आनन्द ने पूछा- भगवन्! आप प्रव्रज्या हेतु विश्वभर में दूत भेज रहे हैं, पर उनके पास साधन तो है ही नहीं। वे कैसे रहेंगे, किस प्रकार धर्म-धारणा का प्रसार कर पाएँगे- यह प्रश्न मेरे मन में अभी भी विद्यमान है?
तथागत कह उठे- भदन्त! ये दूत एक विशिष्ट सम्पत्ति अपने साथ लेकर जा रहे हैं, जो ईश्वरप्रदत्त है। अपनी इन्द्रिय, समय, विचार शक्ति रूपी विभूतियों के माध्यम से ये पुरुषार्थ द्वारा जहाँ जाएँगे, जनसहयोग, साधन, सम्पदा तथा श्रद्धा अर्जित कर लेंगे और विश्व भर में विचारक्रान्ति के अग्रदूतों के रूप में फैल जाएँगे। यथार्थ सम्पदा वही है, जा ये ले जा रहे है- बाकी तो इनकी परिणति है।
आज हम देखते हैं कि बुद्ध के ये साधनहीन परिव्राजक किस प्रकार दिग्दिगन्त में व्याप्त हो गये तथा साधन-वैभव की दृष्टि से भारत से भी अधिक उच्चकोटि के बिहार-संघाराम-बौद्ध स्तूप विदेशों में हैं तथा विस्तार की दृष्टि से यहाँ की तुलना में चीन, जापान, कम्बोडिया व सुदूरपूर्व तक बौद्ध धर्म की ही प्रधानता देखी जा सकती है।