बातचीत की कला

August 1942

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(ले.- श्री दुलीचंद एच. पाटीदार, बुरहानपुर)

मैं यहाँ एक प्रसिद्ध छापेखाने का प्रबंधकर्ता हूँ। नगर के और नगर से बाहर के बहुत से गणमान्य पंडितों, विद्वानों, सेठों, नेताओं, वकीलों, डाक्टरों तथा सभ्य कहलाने वाले नागरिकों से अनेक अवसर मुझे भेंट करने के लिये मिलते हैं। इन भेंटों में जहाँ कई लाभ होते हैं, वहाँ एक बात बहुत बुरी तरह खलती भी है कि लोग बातचीत करने की तमीज का बहुत ही कम ख्याल करते हैं।

“वार्तालाप का ढंग“- जीवन की प्रधान कला है। किसी आदमी का प्रभाव दूसरों के ऊपर उसी प्रकार का होता है जैसे ढंग से वह बातचीत करता है। यह कला छोटों को बड़ा और बड़ों को छोटा बना सकती है, किन्तु कितने लोग हैं जो अपनी इस महत्वपूर्ण शक्ति का सदुपयोग करते हैं?

देखता हूँ कि लोग यह चाहते हैं कि हमारे साथ दूसरे लोग सभ्यता और नम्रता का व्यवहार करें। किन्तु वे स्वयं दूसरों से वैसा व्यवहार नहीं करते। वे सोचते हैं कि हमारे पद या विधा वैभव का आदर करें और उसी के लिए नम्रता बरतें परन्तु वे यह भूल जाते हैं कि भौतिक वैभव से खुशामद तो मिल सकती है पर आदर नहीं मिल सकता है। जो व्यक्ति दूसरों के साथ सभ्यता और नम्रता का व्यवहार करेगा उसे ही सच्चा आदर प्राप्त हो सकेगा।

कटुता, दुर्व्यवहार, अहंकार, असभ्यता और टुच्चेपन के साथ बातचीत करने वाला व्यक्ति झूठमूठ अपना बड़प्पन दिखाता है, पर असल में वह दूसरों की निगाह में बहुत ही नीचा गिर जाता है। इसी प्रकार अनावश्यक गप्पों में और उपेक्षा में दूसरों को बहुत देर बिठाये रखने में जो लोग अपना और दूसरों का समय बर्बाद करते हैं, वे अपने साथ और दूसरों के साथ बड़ा भारी अन्याय एवं अपकार करते हैं।

मैं बहुत तर्क, प्रमाण और अनुभवों के आधार पर अपना यह अनुभव सर्वसाधारण के सामने प्रकट कर रहा हूँ कि मनुष्य के महत्व को ऊँचा उठाने और नीचा गिराने में “बातचीत की कला” का प्रमुख स्थान है।


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