अखण्ड-ज्योति का साक्षात्कार

August 1942

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(श्री भगवती प्रसाद जी व्यथित, बाड़ा)

अभी थोड़े दिन की बात है, एक रोज की घटना है, जब प्रातः काल करीब 6 बजे स्नान आदि से निवृत्त होकर संध्या भजन करने के लिए नित्य की भाँति अपनी टूटी-फूटी मढैय्या में एकाग्रचित्त होकर बैठ गया। एकाएक दिल में नाना प्रकार की शंकाएं उत्पन्न हो गईं। सब से बड़ी शंका यह थी कि ‘अखण्ड-ज्योति’ से क्या तात्पर्य? इसका क्या भाव? इसके भीतर वास्तविक रहस्य क्या है? इसी उथल-पुथल में पूजा भी प्रेम से न कर सका। चित्त में व्यग्रता छा गई, तीन रोज तक खाना-पीना भी काल स्वरूप हो गया। अन्त में मैंने प्रार्थना की कि हे प्रभो! मेरे सन्देह को निवारण कराइए।

तीसरे रोज रात्रि के 1 बजे के करीब मेरे कानों में सनसनी सा बड़े जोरों का शब्द मालूम हुआ। देखा तो स्फटिक सा स्वच्छ आकाश दृष्टिगोचर हुआ, उसमें बिजली जैसी चमक रह-रह कर मालूम होने लगी। उसी निर्मल आकाश में चमकायमान जगमग करता हुआ “अखण्ड ज्योति” मोटे अक्षरों में अंकित बहुत विस्तार रूप से दृश्यमान हुई। उसी अवस्था में नम्रवत् इन दिव्य अक्षरों को प्रणाम किया। तत्काल क्षण मात्र में वह अक्षर लुप्त हो गये। मुझे ऐसा लगा मानो सिनेमा जगत में बैठा हुआ हूँ। फिर वहीं स्वच्छन्द आकाश दिखाई दिया- कोई जोर-जोर से कह रहा था- “सावधान! सावधान!!” फिर थोड़े काल में सूर्य जैसा तेज चहुँ दिशा में प्रकट हुआ, जैसे सूर्य अपनी रश्मियों को धीरे-धीरे समेट लेता है, वैसे ही वह प्रकाश भी एक बिन्दु पर एकत्रित होकर विलीन हो चला। वह ज्योति का समेटा हुआ बिन्दु महान् शक्तिशाली हो गया। अपनी धुरी पर एक सैकिण्ड में मानों हजारों चक्कर करने लगा। उसी कम्पन से हुँकार, सोहंकार, शब्दनाद चरितार्थ हुआ और सोहंकार से त्रिगुणात्मक सत, रज, तम प्रकट हुए और उनसे सत्य, प्रेम, न्याय का स्वरूप धारण कर लिया।

यह इस प्रकार का दृश्य देखकर मैं आश्चर्यचकित रह गया। उसी क्षण सारी शंकाएं जाती रही और मुझे पूरा विश्वास हो गया कि अखण्ड ज्योति दैवी प्रेरणा है और इसका निर्माण संसार के कल्याण के लिए हुआ है।


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