दुर्व्यवहार

September 1942

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(श्री मंगलचन्द भंडारी, अजमेर)

गत जनवरी मास की बात है, मैं अखण्ड ज्योति कार्यालय मथुरा से विदा होकर अजमेर आ रहा था। रेल में ज्यादा भीड़ थी, प्रायः आगे से ज्यादा यात्री खड़े-खड़े ही आ रहे थे। इसी तरह मुझे भी बैठने को स्थान न मिला और खड़ा ही रहना पड़ा। जबकि हम सब खड़े-खड़े ही आ रहे थे एक आदमी उस डिब्बे की एक सीट को घेरे हुए पड़ा था। बड़े रौब से सो रहा था, कोई उठाता और पैर समेटने के लिये कहता तो वह बहुत बिगड़ता और बुरी तरह फटकार लगा देता। यात्री चुप हो जाते। कई स्टेशनों तक यह हालत जारी रही।

आगे चलकर डिब्बे में टिकट चैकर महोदय आये। सब के टिकट जाँचते-2 वे उसके पास भी पहुँचे और सोते से जगा कर टिकट माँगा। टिकट उन हजरत के पास था नहीं, इधर-उधर की बातें बनाने लगे। छह आदमियों की जगह पर सोकर बिना टिकट चलने वाले इस बदमाश की हरकत पर चैकर बाबू को बड़ा गुस्सा आया, उनने सबके सामने उसकी करारी मरम्मत कराई और जेल में भेजने के लिये पुलिस के हवाले कर दिया।

उस घटना ने मुझे एक मनोवैज्ञानिक रहस्य सिखाया, वह यह कि जो ज्यादा अकड़ता है और सब से टेढ़ा-टेढ़ा बोलता है, समझना चाहियें कि इसके अन्दर चोरियाँ और बदमाशियाँ भरी हुई हैं और पेट में भरे हुए उन्हीं सड़े हुए दुर्गुणों की बदबू रूपी कटु शब्द उसके मुख में से निकल रहे हैं। सज्जन पुरुष सदैव नम्रतापूर्वक व्यवहार करते हैं।


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