स्वामी विरजानन्द (Kahani)

February 1999

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स्वामी विरजानन्द अपनी कुटिया में ध्यानस्थ थे। इसी बीच बाहर आहट हुई। मूलशंकर (बाद में स्वामी दयानन्द) बाहर खड़े थे। अन्दर से आवाज आई-कौन है? बाहर से उत्तर था-मैं कौन हूँ, यही तो जानने आया हूँ। विरजानन्द ने कहा-आओ! कब से तेरा इन्तजार था। प्रज्ञाचक्षु संपन्न गुरु ने ऐसे जिज्ञासु साधक को अन्दर बुला लिया और यही वह पल था जब स्वामी दयानन्द का जन्म हुआ। गुरु ने उनकी हर तरह से परीक्षा ली, आत्मबोध कराया और फिर निर्देश दिया कि समाज में व्याप्त अनाचार, कुरीतियों, धर्म के नाम पर छाये आडम्बरों को मिटाने अकेले निकल जाओ। गुरु की शक्ति लेकर शिष्य चल पड़ा और धीरे-धीरे दयानन्द सारे समाज पर छा गए।

सगर वंश में जन्मे भगीरथ ने जब पितरों को नरक की अग्नि में जलते देखा तो बहुत दुखी हुए। परित्राण हेतु उन्होंने तप किया- स्वार्थसिद्धि के लिए नहीं, परमार्थ-प्रयोजन के लिए। अगणित विघ्न-बाधाओं का सामना करते हुए चिरकाल तक उन्होंने अपनी साधना जारी रखी। कालान्तर में यह पुरुषार्थ सफल हुआ और स्वर्ग में रहने वाली गंगा पृथ्वी पर आने को सहमत हो गयीं। अपने तप से उन्होंने वह कठिन कार्य सम्भव बना दिया।

अज्ञानग्रस्त संसार में स्वर्गीय ज्ञानगंगा का अवतरण, अनाचार-अविवेक के दावानल में जलते अगणित मानवपुत्रों का उद्धार ऐसे ही पुरुषार्थी साधकों द्वारा सम्भव हो पाता है।

गोपियों ने एक बार बाँसुरी से पूछा- सुभगे! तुम्हें कृष्ण स्वयं हर समय होठों से लगाये रहते हैं और हम सब उनकी कृपा पाने के लिए बहुत प्रयत्न करते हैं, परन्तु सफल नहीं होते, जबकि तुम बिना प्रयत्न किये ही उनके अधरों पर रहती हो।

बिना प्रयत्न किये नहीं गोपियों! मुरली बोली-मैंने भी प्रयत्न किया है। जानती हो मुझे मुरली बनने के लिए अपना मूल अस्तित्व ही खो देना पड़ा है।

गोपियों को तब समझ में आई। बाँसुरी अपने आप में खाली थी। उसमें स्वयं का कोई स्वर नहीं गूँजता था, बजाने वाले के ही स्वर बोलते थे। बाँसुरी को देखकर कोई यह नहीं कह सकता था कि यह कभी बाँस रह चुकी है, क्योंकि न तो उसके कोई गाँठ थी और न कोई अवरोध। गोपियों को भगवान का प्यार पाने का अनूठा सूत्र मिल गया था।


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