एक बात बोलो

August 1942

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(श्री जगन्नाथ राव नायडू, नागपुर)

तारीख 29 जून को मैं स्टेशन से घर जा रहा था। यहाँ पर छोटी लेन का भी प्लेटफार्म है, यहाँ एक स्त्री, एक 13 साल की बालिका तथा दो और छोटे बच्चे बैठे थे। जब मैं उधर से निकला, तो वे लोग ऐसे बात किये, जैसे कुछ पुरानी पहचान हो। कहने लगे- हमें सदर पहुँचा दो या रास्ता बतला दो। मैंने उन्हें दो रास्ते बतलाये और कहा इधर से भी जा सकते हो और इस दूसरे रास्ते से भी जा सकते हो। बाई ने कहा- दो बात मत बोलो, हम भूल जाएंगे। मुझे अपनी भूल प्रतीत हुई। अपरिचित आदमी को दो बातें नहीं बतानी चाहिए। इससे वह गड़बड़ में पड़कर भूल कर सकता है। मैं कुछ दूर चलकर सीधे रास्ते पर उन्हें पहुँचा आया।

जब वापिस लौटा तो मुझे लगा कि मानव जाति को एक ही प्रकार का रास्ता बताने की आवश्यकता है। विद्वानों ने अलग-अलग रास्ते बता कर दुनिया को भ्रम में डाल दिया है। यदि साम्प्रदायिक उलझनें पैदा करने की बजाय सत्य, प्रेम, न्याय का एक ही सच्चा धर्म समस्त संसार को सिखाया जाये, तो हम सब लोग भी हेलमेल के साथ उसी तरह रह सकते हैं, जैसे गायें और हिरन प्रेम पूर्वक अपने झुण्ड में रहते हैं।

एक दिन एक हिन्दू लड़का स्टेशन पर मुझे मिला। वह छत्तीसगढ़ की बोली में पूछने लगा- “राजनन्द गाँव को गाड़ी कब जावेगी। मैं एक मुसलमान के साथ आया हूँ और गरीबी के कारण मुसलमान हो जाऊँगा।” मेरे मन में उस के ऊपर दया आई और उसे अपने घर ले जाकर रखने एवं भोजन, वस्त्र की व्यवस्था करने की सोचने लगा। मैंने अपने संदेहों को निवारण करने के लिए उसकी बारीक परीक्षा की, तो भेद खुल गया कि वह ठग है और दयालु व्यक्तियों को ऐसे ही बहानेबाजी से ठगा करता हैं। इस ठगी में उसे सफलता मिली है, इस लिए पेशे की तरह इस बहानेबाजी को अपनाये हुये हैं

मुझे लगा कि दया-धर्म बहुत उत्तम है, परन्तु बिना परीक्षा किये कुपात्रों की सहायता करना, दुनिया में पापों की ओर अधिक वृद्धि करना है।


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