गरीबी और धर्म प्रवृत्ति

August 1942

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(पं. प्रसादीलाल शर्मा ‘दिनेश’ कराहल)

मैं गरीब घर में उत्पन्न हुआ और गरीब ही बना हुआ हूँ। धनाभाव के कारण उच्च शिक्षा प्राप्त न कर सका, पर धर्म पर दृढ़ रहा हूँ। मेरे सहपाठी उच्च शिक्षा प्राप्त करके ऊँचे पदों पर पहुँचे, किन्तु मुझे लोकल बोर्ड की नौकरी को ही जीविका का आधार बनाना पड़ा। गरीबी ने मेरी आध्यात्मिक उन्नति में सदैव सहायता की और विचारों को ऊँचा उठाया एवं रामाष्टक आदि कई पुस्तकों की रचना करने में समर्थ हुआ। मैंने एक बार एक सोरठा बनाया, जिसका अन्तिम पद था- ‘दुनिया पाप समान।’ यह पद बनाया ही था कि भीतर से एक प्रबल प्रेरणा हुई कि तुम्हारा यह विचार अनुचित है। तुम भी तो दुनिया में ही हो, बड़े-बड़े महात्मा भी तो दुनिया में ही हैं। फिर यह पाप समान कैसे हो सकती है? दो दिन तक इन्हीं विचारों में मग्न रहा। दूसरे दिन संध्या समय मैं एक घाट के सामने की पटिया पर बैठा हुआ था कि एक और अबोध बालक आकर मेरी भूल को सुधार गया और अंतर्धान हो गया।

मेरे मन को भक्ति की ओर से सन्तुष्टता प्राप्त न हुई। मन का भाव धर्म की ओर झुका और जनता के आत्मकल्याण के लिए इस जंगली पठार भूमि में एक सत्संग एवं हरिकीर्तन मण्डल की स्थापना की। धर्मचर्चा करना आरम्भ कर दिया, ईश्वर की कृपा से 60, 70 आदमी मंडल में काम कर रहे हैं और नियमित रूप से भजन, कीर्तन, कथा, सत्संग आदि कार्य बड़े ही उत्साह के साथ चल रहे हैं। हमारे साथी जो उच्च पदों पर हैं, इनमें से कई एक महानुभावों ने अधर्म की ओर प्रवृत्ति झुकाई, जिसके कारण आज वे अनेकानेक कष्टों में फंसे हुए हैं।

जो हो, मुझे अपनी गरीबी पसंद है, क्योंकि उसी ने मुझे धर्म पर आरुढ़ रखा है।


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