मनुष्य के दो दुर्भाग्य

August 1942

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(श्री इन्द्रचन्द्र भूरा, सिवनी)

एक समय हमारे घर विपुल संपदा, बंगला, मोटर, घोड़ा गाड़ी, नौकर-चाकर सभी कुछ थे। पन्द्रह साल की उम्र में मैंने पढ़ना छोड़ दिया और अपने दिन मौज-मौज में काटने लगा। पिता जी से जितने पैसे माँगता, मिल जाते। खूब तो सिनेमा देखा, खूब सिगरेट के धुँए उड़ाये, खूब घूमा और खूब शौक किये। वक्त काटने के लिए एक-दो काम सीखने में भी कुछ समय लगाया, पर मन उधर न लगा। पैसा-खर्च, पैसा-खर्च, दो ही बातों का मुझे ध्यान रह सका। लक्ष्मी-सुख शान्ति की देवी हैं। कुपात्रों के यहाँ अधिक समय तक वे नहीं ठहरतीं, जब जाने को होती है, तो यों ही चली जाती हैं। समय प्रवाह के साथ लक्ष्मी जी भी बह गईं। हमें निर्धनता ने आ घेरा। मित्रों ने साथ छोड़ दिया, सम्बन्धी बुरी निगाह से देखने लगे, पिता जी का कोप भाजन बन गया। चारों ओर से हिकारत बरसने लगी।

ठोकर लगने के बाद होश आता है, अथवा यों कहना चाहिए कि ईश्वर होश में लाने के लिए ठोकर लगाता है। अपनी पिछली भूलों का जो परिणाम सामने आया, उससे सिसक-सिसक कर रोने लगा, पश्चाताप की आग में मेरा जी जलने लगा। मन की वेदना किसके आगे प्रकट करता?

अनुभव ने मुझे होशियार बना दिया, अब मेरे सारे व्यसन छूट गये है और मामूली पूँजी से सोने, चाँदी की दुकान चलाता हूँ। गृहस्थी के बोझ ने किफायतशार और आवश्यकताओं ने उद्यमी बना दिया है। अब मैं पिछली गलतियों से शिक्षा लेता हूँ और उन शिक्षाओं की सहायता से आगामी जीवन का निर्माण करता हूँ। स्वार्थी दुनिया के प्रपंचों में उलझने की अपेक्षा एकान्त सेवन और आत्म चिन्तन मेरे प्रिय विषय बन गये हैं।

गत जीवन की घड़ियाँ मुझे निरंतर शिक्षा दिया करती हैं कि (1) फिजूल खर्ची का चस्का लगना और (2) फिजूल खर्ची के लिए धन मिलना, यह मनुष्य के सब से बड़े दो दुर्भाग्य हैं। जिस अभागे को यह दोनों ही मिल गये हैं, उसके अन्धकारमय भविष्य की ईश्वर ही रक्षा कर सकता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles