए रंग दिखाए, परीक्षा के अनेकों उपक्रम हुए पर वह अविचलित रहा। तेरह वर्षों में वह स्वयं भी अनेक तरह से पूजा-उपासना साधना तथा आराधना में लीन रहा। यह सब मन तथा हृदय को अच्छा भी लगता रहा, परन्तु ऐसी मनःस्थिति कभी नहीं बन पायी, जैसी कि आप बनी।

समर्पण की गहराइयों में ध्यान स्वयं ही सघन और स्वयं प्रकाशित हो उठता है। उसकी चेतना भी कुछ ऐसी ही अनुभूति में निमग्न हो रही थी। उसकी चेतना में पर्वत ऊपर उठने लगे, तुषार से ढके श्रृंग उसके चिदाकाश में सभाएँ करते, उनसे हिम पिघल-पिघल कर नदी-नालों झरनों और हिमनदों में परिवर्तित होता। ध्यान की इन गहराइयों में उसे काल की प्रत्येक धड़कन साफ सुनायी पड़ने लगी।

तभी उसने आज्ञाचक्र से दृष्टि संधान कर अपनी गुरुचेतना के सम्मुख उपस्थित हो अपनी वेदना निवेदित करने का निश्चय किया। इस संकल्प के उदय होते ही अन्तर्दृष्टि के सामने दृश्य परिवर्तित होने लगा। सृष्टि की रहस्यमयी प्रक्रियाओं के आभास अब मन्द पड़ने लगे और स्पष्ट होने लगे शुभ्र-धवल दुर्गम हिम शिखर। इन हिमशिखरों के मध्य उसने देवों एवं ऋषियों से वन्दित गुरुदेव एवं माताजी के युगल रूप को देखा। प्रणाम निवेदित करते हुए उसकी आत्मा में ऋषियुग्म की चेतना झंकृत हो उठी- मैं सर्वदा तुम्हारे पास हूँ। जब तुम्हारे पापों के जाल तुम्हें कसने लगें तथा गहन अंधकार में कष्ट पा रहे हों, तब यह ध्यान रखो कि वहाँ भी मैं तुम्हारे साथ तुम्हारे महापराधों के कष्टों को भोगने में सहभागी हूँ। तुम्हारी अन्तरात्मा के कार्यों को भली-भाँति जानने के कारण मैं तुम्हारी अन्तरात्मा के सम्बन्ध में सजग हूँ। मैं जो सर्वव्यापी हूँ, उससे तुम कुछ भी नहीं छिपा सकते, अपने गोपनीय विचारों का अत्यल्प अंश भी नहीं। मैं तुममें हूँ।

आओ आज महापर्व वसन्त के पुण्य क्षणों में मेरे हृदय से अपना हृदय मिला लो, उसे अपना बना लो। तब सब ठीक हो जाएगा। तुम्हारे हृदय-गुहा की छाया और शान्ति में हम दोनों का निवास है। अब जाओ संसार में रहते हुए उस कर्तव्य के प्रति समर्पित हो जाओ, जो मैंने तुम्हें सौंपा है। मेरी वाणी का इतना प्रचार करो जितना व्यापक कि आत्मा है। हम दोनों का समन्वित प्रेम तथा आशीर्वाद सदैव तुम्हारे साथ है। जब ये शब्द समाप्त हुए, तब उसने समझ लिया कि यही उसके लिए परमपूज्य गुरुदेव का वसन्त पंचमी पर दिया गया दिव्य संदेश था, जिसने उसके सभी पापों को धो दिया। उसकी अन्तर्दृष्टि के सामने माताजी अपनी मन्द मुसकान और आँसू भरे नेत्रों के साथ सामने थी। मानो वे कह रही थीं- मेरे वात्सल्य भरे आँचल की छाया सदा सर्वदा तुम्हारे सिर पर है। मैं गुरुदेव से अलग नहीं हूँ। उनकी बातों को ही तू मेरी बातें मान।

साधना से उठने के बाद भी उस साधक की भावदशा बड़ी विलक्षण बनी रही। अब तो जैसे गुरुकार्य ही उसके जीवन का ध्येय था।


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