आत्मा का आदेश

August 1942

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(श्री रामनारायणजी श्रीवास्तव्य ‘हृदयस्थ’ गोहद)

लोग कहते हैं कि गिर्द नवाह में पानी खूब बरस चुका है, किन्तु यहाँ बहुत थोड़ा है। संभवतः यही सुनकर न्यायकारी परम पिता ने आज रात को इस तरह वर्षा करने का निश्चय किया था। नियत समय पर नींद खुली, पानी रिमझिम-रिमझिम बरस रहा था। आँखें बन्द करके सोचने लगा, आज पानी बहुत बरस कर भी बन्द नहीं हो रहा है। भगवन्! आज कैसे नित्य-कृत्य में लगा जाय? इसी बीच कुछ झपकी सी लग गई। एकाएक अन्तरात्मा से आदेश मिला कि इस पास पड़े हुए टाट के टुकड़े को ओढ़ कर नित्य-कृत्य से निवृत्त हो लो। तुरन्त उठ कर देखा- सचमुच एक टाट का टुकड़ा पास ही पड़ा था। आदेशानुसार कार्य में संलग्न हो गया।

सन्ध्यावन्दन के लिए निश्चित स्थान पर गया तो देखा कि वहाँ छत से पानी खूब टपक रहा है, थोड़ी दूर सूखा स्थान देख कर आसन बिछा कर बैठ गया। नियत कार्य में लगा तो था किन्तु मन बार-बार उचट कर कह रहा था, अभी उधर से पानी बह कर इधर ही आ रहा है और आसन आदि सब सराबोर हुए जाते हैं, लेकिन अब क्या? पहिले ही ध्यान आ जाता तो यहाँ बैठते ही नहीं। साधन समाप्त कर के उठा तो देखा कि पानी मुझ से लगा हुआ भरा है, किन्तु मैं सूखे में हूँ।

भद्र बन्धुओं! यह कोई घटना नहीं है, तो भी एक महत्वपूर्ण विषय की चर्चा है। यदि हम अपनी अन्तरात्मा को निरन्तर पवित्र बनाते जायं तो वह सतेज होती जाती है और हमारे दैनिक कार्यों में अत्यन्त महत्वपूर्ण सलाहें दिया करती हैं एवं शत-प्रतिशत ठीक उतरने वाली भविष्य वाणियाँ करने लगती हैं। मुझे अपने कुछ दिनों के साधनों के आधार पर इसका भली प्रकार आभास हो रहा है।

आचार्य जी ने ‘सत् धर्म की दीक्षा’ पुस्तक में कितना अनुभवपूर्ण लिखा है- “तुम्हें अपनी अन्तरात्मा से ही एक निश्चित, सुलझा हुआ उत्तर प्रत्येक समस्या पर मिलेगा, सघन की निरन्तरता तो रखिए।”


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