(श्री दरबारीलाल जी ‘सत्य भक्त’)
सागर पाठशाला में चौके का विचार तो रखा जाता था, जो कि थोड़ा बहुत समझ में आता था, पर वहाँ जो ब्राह्मण अध्यापक थे उनका चौका पंथ बिलकुल समझ में नहीं आता था। हमारे नैयायिक जी मैथुल देश के निवासी थे। वहाँ ब्राह्मण लोग माँस, मछली का शाक, केंचुए, झींगुर आदि बरसाती कीड़ों का अचार तक खाते थे। हमारे नैयायिक जी ने जलचरों के वनस्पति सूचक नाम रख छोड़े थे। जैसे मछली को वे जल सेम कहते थे। इसी प्रकार जल तोरई, जल ककड़ी आदि बहुत से नाम थे। ऐसे सर्वभक्षी पंडित जी चौके का बड़ा विचार करते थे। मुझे कभी-कभी उनके चौके में लकड़ी ले जानी पड़ती थी। एक दिन लकड़ी ले जाते समय मेरा पैर चौके की किनार के कुछ भीतर पड़ गया। उस समय उनकी रसोई बन रही थी, पर मेरा पैर पड़ने से सब रसोई अशुद्ध हो गई। मुझे काफी गालियाँ खानी पड़ी। मुझे इन सब बातों के रंज की अपेक्षा इस बात का आश्चर्य अधिक था कि पेट में तो मुर्दा माँस तक चला जाता है, उस से मुँह और पेट अशुद्ध नहीं होता और चौके में मेरा पैर पड़ जाने से सब अशुद्ध हो गया। इतने बड़े नैयायिक जी इतना न्याय क्यों नहीं समझते?