यूनान के संत सुकरात कहा कहते थे कि “यह पेड़ और आरण्य मुझे कुछ नहीं सिखा सकते, असली शिक्षा तो मुझे सड़कों पर मिलती है।” उनका तात्पर्य यह था कि दुनिया से अलग होकर एकान्त जीवन बिताने से न तो परमात्मा को प्राप्त किया जा सकता है और न आत्मोन्नति हो सकती है। अपनी और दूसरों की भलाई के लिए संत पुरुषों को समाज में भरे बुरे लोगों के बीच में अपना कार्य जारी रखना चाहिये।
संत सुकरात जीवन भर ऐसी ही तपस्या करते रहे। वे गलियों में, चौराहों पर, हाट बाजारों में, दुकानों और उत्सवों में बिना बुलाये पहुँच जाते और बिना पूछे भीड़ को संबोधित करके अपना व्याख्यान शुरू कर देते। उनका प्रचार तत्कालीन सामाजिक कुरीतियों और अनीतिपूर्ण शासन के विरुद्ध होता, उनके अन्तःकरण में सत्य था। सत्य में बड़ी प्रभावशाली शक्ति होती है। उससे अनायास ही लोग प्रभावित होते हैं।
उस देश के नवयुवकों पर सुकरात का असाधारण असर पड़ा, जिससे प्राचीन पंथियों और अनीतिपोषक शासकों के दिल हिलने लगे, क्योंकि उनके चलते हुए व्यापार में बाधा आने की संभावना थी। सुकरात को पकड़ लिया गया, उन पर मुकदमा चला जिसमें दो इल्जाम लगाये गए। 1. प्राचीन प्रथाओं का खंडन करना, 2. नवयुवकों को बरगलाना। इन दोनों अपराधों में विचार करने के लिये न्याय सभा बैठी, सभासदों में से 220 की राय छोड़ देने की थी और 281 की राय मृत्यु दंड देने की हुई। इस प्रकार बहुमत से मृत्यु का फैसला हुआ। साथ ही यह भी कहा गया कि यदि वह देश छोड़ कर बाहर चले जायँ या व्याख्यान देना, विरोध करना बन्द कर दे तो मृत्यु की आज्ञा रद्द कर दी जायेगी।
सुकरात ने मुकदमे की सफाई देते हुए कहा-”कानून मुझे दोषी ठहराता है। तो भी मैं अपने अन्तरात्मा के सामने निर्दोष हूँ। दोनों अपराध जो मेरे ऊपर लगाये गये हैं, मैं स्वीकार करता हूँ कि वे दोनों ही मैंने किये हैं और आगे भी करूंगा। एकान्त सेवन करके मुर्दे जैसा बन जाने का निन्दित कार्य कोई भी सच्चा संत नहीं कर सकता। यदि मैं घोर स्वार्थी या अकर्मण्य बन कर अपने को समाज से पृथक कर लूँ और संसार की भलाई की तीव्र भावनाएँ जो मेरे हृदय में उठ रही हैं, उन्हें कुचल डालूँ तो मैं ब्रह्म हत्यारा कहा जाऊंगा और नरक में भी मुझे स्थान न मिलेगा। मैं एकान्तवासी, अकर्मण्य और लोक सेवा से विमुख अनुदार जीवन को बिताना मृत्यु से भी अधिक कष्टदायक समझूंगा। मैं लोक सेवा का कार्य बन्द नहीं कर सकता, न्याय सभा के सामने मैं मृत्यु को अपनाने के लिये निर्भयतापूर्वक खड़ा हुआ हूँ।”
संसार का उज्ज्वल रत्न, महान दार्शनिक संत सुकरात को विष का प्याला पीना पड़ा। उसने खुशी से विष को होठों से लगाया और कहा-”स्वार्थी एवं अनुपयोगी जीवन बिताने की अपेक्षा यह प्याला मेरे लिये कम दुखदायी है।” आज उस महात्मा का शरीर इस लोक में नहीं है, पर लोक सेवा वर्ग का महान् उपदेश उसकी आत्मा सर्वत्र गुँजित कर रही है।
महादेव गोविन्द रानाडे-