सुख कहाँ है?

September 1942

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(सा. र. अमरनाथ शर्मा ‘अमर’, द्वाराहाट)

पृथ्वी पर हर एक जीव सुख की इच्छा करता है। पशुओं का तो देह सुख ही एक मात्र लक्ष्य है, पर प्राणि-जगत् के राजा सभ्य मनुष्य भी इस विषय में उन से बहुत बढ़े-चढ़े नहीं हैं। हम बहुधा शारीरिक सुख तथा मानसिक सुख को ढूँढ़ते फिरते हैं पर जो सब से उत्तम सुख है, उस आध्यात्मिक सुख की हमें खबर ही नहीं है। हमारे जितने भी कार्य हैं, उनमें जड़ सुख पाने की एक इच्छा छिपी रहती है। हम स्थूलदर्शी मनुष्य बाहरी वस्तुओं से ही सुख पाने की इच्छा रखते हैं। क्या बाहरी वस्तु किसी को सुख दे सकती है? इस जगत् में हमारे सुख के सामान बाहर नहीं, भीतर हैं। अर्थात् सुख पाने के लिए बाहर ढूँढ़ना वृथा है। हिन्दू शास्त्र भी इस बात का प्रमाण देते हैं कि, बिना मन का तत्व-निर्णय किये बाह्य जगत् के सुखों की कोई आशा नहीं। इसलिए मन का तत्व जानना और उस पर पूरा अधिकार जमा लेना अत्यंत आवश्यक है, मन को जीत लेने से ही हम संसार को जीत लेंगे।

बाह्य उपद्रवों का अन्त नहीं है, एक को मिटाओ तो दूसरा आ खड़ा होता है। चित्त की अवस्था एक सी नहीं रहती, कहाँ तक उसके पीछे पड़े रहें? जब हिरन के शरीर में कस्तूरी पैदा हो कर वन को अपनी महक से भरपूर कर देती है, तब हिरन उन्मत्त की भाँति उस गन्ध का पता लगाने को इधर-उधर दौड़ता फिरता है। फिर दौड़ने पर भी क्या वह उस वास का भेद जान जाता है? उसे तो साफ मालूम होता है कि वह अपूर्व महक बाहर की किसी वस्तु से आती होगी।

मनुष्य के लिये भी सुख की, आनन्द की खान भीतर ही है। उसकी झलक बाहर भी दिखाई देती है, पर वह केवल झलक ही है। शास्त्र का कथक ठीक ही है कि यदि सत्य वस्तु, ब्रह्म या परमात्मा का रूप जानना हो, तो हमें अपने चित्त को क्षण भर के लिए स्थिर बनाना पड़ेगा इसे साधन धर्म का अंग कहते हैं। इसलिये स्थायी सुख प्राप्ति के लिये हमें धर्म का आश्रय लेना पड़ेगा। धर्म ही हमें वर्तमान मुहूर्त के क्षणिक सुख के बदले भविष्य में होने वाले अक्षय सुख का मार्ग बताता है। हमें परम मित्र की भाँति विपत्तियों में दिलासा देकर कहता है कि-”थोड़ा धीरज धरो, ऐसा दिन नहीं रहेगा।” हम आशा लिये प्रयत्न करते हैं और दुःख से उत्तीर्ण हो जाते हैं, जब हिंसा द्वेष की प्रबल आग हमारे दिल में धधकती है, तो धर्म ही हमारा ध्यान इस बात पर आकृष्ट करता है कि, जिन पर हम कुपित हुए, वे तो हमारे भाई हैं, इतना ही नहीं वे और हम एक ही आत्मा हैं। स्थिर होकर मनन कर, वह बात सत्य ही जँचती है, जिससे चित्त शान्त हो जाता है।

कौन कह सकता है कि धर्म की सेवा फलदायक नहीं होती? यदि हम हम सत्य और धर्म को अपने जीवन का कर्णधार बना लें, तो मजे से जन्म मृत्यु से पार हो सकते हैं। तब संसार हमारे लिये डरावनी जगह नहीं रहती हैं। दृष्टि साफ हो जाने से हम देखते हैं कि यह तो खेलने का विस्तृत मैदान है, जहाँ परमात्मा ही नाना वेश धरे खेल रहे हैं।


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