धर्म का उपदेश

September 1942

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(डॉ. रामकरन सिंहजी वैद्य, जफारपुर)

मैं कुछ दिनों तक बुरी वासनाओं में पड़ कर भटकता रहा, दैवयोग से मेरे यहाँ एक महात्मा का आगमन हुआ। उन्होंने मेरे आत्मा का सारा भेद इस भाँति मुझ से कहा कि मेरा हृदय कम्पित हो गया। मैंने उनके चरणों में गिर कर अपने इन पापों के उद्धार का उपाय पूछा। उन्होंने मुझे धर्म पर चलने और ईश्वर का भजन करने का उपदेश दिया। मैं तब से उसी के अनुसार आचरण कर रहा हूँ।

कुछ दिनों पश्चात् मेरे कर्त्तव्य में फिर कुछ ढिलाई आने लगी। इसी समय एक घटना ने मुझे सचेत कर फिर ठीक मार्ग पर लगा दिया। वह घटना सन 1939 में हुई। मैं अकेला रात के समय एक स्थान से आ रहा था कि अचानक सामने किसी ने आकर कहा-”ठहरो, मैं भी साथ चलूँगा।” आँख उठाकर देखा तो सामने करीब 10 गज लम्बा काले वर्ण का एक भयंकर मनुष्य खड़ा था। उसे देखकर मैं घबराया और आंखें बन्द कर के वहीं बैठ गया एवं गायत्री मन्त्र का जप करने लगा। दस मिनट बाद मैंने आंखें खोली, तो देखा वही महात्मा जी सामने खड़े हँस रहे हैं। उनको देख कर मुझे धैर्य बँधा और चरण पकड़ कर पूछने लगा कि-”प्रभो! यह क्या भयानक दृश्य प्रकट हुआ, इसका भेद मुझे बतलाइये?” महात्माजी ने कहा-”बेटा! यह जो काली मूर्ति तुझे दिखाई दी यह पाप था, मैं धर्म हूँ। तेरा मन फिर नीचे गिर रहा था, इसलिए पाप ने प्रकट होकर इच्छा प्रकट की कि मैं तेरे साथ चलूँगा। किन्तु तूने मुझ धर्म का स्मरण किया, इसलिए तेरे सामने खड़ा हूँ और बारबार समझाता हूँ कि, पाप के पंजे से बच, यह बड़ा भयंकर है। जिसके साथ यह हो लेता है, उसका सर्वनाश करके ही छोड़ता है।” इतना कह कर वे अदृश्य हो गये। मैं भयभीत और घबराया हुआ भागा, पीछे मुड़ कर देखने की हिम्मत न होती थी, डेढ़ फर्लांग रास्ता जैसे-तैसे पार कर के गाँव में पहुँचा।

तब से मैं बहुत सावधान हूँ और पाप से बचता हुआ, धर्म मार्ग पर चलने का निरन्तर प्रयत्न करता रहता हूँ।


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