(पं. जवाहरलाल नेहरू)
चौरीचौरा काण्ड के बाद हमारे आन्दोलन के एकाएक मुल्तवी किये जाने से मेरा ख्याल है, गाँधी को छोड़ कर काँग्रेस के बाकी तमाम नेताओं में बहुत ही नाराजगी फैली थी। मेरे पिताजी जो उस वक्त जेल में थे, उन पर बहुत ही बिगड़े थे कुदरतन् नौजवान काँग्रेसियों को तब यह बात और भी ज्यादा बुरी लगी थी। हमारी बढ़ती हुई उम्मीदें धूलि में मिल गई। इसलिए उनके खिलाफ इतनी नाराजगी का फैलना स्वाभाविक ही था। आन्दोलन के मुल्तवी किये जाने से जो तकलीफ हुई, उससे भी ज्यादा तकलीफ मुल्तवी किये जाने के जो कारण बताये गये, उनमें तथा उन कारणों से पैदा होने वाले नतीजों से हुई। हो सकता है कि चौराचौरा एक खेदजनक घटना हो, वह थी भी खेदजनक और अहिंसात्मक आन्दोलन के भाव के बिलकुल खिलाफ, लेकिन क्या हमारी आजादी की राष्ट्रीय लड़ाई कम से कम कुछ वक्त के लिए महज इस लिए बन्द हो जाया करेगी कि कहीं बहुत दूर के किसी कोने में पड़े गाँव में किसानों की उत्तेजित भीड़ ने कोई हिंसात्मक काम कर डाला? अगर इस तरह अचानक खून-खराबे का यही अटल नतीजा होता है, तब तो इस बात में कोई शक नहीं कि अहिंसात्मक लड़ाई की विद्या और उसके मूल सिद्धान्त में कुछ कमी हैं, क्योंकि हम लोगों को इसी तरह की किसी न किसी अनचाही घटना के न होने की गारंटी करना और गैर मुमकिन मालूम होता था। क्या हमारे लिए यह लाजमी है कि आजादी की लड़ाई में आगे कदम रखने से पहले हम हिन्दुस्तान के तीस करोड़ से भी ज्यादा लोगों को अहिंसात्मक लड़ाई का उसूल और उसका अमल सिखावें और यही क्यों हममें से कितने हैं जो यह कह सकते हैं कि पुलिस से बहुत ज्यादा उत्तेजना मिलने पर भी हम लोग पुरी तरह शान्त रह सकेंगे? लेकिन अगर हम इसमें कामयाब भी हो जाय, तो जो भड़काने वाले एजेन्ट और चुगलखोर वगैरह हमारे आन्दोलन में आ घुसते हैं और या तो खुद ही कोई मारकाट कर डालते हैं या दूसरों से करा देते हैं, उनका क्या होगा? अगर अहिंसात्मक लड़ाई के लिए यही शर्त रही कि वह तभी चल सकती है, जब कहीं कोई जरा भी खून खराबी न करे, तब तो अहिंसात्मक लड़ाई हमेशा असफल ही रहेगी।
हम लोगों ने अहिंसा के तरीके को इसलिए मंजूर किया था और काँग्रेस ने भी इसीलिए उसे अपना साधन बना लिया था कि हमें यह विश्वास था कि वह तरीका कारगर है। गाँधी जी ने उसे मुल्क के सामने महज इसी लिए नहीं रखा था कि वह सही तरीका है बल्कि इसलिए भी कि हमारे मतलब के लिए वह सब से ज्यादा कारगर था।
-मेरी कहानी