विचार परिष्कार हेतु अनिवार्य है नियमित स्वाध्याय

February 1999

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‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’- आध्यात्मिक साधना का मूल मंत्र है। अंधकार में भ्रम होना स्वाभाविक ही है। जिस प्रकार अँधेरे में वस्तुस्थिति का ठीक-ठीक ज्ञान नहीं हो पाता-पास रखी हुई चीज का स्वरूप यथावत दिखाई नहीं देता, उसी प्रकार अज्ञान के अँधेरे में दोष की स्थिति, विषय आदि का ठीक आभास नहीं होता। वस्तुस्थिति के ठीक ज्ञान के अभाव में कुछ-का-कुछ सूझने और होने लगता है। विचार और उससे प्रेरित कार्य के गलत हो जाने पर मनुष्य का विपत्ति, संकट अथवा भ्रम में पड़कर अपनी हानि कर लेना सहज स्वाभाविक है। आज के समाज में फैली हुई बुराइयों, पतनोन्मुखी प्रवृत्तियों का कारण यही है। यही वह वजह है, जिसके कारण हम सभी सर्वनाशी ग्रहयोग की चपेट में आ गए हैं।

ज्ञान के अभाव में जनसाधारण भ्रान्तिपूर्ण एवं निराधार बातों को उसी प्रकार सच समझ लेता है, जिस प्रकार हिरन मरु-मरीचिका में जल का विश्वास कर लेता है और निरर्थक ही उसके पीछे दौड़-दौड़ कर जान तक गँवा देता है। अज्ञान का परिणाम बड़ा ही अनर्थकारी होता है। इसी वजह से समाज में अनेकों विकृतियाँ फैल जाती हैं। स्वार्थी लोग किसी अन्धपरम्परा को चलाकर जनता में यह भय उत्पन्न कर देते हैं कि यदि वे उक्त परम्परा अथवा प्रथा को नहीं मानेंगे तो उन्हें पाप लगेगा, जिसके फलस्वरूप उन्हें लोक में अनर्थ और परलोक में दुर्गति का भागीदार बनना पड़ेगा। अज्ञानी लोग ‘भय से प्रीति’ होने के सिद्धान्तानुसार उक्त प्रथा-परम्परा में विश्वास एवं आस्था करने लगते हैं और तब उसकी हानि देखते हुए भी अज्ञान एवं आशंका के कारण उसे छोड़ने को तैयार नहीं होते। देखा यही जाता है कि मनुष्य आँखों देखी हानि अथवा संकट से उतना नहीं डरता जितना कि अनागत आशंका से। अज्ञानजन्य भ्रम-जंजाल में फँसे हुए मनुष्य का दीन-दुखी रहना स्वाभाविक ही है।

यही, कारण है कि साधनापथ के मार्गदर्शक ऋषियों ने अन्धकार से ज्योतिपथ पर चलने का सन्देश दिया है। भारत का समूचा अध्यात्म-दर्शन ज्ञानप्राप्ति के उपायों का प्रतिपादक है। अज्ञानी व्यक्ति को शास्त्रकारों ने अन्धे की उपमा दी है। जिस प्रकार बाह्य नेत्रों के नष्ट हो जाने से मनुष्य भौतिक जगत का स्वरूप जानने में असमर्थ रहता है, उसी प्रकार ज्ञान के अभाव में बौद्धिक अथवा विचार जगत की नियमित जानकारी नहीं हो पाती। बाह्यजगत के समान मनुष्य का एक आत्मिक जगत भी है, जहाँ ज्ञान के अभाव में वैसा ही अँधेरा रहता है, जैसे कि आँखों के अभाव में यह संसार।

अन्धकार से प्रकाश और अज्ञान से ज्ञान की ओर जाना ही आध्यात्मिक साधना का प्रमुख उद्देश्य माना गया है। जिस प्रकार आलस्यवश दीपक न जलाकर अन्धकार में पड़े रहने वाले व्यक्ति को मूर्ख कहा जाएगा, उसी प्रकार प्रमादवश अज्ञान दूर कर ज्ञान न पाने के लिए प्रयत्न करने वाले को भी मूर्ख ही कहा जाएगा। भारतवर्ष की महिमा प्रकारान्तर से तप और स्वाध्याय की ही महिमा है। यहाँ की संस्कृति सदा से अपने अनुयायियों को विवेकशील बनने का सन्देश देती रही है, मूढ़ अथवा अन्धविश्वासी बनने का नहीं।

ज्ञानवान अथवा विवेकशील बनने के लिए मनुष्य को अपने मन-मस्तिष्क को साफ-सुथरा बनाना होगा। उसका परिष्कार करना होगा। जिस खेत में कंकड़-पत्थर तथा खर-पतवार भरा होगा, उसमें अन्न के दाने कभी भी अंकुरित नहीं हो सकते। वे तब ही अंकुरित होंगे, जब खेत से झाड़-झंखाड़ और कूड़ा-करकट साफ करके दाने बोए जाएँगे। हमारे मन-मस्तिष्क में इसी जन्म की ही नहीं, जन्म-जन्मान्तरों की विकृतियाँ भी रहती हैं न जाने कितने कुविचार-कुवृत्तियाँ एवं मूढ़मान्यताएँ हमारे मन-मस्तिष्क को घेरे रहती हैं। ज्ञान पाने अथवा विवेक जाग्रत करने के लिए आवश्यक है कि पहले हम अपने विचारों एवं संस्कारों को परिष्कृत करें। परिष्कृत विचार एवं संस्कार के अभाव में ज्ञान के लिए की हुई साधना निष्फल ही चली जाएगी।

विचार एवं संस्कार परिष्कार के लिए अमोघ उपाय स्वाध्याय एवं तप ही है। विचारों में संक्रमण एवं ग्रहणशीलता रहती है। जब मनुष्य स्वाध्याय में निरन्तर संलग्न रहता है, तब उसको अपने विचारों द्वारा विद्वानों-मनीषियों ऋषियों-महर्षियों के विचारों के बीच से बार-बार गुजरना पड़ता है। ग्रन्थों में लिखे विचार अविचल एवं स्थिर होते हैं। उनके प्रभावित होने अथवा बदलने का प्रश्न ही नहीं उठता। स्वाभाविक है कि अध्ययनकर्ता के ही विचार प्रभाव ग्रहण करते हैं। जिस प्रकार के विचारों की पुस्तक पढ़ी जाएगी, अध्येता के विचार उसी प्रकार ढलने लगेंगे। इसीलिए अध्ययन के साथ यह भी प्रतिबन्ध लगा दिया गया है कि अध्येता उन्हीं ग्रन्थों का अध्ययन करें, जो प्रामाणिक एवं आत्मोन्मुखी हों।

विचार-परिष्कार अथवा ज्ञान प्राप्त करने के उद्देश्य से पढ़ने वालों को एकमात्र जीवन निर्माण सम्बन्धी साहित्य का ही अध्ययन करना चाहिए। उन्हें निठल्ले एवं निकम्मे लोगों की तरह निम्न मनोरथ वाले उपन्यास, कहानी, नाटक आदि नहीं पढ़ना चाहिए। अश्लील, अनैतिक, वासनापूर्ण अथवा जासूसी आदि से भरे उपन्यास पढ़ने से लाभ तो कुछ नहीं ही होना है, उल्टे हानि ही बहुत अधिक होती है। अनुपयुक्त साहित्य पढ़ने से विचारों की वह थोड़ी-बहुत उदात्तता भी चली जाएगी, जो उनमें रही होगी। स्वाध्याय का तात्पर्य सत्यं, शिवं, सुंदरम् साहित्य पढ़ने से है। सद्विचारों तथा सदुद्देश्य से पूर्ण साहित्य ही पढ़ने योग्य होता है, साथ ही इसमें शाश्वत मूल्यों को, देश-काल-परिस्थिति के अनुरूप परिभाषित भी होना चाहिए। इन गुणों से भरपूर एवं सभी कसौटियों पर खरा उतरने वाला अपना युगसाहित्य ही है।

इसके विपरीत अनुपयुक्त एवं अवांछनीय साहित्य का पठन-पाठन विचारों को इस सीमा तक दूषित कर देता है कि फिर उनका पूर्ण परिष्कार एक गम्भीर समस्या बन जाएगा। आत्मोद्धारक ज्ञान प्राप्त करने के जिज्ञासु व्यक्तियों को तो सत्साहित्य एवं युगसाहित्य के सिवाय किसी दूसरे अवांछनीय साहित्य को हाथ भी न लगाना चाहिए। सच्ची बात तो यह है कि अनुपयुक्त, अवांछनीय एवं निम्न श्रेणी के मनोरंजनार्थ किए गए ‘लिपि लेखन’ को साहित्य कहा ही नहीं जाना चाहिए। यह तो साहित्य के नाम लिखा गया कूड़ा-करकट होता है, जिसे समाज के हित-अहित से मतलब न रखने वाले कुछ स्वार्थी लेखक उसी प्रकार लिखकर पैसा कमाते हैं, जिस प्रकार कोई भ्रष्टाचारी खाने-पीने की चीजों में अवांछनीय चीजें मिलाकर लाभ कमाते हैं। व्यवसायी, भ्रष्टाचारी जहाँ राष्ट्र का शारीरिक स्वास्थ्य नष्ट करते हैं, वहीं अशिव लेखक राष्ट्र का मानसिक, बौद्धिक तथा आत्मिक स्वास्थ्य नष्ट करते हैं। मनुष्य की यह आध्यात्मिक क्षति शारीरिक क्षति की अपेक्षा कहीं अधिक भयंकर एवं असहनीय होती है।

साधना वर्ष का आयोजन राष्ट्रीय एवं मानवीय जीवन में एक आत्म-स्फूर्ति आध्यात्मिक चेतना का संचार करता है। इसमें संस्कारों के परिष्कार के लिए तप की प्रक्रियाएँ तो हैं ही, साथ ही स्वाध्याय रूपी गम्भीर प्रयोग भी हैं। अपने देवपरिवार के स्वजनों से इस सम्बन्ध में कतिपय महत्वपूर्ण अपेक्षाएँ भी की गयी है। इनमें से सर्वप्रथम यह है, परिजन-दैवी सन्देश देने वाली पत्रिका अखण्ड ज्योति एवं युगनिर्माण योजना मासिक को व्यापक बनाएँ। साधना वर्ष में कोई भी निष्ठावान् साधक ऐसा नहीं होना चाहिए, जिसने अपने जैसे पाँच नये निष्ठावान् अखण्ड ज्योति के सदस्य नहीं बनाए हों। पत्रिकाओं के पठन-पाठन के साथ युगऋषि के सम्पूर्ण वांग्मय के विस्तार का अगला चरण भी अपने परिजनों को निभाना चाहिए। सम्पूर्ण वांग्मय एवं अखण्ड ज्योति का नियमित स्वाध्याय साधना वर्ष के साधकों का अनिवार्य अनुबन्ध है, ऐसा सुनिश्चित मानना चाहिए।

ध्यान रखना चाहिए कि स्वाध्याय के बिना विचार-परिष्कार नहीं, विचार-परिष्कार के बिना विवेक और विवेक के बिना ज्ञान नहीं। जहाँ ज्ञान नहीं वहाँ अन्धकार होना स्वाभाविक है और अँधेरा-जीवन में शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक तीनों प्रकार के भयों को उत्पन्न करने वाला है, जबकि प्रखर साधन वर्ष का प्रधान एवं मूलभूत प्रयोजन इस गहन और जटिल अन्धकार को दूर करना ही है। इस वर्ष का सर्वकालिक महामंत्र- तमसो मा ज्योतिर्गमय ही है, जिसकी साधना तप एवं स्वाध्याय का मिला-जुला सुयोग ही है।


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