जीवित-मृत्यु

September 1942

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(ले.-श्री रामकृष्ण जी परमहंस)

मेरी स्त्री को मेरे संन्यासी हो जाने से रंज हुआ और वह तीस चालीस मील पैदल चलकर दक्षिणेश्वर मेरे पास आई। मैंने उसका बड़े भक्ति भाव से आदर किया और उसके चरणों पर गिर कर कर कहा-”माता! तुम्हारा पति राम-कृष्ण तो मर गया। यह नवीन रामकृष्ण है, जो संसार की समस्त स्त्रियों को माता समझता है।” स्त्री पर मेरे हृदय गत भावों का सच्चा प्रभाव पड़ा। वह बोली-”मेरी भी यही इच्छा है कि मैं अपने को आपके अनुरूप बनाने का प्रयत्न करूं। मैं केवल यही चाहती हूँ कि आपकी सेवा में और ईश्वर भजन में अपना काल यापन करूं।” वह मुझे गुरु भाव से मानती हुई मन्दिर में रहने लगी। हम दोनों की यह भली भाँति समझ में आ गया कि दृष्टिकोण में परिवर्तन हो जाने से मनुष्य की मृत्यु होकर नवीन जन्म होता है, भले ही पुराना शरीर जीवित बना रहे।


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