सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय

August 1942

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(श्री सेठ अगरचन्द जी नाहटा, बीकानेर)

मेरे जीवन पर बाल्यकाल में धर्म मार्ग पर विशेष रूप से झुकाने वाला प्रभाव उस समय पड़ा जब हमारे यहाँ जैनाचार्य श्री जिन कृपाचन्द्र सूरि जी अपनी शिष्य मंडली के साथ पधारे थे। गंगा दरवाजे के बाहर जब वे खड़े हुए थे, तो उनके दर्शन करके मैं बहुत प्रभावित हुआ। इसके पश्चात् उनका पदार्पण हमारे बाबा जी की कोटड़ी में हुआ और बहुत समय तक यहाँ विराजे। मैं उनके व्याख्यान में रोज जाया करता। उनके शिष्य मुनि सुख सागर जी के पास भवतत्व दंडकादि प्रकरण ग्रन्थों का अध्ययन किया। सन्ध्या समय प्रतिक्रमण करने के लिए वहाँ जाता, रात्रि को भी धर्मचर्चा, प्रश्नोत्तर चलते रहते, इस प्रकार निरंतर साधु समागम के कारण धार्मिक भाव काफी दृढ़ हो गये। धार्मिक ज्ञान भी उत्तरोत्तर बढ़ने लगा। उनके पास बहुत से नये-नये ग्रन्थ देखने में आते।

इसके पश्चात् स्वाध्याय और सद्ग्रन्थावलोकन की ओर रुचि बढ़ी और विभिन्न स्थानों से अनेकानेक ग्रन्थों को मँगा कर अध्ययन किया। इन ग्रन्थों के स्वाध्याय से आध्यात्मिक भावों की ओर झुकाव दिन-दिन बढ़ता गया और उस अध्ययन से मेरा जीवन बहुत कुछ ऊँचा उठता गया। यद्यपि मैं किसी प्रकार की योग साधना नहीं कर सका तो भी सद्ग्रन्थों का कई बार स्वाध्याय करने से चित विशुद्धि काफी परिणाम में हुई हैं। मेरी इस उन्नति का मुख्य कारण स्वाध्याय प्रेम है, परन्तु वह प्रेम भी तो साधु समागम के कारण ही उत्पन्न हुआ, अतएव मैं उसी को मुख्य मानता हुआ पाठकों का ध्यान साधु समागम एवं सद्ग्रन्थों के निरंतर स्वाध्याय की और विशेष रूप से आकर्षित करता हूँ।

यहाँ एक बात और स्पष्ट करने की आवश्यकता है कि जिस प्रकार सत साधुसंग एवं सद्ग्रन्थों के अध्ययन का महत्व है, उसी प्रकार दुष्ट-संगति एवं कुत्सित साहित्य के अध्ययन से मनुष्य का जीवन बरबाद भी हो जाता हैं। इसलिए प्रथम उनकी परीक्षा करके तब संपर्क में आना चाहिए। सत्साधुजनों का समागम कष्ट साध्य है, पर सद्ग्रन्थों की प्राप्ति सुगमता से हो सकती है। हमें चाहिए कि सद्ग्रन्थों के स्वाध्याय को जीवन का प्रमुख कर्त्तव्य बनाकर लाभ उठाते रहें।


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