जातीयता का स्वाभिमान

September 1942

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सर आशुतोष मुकर्जी का सरकारी क्षेत्रों में बड़ा मान था। अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के इस गणितज्ञ विद्वान एवं प्रतिष्ठित शिक्षाशास्त्री से ऊँचे ओहदे के अँगरेज अफसरों में अक्सर मिलना जुलना होता रहता था। बंगाल के गवर्नर महोदय से भी उनकी बहुत बार भेंट हुआ करती थी।

उन दिनों अँग्रेजी शासन भारत में नया-नया ही कायम हुआ था। इसलिए अंग्रेज लोग अपनी जातीय श्रेष्ठता का सिक्का भारतीयों के मन पर जमाने के लिये बड़े सचेष्ट रहते थे। इस समय इस नियम का कड़ाई से पालन होता था कि अंगरेज अफसरों से भेंट करते समय सरकारी कर्मचारियों को सूट-बूट की अंगरेजी पोशाक पहननी चाहियें। इच्छा से या अनिच्छा से सभी को यह नियम पालन करना पड़ता था।

परन्तु सर मुकर्जी दूसरी ही धातु के बने हुए थे। जातीय स्वाभिमान उनमें कूट-कूट कर भरा हुआ था। उनकी अपनी पोशाक कुर्ता, धोती थी। इसी वेश में सरकारी अफसरों से मिलते थे। इस कारण इनमें सभी हाकिम नाराज रहते थे। इस नाराजी के कारण उन्हें जो ऊँचे पद मिलने चाहियें थे वे न मिल सके। मित्र लोग उनसे पूछा करते थे कि आप अपनी बात को छोड़कर हाकिमों के प्रिय पात्र क्यों नहीं बन जाते? इस पर वह यही उत्तर देते कि ऊँचे पद और विपुल संपदा से भी जातीय स्वाभिमान ऊँचा है। जब अंग्रेज लोग अपनी पोशाक को इतना महत्व देते हैं कि दूसरी जाति वाले विवश होकर उनकी पोशाक पहनें तो क्या हम इतने हीन हैं जो पैसे के लिये अपनी जातीय वेशभूषा भी मालिकों की इच्छानुसार बदल दें?

छत्रपति शिवाजी-


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