(श्री सच्चिदानन्द मिश्रा, जमालपुर)
करीब आठ-दस वर्ष की बात है। एक संभ्रांत कुल की कन्या की शादी हुई। पतिगृह जाते समय उसके पास यथेष्ट आभूषण नहीं थे। समय के फेर से उस समय उसके घर की हालत अच्छी नहीं थी। उसके मकान के बगल में ही एक मुन्शीजी का मकान था। बगल में रहने से काफी घनिष्ठता हो गई थी। मुन्शीजी बड़े ही उदार हृदय के थे, उनकी पत्नी भी वैसी ही थी। कन्या का पिता मुन्शीजी के घर गया। उसने उनके सामने अपनी फरियाद पेश की। इज्जत की बात थी, बिना कुछ आना-कानी किये, मुन्शी जी ने अपनी स्त्री के आभूषण उन्हें दे दिये। उन्हें पहना कर कन्या को पति-गृह भेज दिया गया।
करीब तीन महीने बाद वह पतिगृह से लौटी। वह सभी लोगों से भेंट करने के पश्चात् मुन्शी जी के घर भी गई। कुशल मंगल पूछने के पश्चात् मुन्शी जी की पत्नी ने अपने आभूषणों की इच्छा प्रकट की। पर लड़की ने देने से इन्कार कर दिया। मुन्शी जी की पत्नी को यह बहुत बुरा मालूम हुआ। उन्होंने क्रोध में आकर बलपूर्वक अपने आभूषण छीन लिए। बात आगे बढ़ी। लड़की ने प्रतिकार लेने की ठानी। उसका पिता अफीम सेवन करता था। एक दिन मौका देखकर उसने मुन्शी जी के पाँच छः वर्षीय लड़के को मिठाई में मिला कर अफीम खिला दी। थोड़ी ही देर में उसकी हालत खराब होने लगी। बच्चे को अस्पताल में भरती कराया गया। बचने की कोई आशा न थी। बहुत उपचार करने पर वह होश में आया। पूछे जाने पर उसने सच्ची-सच्ची बातें कह दी। मामला संगीन हो गया। पुलिस कन्या को गिरफ्तार करने के लिए उसके मकान पर पहुँची, कन्या के पिता ने गिड़गिड़ाते हुए मुन्शी जी के सामने करबद्ध प्रार्थना की कि किसी प्रकार हमारे कुल की लाज बचा लीजिए। साधु हृदय मुन्शी जी ने झूठा बयान लिखा कर मामले को शान्त करा दिया।
थोड़े दिन बाद उस लड़की को एक सन्तान हुई, किन्तु वह कुछ ही दिन जीवित रह कर मर गई। इसके बाद उसके माँ बाप की मृत्यु हुई। अन्त में वह स्वयं भी इस लोक की लीला समाप्त कर निम्न पंक्ति को अक्षरशः चरितार्थ करते हुए सदा के लिए चली गई-
“रहा न कुल कोउ रोवन हारा”।
उसी समय से हमारी यह धारणा पक्की हो गई कि दुनिया की कोई भी शक्ति अधर्म के बल पर किसी को सताती है, तो देवी कोप से जल कर वह स्वयं भी सदा के लिए मिट जाती है।