(पं. गंगाचरण शर्मा गोरमी)
सन् 1896 की बात है। श्रावण की पूर्णिमा रात हो चुकी थी, पानी न बरसने के कारण लोगों के मुंह सूख चुके थे, मवेशियों को चारा तक पैदा न हुआ था जो कुछ शाखा खड़ी थी वह भी सूख चुकी थी। अकाल का स्पष्ट भान हो रहा था, जनता में त्राहि-2 मची हुई थी।
हमारे गाँव के कुछ लोगों के हृदय में हरि कीर्तन करने की प्रेरणा हुई। गौतम ऋषि जी के मन्दिर पर हरि कीर्तन होना आरम्भ हुआ। कुछ लोगों ने इसका उपहास भी किया। कई लोगों ने इसे पानी बरसने की कामना में भी परिणत कर दिया। कुछ व्यक्ति निष्काम भाव से भी प्रेमपूर्वक एकत्रित हुए।
पन्द्रह दिन अखंड कीर्तन होते-होते इसी बीच में पानी बड़े जोर से बरसने लगा। यहाँ तक कि कीर्तन होने की जगह पर शाया करना पड़ा। सर्वत्र आनन्द छा गया। लोगों को भगवत्कृपा पर पूर्ण विश्वास हुआ। वास्तव में हरि कीर्तन की महिमा अपार है। इससे बड़े-बड़े विघ्न दूर हो जाते हैं।