धर्म की जय

September 1942

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(श्री ‘लक्षमनजी’, मैनपुरी)

नगर कीर्तन का जुलूस स्थानीय श्री एक रसानंद आश्रम से गाँधी पार्क तक आ गया था। उत्सव का दृश्य बड़ा ही मनोहर था। सब से आगे श्री स्वामी नारदानन्दजी की सवारी थी। पीछे-पीछे अनेक महात्माओं की सवारियाँ थी। इसी पावन समय में अचानक एक हाथी जिस पर श्री स्वामी जी बैठे हुए थे, बिगड़ गया और चिंघाड़ मारने लगा। चिंघाड़ का शब्द सुनते ही गाड़ियों में जुते हुये भैंसे हजारों मनुष्यों की भीड़ में भागने लगे। दर्शकों की घबराहट का ठिकाना न था। हर एक व्यक्ति यही सोच रहा था कि न जाने क्या आपत्ति आवेगी, कितने मरेंगे और न जाने कितने घायल होंगे।

“धर्म की जय” के चारों ओर नारे लग रहे थे। परमात्मा से सभी की यह प्रार्थना थी कि हे भगवान्! किसी प्रकार इस संकट का निवारण हो जाय।

अव्यवस्था कुछ देर में शान्त हो गई, गड़बड़ पर काबू प्राप्त कर लिया गया। पता लगाया कि इस दुर्घटना में कितने मरे और कितने घायल हुए, तो पता चला कि न तो एक भी मरा है और न एक भी घायल हुआ है। इस सुसम्वाद से उपस्थित जनता को बहुत आनन्द हुआ और सभी को यह विश्वास हो गया कि “धर्म की जय’ होती है।


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