दैवी पुरुषार्थ से ही होगा सामूहिक पापों का प्रक्षालन

February 1999

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धरती की व्यवस्था सँभालने का उत्तरदायित्व स्रष्टा ने मनुष्य को सौंपा है, साथ ही उसे इतना समर्थ शरीर तन्त्र भी दिया है कि वह न केवल जीवधारियों के लिए सुख-शान्ति बनाए रहे वरन् ब्रह्माण्ड में संव्याप्त अदृश्य शक्तियों को भी अनुकूल रहने के लिए सहमत रख सके। अपने इस उत्तरदायित्व में व्यतिरेक करके जब मनुष्य अनाचार, पापाचार और उद्दण्डता बरतता है- चिन्तन को भ्रष्ट और आचरण को दुष्ट बनाता है, तो उसकी प्रतिक्रिया अदृश्य जगत का सन्तुलन बिगाड़ती है और विपत्तियों का विक्षोभ उत्पन्न करती है। दैवी-प्रकोप प्रत्यक्ष में लगते तो ऐसे हैं मानों अदृश्य द्वारा मनमानी की जा रही है, किन्तु अदृश्य और अप्रत्यक्ष को जो जानते हैं, उनका स्पष्ट मत है कि पानी में पत्थर फेंकने और छींटे उठाने की जिम्मेदारी उन लड़कों की है, जो तालाब के एक कोने पर बैठे शरारत करते रहते हैं। जल अकारण उछलने लगे और अपने जलचर परिवार के लिए संकट उत्पन्न करे, ऐसी बात है नहीं, प्रतीत भले ही होती हो।

इस वर्ष 1999 में आने वाले प्राकृतिक प्रकोपों, राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक हलचलों की आशंका से सभी चिन्तित हैं। भय अकारण है या सकारण, इसका अन्वेषण करने पर कितने ही तथ्य सामने आते हैं और अशुभ सम्भावना की पुष्टि करते हैं। परमाणु विस्फोटों के कारण बढ़ता हुआ विकिरण, विषाक्त ईंधन से उत्पन्न वायु प्रदूषण, पृथ्वी के इर्द-गिर्द चक्कर काट रहे प्रायः 5000 उपग्रहों के कारण सुरक्षा परतों में विक्षोभ, ऊर्जा के बढ़ते उपयोग से गर्मी का बढ़ना और उसके कारण हिम प्रदेशों का असन्तुलित रीति से पिघलना, भूगर्भ से खनिज सम्पदा निचोड़ लेने पर उसका खोखला एवं ठण्डा होते जाना आदि कितने ही कारण हैं, जो धरती के भीतरी, सतही और बाहरी वातावरण में विक्षोभ उत्पन्न करते देखे जा सकते हैं। इन्हें मनुष्य के साथ उद्धत छेड़खानी कह सकते हैं। छेड़ने पर तो चींटी भी काटती है, फिर नियति क्यों चूकने लगी।

अध्यात्म विज्ञान का प्रतिपादन है कि प्रकृति ही सब कुछ नहीं है। उससे भी ऊपर एक चेतन सत्ता है, जिसको ‘नियति’ कहते हैं। दिव्यदर्शी इस नियति को ही प्रधानता देते हैं और प्रकृति तथा मानवीय जीवन के सन्तुलन को बनाने-बिगाड़ने में इसी को उत्तरदायी मानते हैं। उनका कहना है कि प्रकृति से भौतिक छेड़खानी करने पर दैवी प्रकोप का बरसना एक पक्ष तो है, पर वही सब कुछ नहीं है। उससे भी बड़ी बात है मानवी-चिन्तन और चरित्र से उत्पन्न होने वाली प्रतिक्रिया, जो प्रकृति की नियामक सत्ता ‘नियति’ पर प्रभाव डालती है। अनाचरण से नियति की अन्तरात्मा क्षुब्ध होती है, फलतः उसका प्रकृति कलेवर भी आक्रोश का, आवेश का परिचय देता है। दैवी-प्रकोपों के मूल में जितना दोष प्रकृति व्यवस्था को उद्धत रूप से छेड़खानी करने का है, उससे भी अधिक भ्रष्ट चिन्तन और दुष्ट-आचरण का आश्रय लेने वाली मानवीय निकृष्टता का है। नियति उसी से रुष्ट होती है और उसी के फलस्वरूप दृश्य एवं अदृश्य विपत्तियाँ, समस्याएँ तथा विभीषिकाएँ उभरती व त्रास देती हैं।

अन्तरिक्ष विज्ञानी इन दिनों सौर-मण्डल तथा उससे ऊपर के ब्रह्माण्ड क्षेत्र का पर्यवेक्षण करते हैं, तो कहते हैं पृथ्वी के लिए वर्ष 1999 व 2000 के पूर्वार्द्ध की परिस्थितियाँ संकटों से भरी हैं। संकट का यह प्रवाह सन् 2000 ई॰ तक चलने वाला है। सभी जानते हैं कि पृथ्वी की अपनी निज की जितनी शक्ति और सम्पदा है, उसे उससे कहीं अधिक अनुदान लेकर अपना गुजारा करना पड़ता है। सौर ऊर्जा उसका प्राण है। इसके अतिरिक्त अन्य ग्रहों से आने वाले ब्रह्माण्डीय अनुदान उसे उपलब्ध होते हैं। ऊपर के वातावरण की छलनी में छनकर ध्रुवों के माध्यम से जो सम्पदा धरती को प्राप्त होती है, उसी से उसका गौरव एवं वैभव इस स्तर तक पहुँचा है। ऐसी परिस्थितियाँ न हों तो वह भी सौरमण्डल के अन्य सदस्यों, उदाहरण के लिए-बुध की तरह आगबबूला होकर, प्लूटो की तरह हिम पिण्ड बनकर, शुक्र की तरह विषाक्त, बादलों की तरह आच्छादित रहकर, निस्तब्ध श्मशान की तरह अन्तरिक्ष के एक कोने में पड़ी अपने दुर्भाग्य का रोना रो रही होती।

अन्तरिक्ष विज्ञानी अपनी गहरी जाँच-पड़ताल से पृथ्वी और अन्तरिक्ष के मध्य चले आ रहे आदान-प्रदान में विक्षेप-व्यवधान होना देखते हैं। उन दिनों उभरने वाली अन्तरिक्षीय हलचलें जो और कुछ नहीं, मनुष्य के ही पापाचार एवं अनाचार की प्रतिक्रिया हैं-अपनी चपेट में धरतीवासियों को त्रास देंगी। उन्मादी, रोगी, अपराधी स्वयं तो कष्ट सहते ही हैं, उनके स्वजन-सम्बन्धी भी तरह-तरह के कष्ट और ताने सहते हैं। कुछ इसी तरह अन्तरिक्षीय- हलचलों की प्रक्रिया अनाचारियों एवं पापियों को तो दण्डित करेगी ही, सामान्यजन भी उससे बच न सकेंगे।

अन्तरिक्ष विज्ञानियों के साथ फलित ज्योतिषी भी अपने ढंग से इस सम्बन्ध में प्रतिक्रियाएँ व्यक्त करते हैं। दोनों के कारण पृथक् होने पर भी निष्कर्ष एक ही हैं। इस वर्ष की विभीषिकाओं का भविष्य कथन दोनों ही करते हैं। भविष्य कथन की बात चल पड़े तो यहीं यह भी समझ लेना चाहिए कि सूक्ष्मदर्शी, अतीन्द्रिय क्षमता सम्पन्न ऐसे लोग भी इस धरती पर कभी-कभी देखने को मिलते हैं, जिनमें अदृश्य दर्शन की क्षमता है। ऐसे लोगों की जो अनुभूतियाँ होती हैं, उनमें ग्रहगणित नहीं, दिव्यदर्शन की अद्भुत विशेषता ही कारणभूत होती है। इनकी भविष्यवाणियों में कदाचित ही कभी कोई असम्बद्ध बैठती हो। ऐसे लोगों की एक श्रृंखला है, जिनमें कई जीवित हैं, कई दिवंगत हो चुके। इनने अपने भविष्य कथन में प्रधानतया दो तथ्य प्रस्तुत किए हैं- इन दिनों मानवीय पापों की प्रतिक्रिया स्वरूप अवांछनीयता एवं विपत्तियों का बढ़ना और कुछ समय उपरान्त स्वर्गीय सुख-शान्ति का सृजन होना।

आखिर दुखद परिस्थितियों का काल क्या होगा और सुखद संभावनाएँ कब उत्पन्न होंगी? इस संदर्भ में सूक्ष्मदर्शियों के कथन लगभग एक ही अवधि तक अपने निष्कर्षों को केन्द्रित करते हैं। सन् 1999 का यह विकराल प्रवाह सन् 2000 तक चलेगा। इस अवधि तक के समय को अधिक कष्टकारक पाया जाएगा और 2000 के बाद की परिस्थितियों में सन्तोष की साँस लेने और उज्ज्वल भविष्य के सम्बन्ध में आश्वस्त होने का अवसर मिलेगा।

उपर्युक्त पर्यवेक्षण से जिस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है वह है इस वर्ष एवं अगले वर्ष की अशुभ आशंकाएँ, परन्तु इससे किसी को भी आतंकित या भयभीत होने की आवश्यकता नहीं हैं। ऐसी हड़बड़ी तो विपत्ति को और भी कई गुना बढ़ा सकती है। कठिन समय का एक ही तकाजा है- धैर्य और साहस बनाए रखना, मनोबल न गिरने देना, साथ ही आशंकाओं को निरस्त करने वाले प्रयासों का निर्धारण करके उनकी पूर्ति में जुट जाना। हमारे लिए यही उचित है कि भौतिक एवं आत्मिक स्तर पर ऐसा प्रबल पुरुषार्थ सँजोये, जिससे रुष्ट नियति को मना लेने और क्रुद्ध प्रकृति को शान्त करने का अवसर मिले। रोग अपनी जगह है और उपचार अपनी जगह। पापों की प्रतिक्रिया स्वरूप विपत्तियाँ अपनी जगह हैं और दैवी पुरुषार्थ से सामूहिक पापों का प्रक्षालन अपनी जगह। विषम वेला में यही सबसे बड़ी बुद्धिमानी है कि आतंकित होने की मनःस्थिति उत्पन्न न होने दी जाय, साथ ही प्रचण्ड पुरुषार्थ को सँजोकर असम्भव को सम्भव बनाया जाय। इस वर्ष की विपत्ति का परोक्ष वरदान यही हो सकता है कि वह हम सबके अन्दर आत्मिक पराक्रम व जुझारू साहस उभारे। ध्वंस को सृजन से ही निरस्त किया जा सकता है। आग को पानी से ही बुझाया जा सकता है।

यह तथ्य सभी को ध्यान रखना चाहिए कि अन्तरिक्षीय शक्तियाँ जिस प्रकार पृथ्वी को, उसकी परिस्थितियों को तथा प्राणियों को प्रभावित करती हैं, ठीक उसी प्रकार प्राणवान आत्माएँ अपनी आत्मशक्ति से प्रकृति और नियति को प्रभावित और परिवर्तित करने में समर्थ हो सकती हैं। मनुष्य एक ऐसा यन्त्र है जिसमें वे सभी यन्त्र फिट हैं, जो प्रकृति को प्रभावित एवं परिवर्तित कर सकें।

भावी अशुभ सम्भावनाओं को निरस्त करने के लिए ही वर्तमान वर्ष में साधना वर्ष का आयोजन किया गया है। यह पूर्णतया सुनिश्चित है कि वर्तमान साधना वर्ष में किए जाने वाले दैवी पुरुषार्थ से ही सामूहिक पापों का प्रक्षालन सम्भव होगा। इस वर्ष की जाने वाली साधना के दैवी पराक्रम हेतु अपने देव परिजनों को उसी तत्परता से कटिबद्ध होना चाहिए, जैसे कि बंगला देश की गड़बड़ी, चीनी-आक्रमण पाकिस्तानी हमला, स्काईलैब आदि की विपत्तियों के निवारण हेतु सफलतापूर्वक निरत हो चुके हैं। अबकी बार आशंकाएँ बड़ी हैं, इसलिए हमारे सुरक्षा प्रयास भी बढ़े-चढ़े होने चाहिए। उसी का प्रारूप इस वसन्त पर्व पर प्रस्तुत किया गया है और उसमें परिपूर्ण सहयोग देने के लिए समस्त देवपरिजनों को आमंत्रित किया गया है।


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