सादगी का बड़प्पन

September 1942

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(स्व. श्री ईश्वरचन्द्र जी विद्यासागर)

एक सज्जन हाथ में छोटा सा बैग लिए हुए कुली की तलाश कर रहे थे, कोई कुली न मिला, तो उन्होंने मुझे मामूली पोशाक का व्यक्ति समझ कर पुकारा और कहा-”हमारा सामान ले चलेगा?” मैंने बिना कुछ कहे उसका बैग सिर पर रख लिया। उन्होंने कहा, हमें-”ईश्वर चन्द्र विद्या सागर के घर जाना है। तूने उनका घर देखा है?” मैंने कहा-हाँ बाबू जी देखा है, मैं आपको वहीं पहुँचा दूँगा। जब मैं उन्हें ले आया, तो चार पैसे हाथ पर रखते हुए कहा- ले यह तेरी मजदूरी है। अब जरा विद्यासागर जी को घर से बुला दे। मैंने उनके पैसे वापिस कर दिये और कहा-बाबू जी मुझे ही-ईश्वर-चन्द्र विद्या सागर’ कहते हैं। इतना सुन कर वह बहुत लज्जित होने लगे और क्षमा माँगने लगे। मैंने कहा-इसमें क्षमा माँगने की क्या बात है। मेरा बड़प्पन तो सादगी में ही है।


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