भारतवर्ष धर्मप्राण देश है, बहुत प्राचीन काल से यहाँ धर्म को जीवन का प्रमुख अंग माना जाता रहा है। कारण यह है कि हमारे तत्वदर्शी पूर्वज जानते थे कि मानव जीवन की चतुर्मुखी उन्नति का केन्द्र धर्म ही है। जब संसार के अन्य भागों में मनुष्य जंगली जीवन व्यतीत कर रहे थे, तब धर्म की धारणा के कारण ही हमारा देश विश्व की मुकुटमणि बना हुआ था। शारीरिक, आर्थिक, सामाजिक, बौद्धिक उन्नति की सर्वोच्च श्रेणी पर भारतवासी पहुँचे हुए थे। स्पष्ट ही धर्म का पालन एक प्रत्यक्ष व्यापार है, जिसका सुफल अविलम्ब प्राप्त होता है। धर्म का ध्रुव निश्चित फल सुख है। दूसरे शब्दों में यों कह सकते हैं कि जिस मार्ग पर चलने से लौकिक और पारलौकिक सुख मिलता है, उसे धर्म कहते हैं।
जब हम अपनी दुर्दशा पर विचार करते हैं तो हमें यह देखने के लिये बाध्य होना पड़ता हैं कि कहीं हमने धर्म का परित्याग तो नहीं कर दिया है, जिससे, दीनता, दासता, अज्ञान और दुखों की चक्की में पिसते हुए छटपटाना पड़ रहा हैं। चिकित्सा से पहले रोग का निदान आवश्यक होता है।
गणितज्ञों ने हिन्दू जाति की धार्मिक अवस्था पर गहरी खोज की है और हिसाब लगा कर बताया है कि संध्या, पूजा, जप, कीर्तन, तीर्थयात्रा कर्मकाण्ड, संस्कार, मन्दिर दर्शन कथा श्रवण, शास्त्र पठन, धार्मिक शिक्षा के निमित्त सर्वसाधारण का जो बहुत सा समय खर्च होता है और साधु, सन्त, पुरोहित, पुजारी उपदेशक, धर्म संस्थाओं तथा धर्म स्थानों के कर्मचारी आदि का जो पूरा समय खर्च होता है, इस सारे समय को जोड़ कर इसका औसत तीस करोड़ हिंदुओं पर फैलाया जाय तो हर छोटे-बड़े के हिस्से में पौने तीन घंटे का समय पड़ता है। निद्रावस्था को छोड़ कर शेष समय का यह करीब पाँचवाँ भाग है। इसी प्रकार उपरोक्त कार्यों एवं व्यक्तियों के ऊपर करीब 2 अरब 96 करोड़ रुपया प्रति वर्ष व्यय होता है। इसकी औसत हर हिन्दू के ऊपर डेढ़ पैसा प्रति दिन पड़ता है। देश की औसत आमदनी दो आना रोज है। इस तरह सारी आमदनी का पाँचवाँ भाग धर्म के लिये खर्च किया जाता है। एक शब्द में यों कह सकते हैं कि हम लोग अपनी सम्पूर्ण शक्ति का पाँचवाँ भाग धर्म के निमित्त इस समय भी लगाते हैं।
पाँचवाँ भाग बड़ी भारी शक्ति है। अन्य देशों में फौजी तथा भीतरी सम्पूर्ण व्यवस्था के लिये मजबूत सरकारें अपने देश की आमदनी का दसवें से भी कम भाग खर्च करती है। कहते हैं कि इस समय युद्ध में लगे हुए राष्ट्रों में सब से अधिक खर्च करने वाला देश जर्मनी अपनी राष्ट्रीय आय का पाँचवाँ भाग युद्ध एवं राज्य व्यवस्था में खर्च कर रहा है। यों समझिए कि यदि हिन्दू जाति को जर्मनी के समान किसी बड़े भीषण रोमहर्षक युद्ध में संलग्न होना पड़ता तो उस समय अधिक से अधिक इतना ही खर्च करना पड़ता जितना आज भी हम लोग धर्म के लिये कर रहे हैं। अमेरिका आदि कुबेर समान धनी देशों के ईसाई मिशन संसार भर में अपना मजहब फैलाने के लिए बहुत बड़ी धनराशि व्यय करते हैं, पर वह भी हमारे व्यय की अपेक्षा कम है। जितने पैसे से दर्जनों यूनीवर्सिटी, पचासों कालेज, सैकड़ों हाईस्कूल, हजारों पाठशालायें चल सकती हैं, उतना पैसा एक-एक पर्व पर पुण्य लाभ के निमित्त यहाँ खर्च होता है। जितनी पूँजी से उद्योग धन्धे आरम्भ करके अधपेट खाने वाले गरीब मनुष्य और भूख की ज्वाला से तड़फ-तड़फ कर प्राण देने वाले बालकों को रोजी दी जा सकती है, इतना पैसा प्रति वर्ष मन्दिरों के सजाव, शृंगार, भोग, भक्ति में खर्च हो जाता है।
औसत आमदनी दो आना प्रति दिन में से अधिक से अधिक पाँचवाँ भाग भी परोपकार के लिये निकाला जा सकता है। भोजन, वस्त्र, आवागमन, दवादारु तथा अन्य जीवनोपयोगी आवश्यकताओं को किसी प्रकार जैसे-तैसे पूरा करते हुए पाँचवे भाग से अधिक समय एवं शक्ति को परमार्थ के लिए लगाने की आशा भला कौन निर्दय कह सकता है। निस्सन्देह हिन्दू जाति इस गई गुजरी दशा में भी धर्म के लिए जितना त्याग कर रही है, उसका उदाहरण संसार में अन्यत्र कहीं भी मिल सकना कठिन है।
इतना होते हुए भी हम दिन-दिन नीचे गिरते जा रहे हैं। शास्त्र कहता हैं कि “धर्मोरक्षति रक्षित;” धर्म की रक्षा करने से अपनी रक्षा होती है। हम धर्म की रक्षा कर रहे हैं, पर धर्म हमारी कुछ भी रक्षा क्या नहीं करता? इस गम्भीर प्रश्न ने आज तीस करोड़ हृदयों में खलबली पैदा कर दी है। देश के विचारवान व्यक्ति इस पेचीदगी से बहुत ही चिन्तित हो रहे हैं। जब गुत्थी सुलझती नहीं, तो विवश होकर हमारे नौनिहाल उसे ढोंग, पाखंड, जालसाजी, धोखेबाजी, भ्रमपूर्ण कल्पना आदि नामों से सम्बोधन करते हैं और उसके विरुद्ध बगावत का झंडा बुलन्द करते हैं। हम देख रहे हैं कि भारत की भावी पीढ़ी धर्म के विरुद्ध तूफानी बगावत को साथ में ला रही है और उस प्रचण्ड बवंडर में सम्भव है कि आर्य सभ्यता के प्राचीन गौरवमय सिद्धान्त भी बह जाएं। टर्की में कमालपाशा ने अपने देश की सम्पूर्ण परम्पराओं को कुचल डाला। रूस में धर्म का बिलकुल बहिष्कार कर दिया, कौन जानता है कि हमारे देश के नौजवान अपने समय के धर्म की निरर्थकता, नपुँसकता और निरुपयोगिता से झुँझलाकर उसे चूर-चूर नौकर डालेंगे।
अखंड ज्योति के जीवन का प्रधान उद्देश्य ‘धर्म की सेवा’ है। यह धर्म की पूजा के लिये ही प्रकट हुई है और इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए इसे जीवित रहना है। जिसका प्राण ही धर्म में पिरोया हुआ हो, वह अपने ईष्ट पर इस प्रकार की आपत्ति आते देखकर, उसे लाँछित और तिरस्कृत होते देखकर, मार्मिक वेदना का अनुभव करती है “प्रत्येक व्यक्ति धार्मिक बने” यह उपदेश करने के साथ हम धर्म के वर्तमान स्वरूप में शोधन भी करना चाहते हैं। हम अनुभव करते हैं कि सदियों की पराधीनता गरीबी और अज्ञान ने धर्म के वास्तविक स्वरूप को बहुत ही विकृत, दोषपूर्ण, एवं जर्जरित कर दिया है, अनेक छिद्रों के कारण उसका वर्तमान स्वरूप छलनी की तरह छिरछिरा हो गया है, जिससे राष्ट्र की उच्चतम सद्भावनाओं के साथ डाली हुई पञ्चमाँश शक्ति नीचे गिर पड़ती है और छलनी में दूध दुहने वाले के समान केवल पश्चात्ताप और निराशा ही प्राप्त होती है।
सद्भावना से प्रेरित होकर आत्मोद्धार के लिए जो लोकोपकारी कार्य किये जाते हैं, वे धर्म कहलाते हैं।” धर्म की इस मूलभूत आधार शिला के ऊपर हमें देश काल की स्थिति के अनुसार नवीन कर्मकाँडों की रचना करनी होगी। दूध रखने के लिये छेदों वाले बर्तन को हटाना होगा, जिसमें से कि सारा दूध चू कर मिट्टी में मिल जाता है। ईश्वर की सच्ची उपासना उसकी चलती फिरती प्रतिमाओं से प्रेम करने में है। परमार्थ की वेदी पर अपने निजी तुच्छ स्वार्थों को बलिदान करना धर्म हैं। धर्म और ईश्वर की सच्चे अर्थों में पूजा करने वाले व्यक्तियों का कार्य-क्रम वर्तमान परिस्थितियों में अपने आस-पास छाये हुए अज्ञान और दारिद्र के घोर अन्धकार को दूर हटाना होगा। अविद्या के कारण हमारी कौम अंधेरे में टकराती फिर रही है, दरिद्रता के कारण हमारा देश पशुओं से भी गया बीता दयनीय जीवन बिता रहा है। जिसके हृदय में धर्म हैं, उसके हृदय में दया करुणा और प्रेम के लिये स्थान अवश्य होगा। जो व्यक्ति धर्म के नाम पर माला तो सारे दिन जपता है, पर बीमार पड़ौसी की सेवा के लिये आधा घंटा की भी फुरसत नहीं पाता, हमें संदेह होगा कि वह कहीं धर्म की विडम्बना तो नहीं कर रहा है।
हम प्रत्येक धर्मप्रेमी से करबद्ध प्रार्थना करते हैं कि धर्म के वर्तमान विकृत रूप में संशोधन करें और उसको सुव्यवस्थित करके पुनरुद्धार करें। धर्माचार्यों और आध्यात्म शास्त्र के तत्वज्ञानियों पर इस समय बड़ा भारी उत्तरदायित्व है, देश को मृत से जीवित करने का, पतन के गहरे गर्त में से उठाकर समुन्नत करने की शक्ति उनके हाथ में है, क्योंकि जिस वस्तु से-समय और धन से-कौमों का उत्थान होता है, वह धर्म के निमित्त लगी हुई हैं। जनता की श्रद्धा धर्म में है। उनका प्रचुर द्रव्य धर्म में लगता है, धर्म के लिये छप्पन लाख साधु संत तथा उतने ही अन्य धर्मजीवियों की सेना पूरा समय लगाये हुए है। करीब एक करोड़ मनुष्यों की धर्म सेना, करीब तीन अरब रुपया प्रतिवर्ष की आय, कोटि-कोटि जनता की आन्तरिक श्रद्धा, इस सब का समन्वय धर्म में है। इतनी बड़ी शक्ति यदि चाहे तो एक वर्ष के अन्दर-अन्दर अपने देश में रामराज्य उपस्थित कर सकती है, और मोतियों के चौक पुरने, घर-घर वह सोने के कलश रखे होने तथा दूध दही की नदियाँ बहने के दृश्य कुछ ही वर्षों में दिखाई दे सकते हैं। आज के पददलित भारतवासियों की सन्तान अपने प्रातः स्मरणीय पूर्वजों की भाँति पुनः गौरव प्राप्त कर सकती है।
अखंड ज्योति धर्माचार्यों को सचेत करती है कि वे राष्ट्र की पंचमाँश शक्ति के साथ खिलवाड़ न करें। टन-टन पों-पों में, ताता थइया में, खीर-खाँड़ के भोजनों में, पोथी पत्रों में, घुला-घुला कर जाति को और अधिक नष्ट न करे, वरन् इस ओर से हाथ रोककर इस शक्ति को देश की शारीरिक, आर्थिक, सामाजिक, मानसिक शक्तियों की उन्नति में नियोजित कर दें। अन्यथा भावी पीढ़ी इसका बड़ा भयंकर प्रतिशोध लेगी। आज के धर्माचार्य कल गली-गली में दुत्कारे जायेंगे और भारत-भूमि की अन्तरात्मा उन पर घृणा के साथ थूकेगी कि मेरी घोर दुर्दशा में भी यह ब्रह्मराक्षस कुत्तों की तरह अपने पेट पालने में देश की सर्वोच्च शक्ति को नष्ट करते रहे थे। साथ ही अखंड-ज्योति सर्वसाधारण से निवेदन करती है कि वे धर्म के नाम पर जो भी काम करें उसे उस कसौटी पर कस लें कि “सद्भावनाओं से प्रेरित होकर आत्मोद्धार के लिये लोकोपकारी कार्य होता है या नहीं।” जो भी ऐसे कार्य हों वे धर्म ठहराये जावें इनके शेष को अधर्म छोड़ कर परित्याग कर दिया जाय।
देश के प्रत्येक निवासी का ध्यान इस और आकर्षित होना राष्ट्रीय जागरण का प्रथम चिन्ह होगा कि हमारी सामूहिक शक्ति का सर्वोच्च पंचम भाग किन कार्यों में? किस प्रकार? और किनके द्वारा और विवेक क्यों व्यय होता है? इसका क्या परिणाम निकलता है? इसमें क्या दोष आ गये हैं और उनमें क्या सुधार हो सकता है? हिन्दू जाति के कल्याण का प्रथम मार्ग यह है कि वह अपनी नाड़ियों का पाँचवाँ भाग रक्त अपव्यय होने से बचावे और उसका सदुपयोग करके शक्ति संपादित करे।
सुकरात-