ऋषियों के अनुभव

September 1942

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आसुरी शक्तियाँ जब अपने पूर्व सुकर्मों का भोग समाप्त करके नष्ट होने को होती हैं तो उनका अन्तिम समय बड़ा ही विकराल होता है। दीपक जब बुझने को होता है तो एक बार बड़े प्रबल वेग से चमकता है और फिर सदा के लिये शाँत हो जाता है। चींटी अपने अंतिम समय में पंख उपजाती है और सुदूर आकाश पर अपना आधिपत्य जमाने की इच्छा करती हुई काल के गाल में चली जाती हैं। हर वस्तु का अन्तिम समय दुखदायी होता है। खास तौर से असुर वृत्ति तो अपनी मृत्यु से पूर्व बड़ी ही विकराल हो जाती है। अन्तिम दिनों में रावण के अत्याचार असह्य हो उठे थे, उसके कर्मचारियों ने ऋषियों को मार-मार कर अस्थियों के पर्वत जमा कर दिये थे, देवताओं को बाँध बाँध कर कारागार भर दिया था। किसी की हिम्मत उसके विरुद्ध एक शब्द कहने की न थी क्योंकि बड़े-बड़े सुभट शूरमा उसके साथ थे। उसकी शक्ति को देखकर दिक्पाल काँपते थे। रावण के अन्यायों से संसार में सर्वत्र हाहाकार मच गया था। कोई भी व्यक्ति चैन से न बैठ पाता था, आशंका से सभी के हृदय हर वक्त धड़कते रहते थे।

ऐसे विकट समय में त्रेता युग के विचारवान ऋषियों का संघ एकत्रित हुआ और उद्धार का उपाय सोचने लगा। आध्यात्म दृष्टि से विचार करके सब ने निश्चय किया कि रक्त दान किये बिना इस भीषण आपत्ति का निवारण न होगा। एक घड़ा मंगाया गया। ऋषियों ने अपने अस्थि-पिंजर शरीरों में से अधिक से अधिक खून निकाला और उस घड़े को भर दिया। खून से भरा हुआ घड़ा एक खेत में गाढ़ दिया गया। कथा है कि राजा जनक ने वह खेत जोता तो वही घड़ा सीताजी के रूप में प्रकट हुआ। कुछ साल उपरान्त सीता के कारण ही वह रावण रामचन्द्रजी द्वारा समूल नाश कर दिया गया, उसकी सोने की लंका जल बल कर भस्म हो गई। कारागार से देवता मुक्त हुए और संसार को सुख शान्ति देने वाला राम राज्य स्थापित हो गया।

भारतीय तत्ववेत्ता ऋषि तपस्वी सदा से यह अनुभव करते रहे हैं कि जब असुरत्व अत्यन्त विकराल रूप धारण करके संसार को ग्रस जाने का प्रयत्न करता है, दोषी-निर्दोष का न्याय-अन्याय का विचार छोड़कर असत्य और दमन के बल पर अपनी सर्वभक्षी लालसाओं को पूर्ण करने के लिये आकुलता पर उतर आता है, तब उसका नाश बहुत ही निकट समझना चाहियें। इसी प्रकार वे ऋषि लोग यह भी अनुभव करते रहे हैं कि असुरत्व का विनाश करने के लिये रक्तदान सर्वोच्च अस्त्र है। रावण को वह रक्त का भरा हुआ घड़ा ले डूबा। वृत्तासुर का वध दधीचि ऋषि की हड्डियों के वज्र से हुआ। त्रेता के ऋषियों का सुनिश्चित मत था कि आत्मत्याग के साथ धर्म के लिए किया हुआ रक्त दान बड़े से बड़े संकट को निवारण करने की शक्ति रखता है।


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