परोक्ष के परिशोधन हेतु इस वर्ष का प्रचण्ड यह तप

February 1999

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साधना वर्ष के समस्त क्रिया-कलापों का गम्भीर अध्ययन-पर्यवेक्षण करने पर इसे सूक्ष्मजगत के परिशोधन और जनमानस के परिष्कार का बहुमूल्य प्रयोग माना जा सकता है। गायत्री साधना का अपना एक सूक्ष्म विज्ञान है। उसके तत्त्वज्ञान और विधिविधान में ऐसे तत्व विद्यमान हैं, जो सूक्ष्मजगत के अदृश्य वातावरण में देवत्व की मात्रा बढ़ाते हैं। उससे सर्वजनीन सुख-शान्ति में अदृश्य सहायता मिलती है। इस वर्ष के साधनात्मक कार्यक्रमों एवं साथ ही जुड़े अग्निहोत्र से वायुशोधन की उपयोगिता अपने स्थान पर है, पर वास्तविकता दूसरी ही है। वायुशोधन की अपेक्षा वातावरण का निर्माण इसका प्रमुख प्रयोजन है। गायत्री मंत्र का भावभरा जप-विश्व चेतना में पवित्रता के तत्व भरने वाले दिव्य कम्पन करता है। इसके अलावा भी इस वर्ष अपनाए जाने वाले साधना आयोजन में ऐसे-ऐसे अनेक आधारों का समन्वय है, जिनका सम्मिलित प्रभाव वातावरण में ऐसे उपयोगी तत्वों का समावेश करता है, जो अविज्ञात रूप से विश्व कल्याण की भूमिका सम्पन्न कर सके।

आज तो प्रदूषण की विभीषिका पर ही चर्चा होती है। अणु विकिरण से विषाक्तता, कोलाहल की प्रतिक्रिया पर ही चिन्ता व्यक्त की

जाती है। तत्व दर्शी मनीषियों को सूक्ष्म-वातावरण की चिन्ता इससे भी अधिक रहती है, वे जानते हैं कि वातावरण का प्रवाह मानवी तूफानों से भी अधिक सशक्त होता है। वातावरण के साँचे में व्यक्तियों का समूह खिलौने की तरह ढलता चला जाता है। अनेक देशों की, क्षेत्रों की परिस्थितियाँ, प्रथाएँ और मान्यताएँ, रुचियाँ और संस्कृतियाँ भिन्न-भिन्न हैं। उनमें जो संतानें जन्म लेती हैं, वे वातावरण के प्रभाव से उसी प्रकार की मनोवृत्ति-प्रकृति अपनाती चली जाती हैं। उनके चिन्तन, स्वभाव और क्रिया-कलाप लगभग वैसे ही होते हैं, जैसे कि उस प्रदेश में रहने वाले लोगों के। समय का प्रभाव, युग का प्रवाह इसी को कहते हैं। सर्दी-गर्मी का मौसम बदलने पर प्राणियों के, वनस्पतियों के तथा पदार्थों के रंग-ढंग ही बदल जाते हैं। इनकी गतिविधियों में ऋतु के अनुकूल बहुत कुछ परिवर्तन होते हैं।

विज्ञानवेत्ता जानते हैं कि पृथ्वी पर जो कुछ विद्यमान है और उत्पन्न-उपलब्ध होता है, वह सब अनायास नहीं है और न उन सबको मानवी उपार्जन कह सकते हैं। यहाँ ऐसा बहुत कुछ होता है, जिनमें मनुष्य का नहीं सूक्ष्म शक्तियों का हाथ होता है। सूर्य पर दिखने वाले धब्बे उसकी स्थिति के अनुसार बदलते रहते हैं। उस परिवर्तन का पृथ्वी पर भारी असर पड़ता है। उनसे पदार्थों की स्थिति और प्राणियों की परिस्थिति में आश्चर्यजनक हेर-फेर होते हैं। विकिरण, चुम्बकीय तूफान, अन्धड़, चक्रवात किस प्रकार सामान्य परिस्थितियों को असामान्य बनाते हैं, यह सभी जानते हैं। अन्तरिक्षीय अदृश्य शक्ति वर्षा से कई बार धरती पर हिमयुग आए हैं। जलप्लावन, समुद्री-परिवर्तन और खण्डप्रलय के दृश्य उपस्थित हुए हैं। भविष्य में पृथ्वी के पदार्थों अथवा प्राणियों, मनुष्यों की स्थिति में जो असाधारण परिवर्तन होने वाला है, उसका निमित्त कारण सामान्य घटनाक्रमों में नहीं वरन् अन्तरिक्षीय अदृश्य हलचलों में ही पाया जा सकता है।

यों व्यक्ति अपने निजी जीवन में सर्वथा स्वतन्त्र और सशक्त है। इतना होते हुए भी विशाल ब्रह्माण्ड में गतिशील हलचलों और परिस्थितियों में उसका स्थान नगण्य है। सिर पर खड़े, पानी से लदे बादल तक को वह बरसा नहीं सकता। मौत-बुढ़ापे को रोकने तक में असमर्थ है। परिस्थितियों पर उसका अधिकार नगण्य है। प्रवाहों में वह अपना यत्किंचित् बचाव ही कर पाता है। सर्दी उसके बूते रुकती नहीं, कपड़े लादकर, आग ताप कर आत्मरक्षा भर में आँशिक सफलता पा लेता है।

यहाँ एक सवाल यह पैदा होता है कि क्या मनुष्य वातावरण के सामने सर्वथा असहाय-असमर्थ है? इसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि सूक्ष्म प्रवाहों को प्रभावित करने, बदलने और अनुकूल करने की मानवी चेतना में समर्थता विद्यमान है। जीव ईश्वर का अंश है। मानवी चेतना, ब्रह्माण्डव्यापी चेतना का एक भाग है। अंश में अंशी की सारी विशेषताएँ मूल रूप से विद्यमान रहती हैं, यह पूर्णतः सत्य तथ्य है।

जड़ प्रकृति का वैभव-विस्तार बहुत है। फिर भी उस पर नियंत्रण चेतना का ही है। शरीर का अस्तित्व एवं क्रिया−कलाप तभी तक है, जब तक कि उसमें प्राणसत्ता काम करती है। प्रकृति ब्रह्म की छाया मात्र है। ब्रह्म-जगत ही वास्तविक जगत है। प्रकृति-जगत की जड़ता पर चेतना की ब्रह्म-सत्ता का ही नियंत्रण है। विकसित जीवात्मा ब्रह्म जगत से अपने को सम्बद्ध ही नहीं करती, वरन् उसके साथ एकाकार होकर इतनी सक्षम भी बन जाती है कि प्रकृति प्रवाह में आवश्यक हेर-फेर कर सके, वातावरण की प्रतिकूलता को अनुकूलता में बदल सके।

चेतना के संघात से वातावरण में वाँछित परिवर्तन किए जाने सम्भव हैं। अदृश्य जगत में कई बार ऐसी प्रेरणाएँ उभरती हैं, जिनके आँधी-तूफानों में मनुष्यों के मस्तिष्क पत्तों और जिनको की तरह उड़ने लगते हैं। युद्धोन्माद ऐसे ही उभरते हैं। उन दिनों अधिकाँश लोग लड़ने की आवश्यकता अनुभव करते और उसके लिए उतारू दिखते हैं। एक अजीब-सा आवेश छाया रहता है। न कहने की आवश्यकता पड़ती है, न समझाने की। हवा में तेजी और गर्मी ही कुछ ऐसी होती है, जिसके कारण सामान्य मस्तिष्क एक प्रकार से सम्मोहक स्थिति में रहता और प्रवाह में बहता दिखाई पड़ता है। समय-समय पर अनेकानेक सूक्ष्म प्रवाह अपने-अपने स्तर पर उभरते रहे हैं और असंख्य मस्तिष्कों को बहा ले जाने में आँधी-तूफान का काम करते रहे हैं। अदृश्य और सूक्ष्म वातावरण के तथ्य तथा रहस्य को जो लोग जानते हैं, व समझते हैं कि इस प्रकार के प्रवाह कितने सामर्थ्यवान होते हैं, उनकी तूफानी शक्ति की तुलना संसार की किसी और शक्ति से नहीं हो सकती।

प्रखर साधना वर्ष के आयोजन का एक पक्ष व्यक्तित्व परिष्कार, समाज-निष्ठा के प्रशिक्षण का है। चरित्रनिष्ठा और समाजनिष्ठा की गरिमा और उपयोगिता को इस साधना वर्ष के अनुबन्धों- अनुशास्त्रों में ढूँढ़ा-खोजा सीखा-समझाया जा सकता है। इस कसौटी पर कसने पर इसे ऐसा श्रद्धासिक्त उपचार कह सकते हैं, जिसके माध्यम से उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तृत्व का धर्म शिक्षण सुलभ बनता है। साधना वर्ष के अनुशासनों की उपयोगिता का जितना माहात्म्य कहा जाय, उतना ही कम है।

लेकिन इस पक्ष से कहीं अधिक महत्वपूर्ण

और समर्थ इसको दूसरा पक्ष है, जिसके द्वारा सूक्ष्म वातावरण में आवश्यक गर्मी और तेजी पैदा की जाती है। साथ ही दृश्यजगत में वह आधारभूमि तैयार करनी है, जिस पर अदृश्य शक्तियाँ क्रियाशील हो सकें। सूक्ष्म प्रवाह के सहयोगी बनने से अभीष्ट प्रयोजन में सफलता प्राप्त करने की सम्भावना सुनिश्चित हो जाती है। हवा का रुख पीठ पीछे से हो तो जलयानों के लिए, वातावरण के अनुकूलन के लिए, कुछ ऐसे ही प्रचण्ड प्रयास किए जाते हैं। साधना वर्ष का आयोजन इसी प्रयोजन के लिए सम्पन्न किया जा रहा दिव्य प्रयोग है।

विशिष्ट आध्यात्मिक उपचारों की प्रचण्ड ऊर्जा उत्पन्न करके वातावरण में व्यापक फेर-बदल की जानी है। प्रखर प्रतिभाएँ अपनी प्राणशक्ति से युग को बदलती हैं। अवतारी महामानव समय के प्रवाह को उलटते हैं। ठीक इसी प्रकार साधना वर्ष के प्रयोग से पैदा हुई चेतनात्मक प्रचण्ड ऊर्जा सूक्ष्मजगत को परिष्कृत करके उसे इस योग्य बना देगी कि सुख-शान्ति की परिस्थितियाँ उत्पन्न होने लगें और उज्ज्वल भविष्य की संभावनाएँ दैवी अनुग्रह की तरह उमड़ती, उभरती चली जाएँ। साधना वर्ष के आयोजन का जो महाप्रयोग इन दिनों किया जा रहा है, उसे मूलतः सूक्ष्मजगत के वातावरण के परिशोधन की प्रक्रिया ही समझा जाना चाहिए। जिससे परा प्रकृति को द्रवित कर मनोवाँछित प्रतिफल प्राप्त किए जा सकेंगे।

इसे ऐतिहासिक प्रयत्नों के पुनरावर्तन के रूप में भी अनुभव किया जा सकता है। इसके द्वारा अन्तरिक्ष में प्रदूषण, क्रन्दन और विनाश की विषाक्तता परिशोधित हो सकेगी। सूक्ष्म जगत को असाधारण रूप से प्रभावित परिमार्जित करने वाले इस महा-अभियान का वैदिक ऋषियों-सतयुग के महामनीषियों के मार्गदर्शन का अनुगमन ही कहा जाएगा। इसके द्वारा सत्प्रवृत्तियों का अनुपात जिस क्रम से घटती चली जाएँगी। विघातक तत्वों का सहज निराकरण होता चला जाएगा और युगक्रान्ति का उद्देश्य सुगमतापूर्वक पूरा हो सकेगा।


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