कीर्तन की महिमा

September 1942

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(पं. श्रीराम शर्मा, ज्योतिर्विद्, किरताण, हिसार)

यों तो मैं कभी-2 कीर्तन में शामिल हो जाता था, पर नियमबद्ध नहीं था। एक दिन उधर से रात्रि के समय जा रहा था, तो देखता हूँ कि ऊपर के कमरे में कीर्तन की आवाज सुनाई दे रही है। मैं भी ऊपर चला गया और देखा कि भगवान कृष्ण की प्रतिमा पर पुष्पों के हार चढ़े हुए हैं और पास में भक्तों की प्रतिमायें शोभायमान है। उस कीर्तन के अधिष्ठाता मेरे सुयोग्य मित्र कुँ. बनवारीलालजी आजाद थे। कुँ. साहब के विचार कीर्तन के विरुद्ध थे। इस परिवर्तन का कारण मैंने उनसे पूछा तो उन्होंने उत्तर दिया-

“अभी दस दिन हुए, बद्रीनारायण, केदारनाथ की यात्रा करके आया हूँ। वहाँ रास्ते में एक दिन मैं और पं. इन्द्रसेनजी स्नान के बाद भगवान् चैतन्य महाप्रभु का कीर्तन करने लगे, तो यकायक क्या देखते हैं कि एक महात्मा खड़ाऊ पहिने और एक हाथ में कमंडल और दूसरे में माला जपते हुए आ रहे हैं। हम दोनों ने उनको आते देख कर दूर से ही दौड़ कर साष्टाँग प्रणाम किया। उनके मुख से एक ही शब्द निकला ‘ओऽम्’ और वे जरा सी देर में आँखों से ओझल हो गये। हम हैरान रह गये कि वे कहाँ गये, बहुत ढूंढ़ने पर भी कहीं पता न चला। उस समय से मुझे ऐसा विश्वास हो गया है कि भगवान के भजन कीर्तन में विशेष महिमा है, इसके आधार पर ऊँची-ऊँची आत्माओं की कृपा प्राप्त हो सकती है। इसीलिए अब मैं कीर्तन का अत्यन्त प्रेमी बन गया हूँ।

कुँ. साहब के इन विचारों को सुनकर कीर्तन में मेरा विश्वास और भी अधिक दृढ़ हो गया है।


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