(श्री ‘अमर जी’ तालबेहट)
बचपन से ही मैं सोचा करता था कि मैं विद्वान और धर्म प्रचारक बनूँगा। वे विचार धीरे-धीरे दृढ़ होते गये। विद्या पढ़ने में अत्यधिक रुचि रहती, विद्वान बनने की तीव्र लालसा से अध्ययन में अत्यधिक श्रम करने लगा। सुना करता था कि ईश्वर सच्ची लगन को पूरा कर देते हैं। रामायण में पढ़ा था कि “जेहि कर जेहि पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलत न कछु सन्देहू।” परन्तु अपनी तत्कालीन परिस्थितियों के कारण मन में यह आशंका उठती रहती कि न जाने सफल हो सकूँगा या नहीं।
अब मैं युवावस्था में पदार्पण कर रहा हूँ और देखता हूँ कि बचपन की अभिलाषाएं सफल होने जा रही हैं। हिन्दी और संस्कृत का माध्यामिक अभ्यास कर चुका हूँ। पत्र-पत्रिकाओं में लेख, कविताएं बराबर प्रकाशित होते रहते हैं। ज्ञान का प्रकाश दिन-दिन बढ़ता जाता है। गत वर्ष एक हारमोनियम खरीद लिया है। बजाने का अभ्यास चल रहा है। दिखाई पड़ता है कि निकट भविष्य में धर्म प्रचार करने का कार्य-क्रम बनेगा।
संस्कृत विद्यालय पिछले दिनों से बिना किसी आर्थिक सहायता के चल रहा है। अन्य प्रगतियाँ भी यथाविधि जारी है है। मुझे प्रोत्साहित करने वाले साधन इन विकट परिस्थितियों में भी कहीं न कहीं से जुट ही जाते हैं। इससे प्रतीत होता है कि ईश्वर मेरी बचपन की मनोवाँछाओं का पूरा करने वाले हैं। मेरा यह विश्वास दिन-दिन दृढ़ होता जाता है कि सच्ची लगन की पूर्ति अवश्य ही होकर रहती है।