सन् 1811 की बात है, राजा राम मोहनराय के बड़े भाई जगमोहनराय की मृत्यु हो गई। उस समय विधवा को भार रूप समझ कर उसके जीवन भर के खर्चों से छुटकारा पाने के लिये धर्मध्वजी लोगों ने सती प्रथा का चारों ओर बोल-बाला कर रखा था। जगमोहनराय के विवाहिता स्त्री को कुटुम्बियों ने पति के साथ सती होने के लिये बढ़ावा दिया, वह बेचारी किसी प्रकार तैयार हो गई।
चिता में आग लगाई गई। अग्नि की कराल लपटों का जब उस अबोध बाला से स्पर्श हुआ तो उसका धैर्य टूट गया। वेदना से व्याकुल हो कर वह चिता में से जलती-बलती हुई बाहर दौड़ी, पर इससे तो धर्मध्वजियों की नाक ही कट जाती। कुटुम्बियों ने बाँस मार-मार कर उसका सिर तोड़ दिया और उस अधजली को फिर चिता में झोंक दिया। ‘सती’ की आर्त वाणी उपस्थित लोगों को सुनाई न पड़े, इसलिये बड़े जोर-जोर से बाजे बजाने की व्यवस्था नियत परम्परा के अनुसार हो रही थी।
राममोहनराय उस समय छोटे ही थे। उन्होंने धर्म के नाम पर शैतान को ताण्डव नृत्य करते देखा तो आँखों में खून के आँसू उतर आये। वह मनुष्य ही क्या जिसकी भुजायें अनीति को देखकर न फड़क उठे। भावज की नृशंस हत्या को देखकर राय की छाती में ज्वालामुखी बल उठा, उन्होंने चिता की परिक्रमा करके श्मशान भूमि में ही प्रतिज्ञा की कि-” जब तक इस नर हत्या की नृशंस प्रथा का अन्त न कर लूँगा तब तक चैन से न बैठूँगा।”
सब लोग जानते हैं कि राजाजी ने सती प्रथा बन्द कराने के लिये अथक परिश्रम किया। देश भर में आन्दोलन करके लोकमत तैयार किया और सरकार पर प्रभाव डालकर इस हत्याकाँड को रोकने का कानून बनवा दिया। भावज के सती होने से 19 वर्ष के अन्दर वह प्रथा उन्होंने बन्द करा दी, इस बीच में एक भी दिन ऐसा न गया, जब उन्होंने प्रतिज्ञा पालन के लिये कुछ प्रयत्न न किया हो।
सच्ची लगन रखने वाले वे व्यक्ति जो अपने अन्दर मनुष्यता के गुण धारण किये हुए हैं, निस्सन्देह अपनी प्रतिज्ञा को पूरा कर ही लेते हैं और ईश्वर उनके कामों में भरपूर सहायता देता है।
ग्रीस का ऋषि ईसप-